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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/5/13

खाऊ पीऊ लोगों का कचड़ा विसर्जन-हिन्दी व्यंग्य (khau peeu logon ka kachda visarjan-hindi vyangya or satire)



       उत्तराखंड में प्रकृति प्रकोप के कारणों पर अनेक विद्वान तरह तरह के विश्लेषण कर रहे हैं। यह हैरानी की बात है कि भगवत्दर्शन के लिये गये लोगों के हताहत तथा उनके परेशान परिजनों के दुःखी होने पर चेतनवान बुद्धिजीवियों की उनसे  सहानुभूति तो है पर कोई इसमें भगवान का दोष नहीं देखना चाहता। सभी विद्वान तथा चेतनवान लोग इसे मानव सभ्यता के आ बैल मुझे मारनीति  का अनुसरण करने का परिणाम मान रहे हैं।  अध्यात्मिक ज्ञानी, वैज्ञानिक तथा सामाजिक विशेषज्ञ बहुत समय से हिमालय पर सैलानियों के सैरसपाटे के दौरान वह बिखरने वाले कचड़े पर चिंतित थे।  वहां  गैसों के उत्सर्जन  साथ ही कचड़े के विसर्जन को लेकर अनेक प्रचार माध्यमों पर बहसें हो चुकी हैं।  यह ठीक है कि पूरे विश्व में गैसों के उत्सर्जन से वातावरण गर्म हो रहा है और हिमालय उससे अछूता नहीं है पर अनेक वैज्ञानिक इस प्रकोप को स्थानीय अप्राकृतिक गतिविधियों का परिणाम भी  मानने में हिचक नहीं दिखा रहे।
          पिछले बहुत समय से हिमालय क्षेत्र में सैलानियों की संख्या बढ़ी है।  तय बात है कि यह सैलानी कोई वहां सफाई या वृक्षारोपण करने नहीं जाते। उनके जेब में पैसा तथा देह मे ं विचलित एक मन है जो उन्हें वहां ले जाता है। उनके पास भोजन और पानी के  स्तोत्र प्लास्टिक से बने होते हैं। इनमें भी कोई इतना ज्ञानी नहीं होता कि वह उस कचड़े को अपने ही बस्ते में भरकर उस क्षेत्र से बाहर आकर कूंड़ेदान में फैंके। उनके लिये यह सरकार का काम है। हम कचड़ा फैंके और सरकार उसे साफ करवाये।  सरकार न साफ कराये तो स्वैच्छिक संगठन यह काम श्रद्धा भाव से करें पर हम यह काम नहीं करेंगे। हम तो मौज मस्ती के लिये पैदा हुए हैं, यह भाव अधिकतर लोगों के मन में होता है।  हिमालय में तो लाखों लोग जाते रहे हैं ऐसे में वहां फैले कचड़े की मात्रा का अनुमान सहजता से  करना हो तो अपने ही शहर में स्थित पार्कों को देखें। कहीं दिन में हजार या सौ लोग आते होंगे।  बरसात और गर्मी में ऐसे उद्यान लोगों को आकर्षित करते हैं।  मुश्किल यह है कि लोग बिना खाये आनंद लेना जानते ही नहीं। सच कहें तो लोगों के लिये कहीं घूमने का अर्थ वहां जाकर खाना।
        हमने एक बड़ा उद्यान देखा। हमारा अनुमान है कि वहां दिन में हजार से अधिक लोग नहीं आते होंगे।  सुबह और शाम की  नियमित सैर करने वाले लोग ऐसे उद्यानों में कचड़ा नहीं करते।  वहां आने वाले कभी कभी कभार घूमने वाले लोग खाने और पीने के प्लास्टिक के पैकेट वहां लाते हैं।  कभी कभी कुछ शराब पीने वाले भी रात वहां आते होंगे क्योंकि विभिन्न शराबों के ब्रांड की बोतलों के साथ नमकीन के पैकट और पानी के पाउच पड़े मिलते हैं।  नियमित सैर करने वालों के लिये ऐसे ही लोग इन उद्यानों में नरक के दृश्य छोड़ देते हैं। कुछ नियमित सैर करने वाले श्रद्धा वश कचड़ा उठाकर फैंकते हैं पर कुछ लोग ऐसे लोगों को मन ही मन कोसते हैं जो ऐसा कचड़ा वहां फैंकते हैं। इन खाने वालों का यह तमीज सिखाना सहज नहीं है कि वह उस कचड़े को उठाकर नगर निगम के कचड़ादान तक पहुंचाये। नगर निगमों के कामकाज पर रोने वाले हर शहर में मिल जायेंगे पर अपनी करनी पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता। हम कचड़ा फैलायें और नगर निगम साफ करे, इस सोच ने हमारे देश के खाऊ पीऊ लोगों के दिमाग को भ्रष्ट कर दिया है।
