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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/21/07

विश्वास करें पर सतर्कता के साथ

हर कहानी रोज दोहराई जा रही है फिर भी लोग हैं कि भूल जाते हैं। अपने लोगों में ही दुश्मन छिपे हैं और देख नहीं पाते। कहीं लड़की के साथ व्याभिचार का समाचार आता है तो कहीं बच्चे का अपहरण जान-पहचान या रिश्ते के लोग ही कर लेते हैं। कई खबरें मुझे इतनी हृदय विदारक लगती हैं की सोचने लगता हूँ की जब समाज के यही हालत हैं तो यकीन किस पर किया जाय? इस दुनियाँ में माता-पिता और गुरु के बाद मित्र ही वह जीव है जिस पर विश्वास किया जा सकता है, पर अगर मित्र ही पीठ में छुरा घोंपने लगे तो आदमी के मन में विश्वास उठ जाता है।

समय के साथ समाज में कई तरह के विघटन हुए हैं। संयुक्त परिवारों की जगह विघटित परिवारों ने ले ली है। कई बच्चे तो ऐसे हैं जिन्हें केवल रिश्तों के नाम पता है पर न तो उन्हें उसके प्यार की अनुभूति होती है और न ही उसके महत्व का पता है। कहते हैं की जो चूल्हे के निकट होता है वही दिल के भी होता है। पहले तो लोग घर में ही चूल्हे अलग कर ऐक ही मकान में रहते थे पर शहरों में भूमि की समस्या ने अब घरों को भी अलग कर दिया है। स्थिति यह है की जिस माँ-बाप को ऐक ही बेटा है वह भी उनसे अलग हो जाता है क्योंकि समाज में विचारों के टकराव भी अब पहले से अधिक विस्फोटक रुप से बाहर आने लगे है। तमाम तरह के विवादों के चलते लोग अपने रिश्तेदारों के यहाँ कम मित्रो और परिचितों में आत्मीयता का भाव ढूंढने लगे हैं।

यह बुरा नहीं है पर ऐक बात का विचार करना चाहिये की जिन रिश्तेदारों पर हम जानते हुए भी विश्वास नहीं करते तो अनजान लोगों पर इतनी जल्दी यकीन क्यों कर लेते हैं? हम यह मान लेते हैं जिससे हमारा पैतृक संपति या सामाजिक रिश्ते कि वजह से कोई विवाद या कोइ हमसे सीधा मतलब नहीं है वह हमसे झगड़ा नहीं करेगा पर हम यह भूल जाते हैं की जब उससे संपर्क बढेगा तो मतलब भी बढेगा और फिर रिश्तेदारों जैसे झगडे उसके साथ भी होंगे। देखा जाय तो जहाँ पहले रिश्तेदारों से आदमी के साथ विवाद के चलते मारपीट , ठगी , बेईमानी और अन्य आपराधिक मामलों की शिकायतें आती थीं वैसी ही और उतनी ही अब दोस्ती और जानपहचान में आने लगी हैं।
इसलिये अब वह समय भी नहीं रहा की बिना सोचे समझे अपने पड़ोसी, मित्र और जान पहचान के लोगों के साथ भी संपर्क बढ़ाया जाय और अपनी गुप्त बातें बताई जायें । हमने देखा है की लोग घर के बाहर के स्त्री और पुरुष पर बहुत जल्दी इस आधार पर यकीन कर लेते हैं की वह पड़ोस में रह रहा है कहाँ जायेगा या हमने उसका घर देखा है या बोलता अच्छा है तो उसकी नीयात भी ठीक होगी । यह कोई आधार नहीं है खासतौर से इस कंप्यूटर के युग में तो जितना लोगों की बुद्धि चाकू की तरह तेज हो गये है पर चिंतन और मनन क्षमता बहुत कम हो गयी है। इंटरनेट पर चाट करते हुए ही लोग ऐक दूसरे पर यकीन कर लेते हैं-मुझे यह हास्यप्रद बात लगती है। आजकल शायद यही कारण है कि इंटरनेट पर भी ठगी के नये-नये उदाहरण सामने आ रहे हैं। मैं यह नहीं कहता की सब बुरे हैं पर बुरे लोग अपना हित साधने के लिये उतावले होते हैं यह उनकी पहचान है, इसलिये सतर्क रहते हुए देर-धीरे ही मित्रता की तरफ बढ़ना चाहिये।
मेरा मानना है की जब तक आप अपने मित्र का घर स्वयं न देख लें और उसकी पुष्टि के लिये कहीं इधर-उधर पूछताछ न कर लें तब तक उसे मित्र नहीं कहा जा सकता है और साथ ही वह आपके घर ऐक सामान्य सांसारिक व्यक्ति की तरह न आ जाऐ तब तक उस अपने घर की बात भी न कहँ। में यहाँ किसी पर अविश्वास करने की बात नहीं कह रहा हूँ बल्कि सतर्क रहने के लिये कह रहा हूँ। मुझे लगता है कि सतर्क न रहने की वजह से लोग अधिक धोखा खाते हैं । विश्वास करें पर सतर्कता के साथ

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