         अमेरिका के राष्ट्रपति जूनियर बुश जार्ज बुश ने एक बार कहा था कि विश्व में महंगाई इसलिये बढ़ी है क्योंकि भारत में लोग ज्यादा खा रहे हैं। इस पर बावेला मचा था।  उस समय हमने भी उन पर एक व्यंग्य लिख डाला था।  तब इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि जरा अपने ही देश के कुछ लोगों की गलत आदतों पर भी नज़र डालें।  ऐसे में जब हम कभी किसी उद्यान में जाते हैं तब लगता है कि वाकई जार्ज बुश ने गलत नहीं कहा था।  कभी कभी तो अमेरिका वाले यह भी कहते हैं कि विश्व में पर्यावरण को गरम करने वाली गैसों के लिये चीन और भारत जैसे लोग जिम्मेदार हैं तो बहुत विरोध होता है।  चीन का हमें नहीं मालुम पर भारत में कुछ लोगों की आदतें देखकर मन में अप्रसन्नता पैदा होती है तब लगता है कि संभव है यह आरोप सही हो।
     लोगों  को लालसायें बढ़ गयी हैं।  उदारीकरण ने सामान्य व्यक्ति के आर्थिक स्तोत्रों तो संकीर्ण बना दिया है।  ऐसे में भारतीय समाज विरोधाभासों में जी रहा है।  इन विरोधाभासों से पैदां तनाव से बचने के लिये लोग इधर से उधर भागते हैं।  ऐसे में घूमना हो या सत्संग में जाना, उन्हें खाना चाहिये। स्थिति यह है कि जिसे सत्संग करना या कराना हो उसे कथा से अधिक खाने पर ध्यान पहले देना पड़ता है।  कहीं सत्संग हो रहा हो तो उस समय भीड़ कम मिलेगी जब केवल भगवत्चर्चा हो रही हो।  समापन जब भंडारा हो तब वहां जाकर भारी भीड़ देखिये।  भंडारे में प्रसाद लेने वाले श्रद्धालु बहुत सारे आ जाते हैं। उनसे कोई कह नहीं सकता कि तुम तो  केवल खाने आये हो।  इनमें कुछ चतुर होते हैं वह बिना पूछ कहते हैं कि‘‘ हम कथा तो नहीं सुन पाये, सोचा कि चलो भगवान का  प्रसाद तो ले ही आयें।
    गोया कि भगवान पर अहसान कर रहे हों।  उसी तरह उद्यानों के ऐसे खाऊ पीऊ लोग भी इस तरह आते हैं जैसे कि सरकार पर कृपा कर रहे हों। गोया हम नहीं आते तो पार्क की कौन इज्जत करता? उद्यानों में उनका आना जैसे नगर निगम का सम्मान बढ़ाने वाली बात हो। हमने तो आकर तुम्हारी इज्जत बढ़ाई और तुम अब यह कचड़ा साफ करो।  ऐसी मनोवृत्ति वाले लोगों के अंतर चेतना जगाने का काम कौन कर सकता है?
          पहले कुछ सामाजिक पत्रिकाओं में हमें शिकायत हैनाम के स्तंभ आते थे। उसमें कुछ लोग ऐसे कचड़ा फैलाने वालों की चर्चा करते थे। इसका सीधा मतलब है कि यह आदत पुरानी है। हम जब अपने विकास की बात करते हैं तो एक बात तय लगती है कि भौतिक विकास तो हो गया पर हमारा आंतरिक विकास कभी नहीं होगा। हम तो केवल उपभोगी बने रहना चाहते हैं।  दृष्टि और विचार इतने संकीर्ण हो गये हैं कि अपने पेट भरने के अलावा दूसरा काम करना कुछ लोगों को  बोझ लगता है।  जबकि चेतनावान लोग ऐसे केवल उपभोगी प्रवृत्ति वाले  लोगों को ही धरती पर बोझ मानते हैं। तय बात है चेतनावान लोगों की संख्या कम है और कोई उनकी सुनता भी नहीं है।  यह उपभोगी लोगों की भीड़ चेतनावन लोगों को असामाजिक विचारवान कहकर आगे बढ़ जाती है।    

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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