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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/8/07

भगवान् की कृपा के स्वरूप

बहुत से लोगों की एसी धारणा होती है कि जब भगवान् की कृपा होती है तब ही धन-ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र, कीर्ति तथा अनेकानेक भौतिक एवं दैहिक भोगों की प्राप्ति होती है। वह मानते हैं कि जिन लोगों के पास भौतिक साधनों और भोग की प्रचुरता है बस उन्हीं पर भगवान् की कृपा है। लोग यह भी मानते हैं कि भगवान विपत्ति को टाल देते हैं। भगवत कृपा का इतना छोटा अर्थ समझने वाले लोग वाकई दया की पात्र है, उन्हें भगवान की कृपा का वास्तविक अर्थ ही नहीं मालुम है।
अगर देखा जाये तो संपत्ति या विपत्ति से भगवान की कृपा का पता नहीं लगा सकता है क्योंकि वह तो नित्य दिन हम पर होती है और उसका स्वरूप अपार है और संसार के समस्त प्राणियों पर उस परमात्मा कृपा-सुधा की वर्षा हो रही है! जो लोग उसका यथार्थ अनुभव न कर केवल विषयों की प्राप्ति समझते हैं वे ही लोग विषयों के नाश या अभाव में भगवान् प्र पक्षपात तथा अन्याय और कृपालु न होने का आरोप लगा देते हैं। सच्ची बात तो यह है कि भगवान का कोई भी विधान कृपा से शून्य नहीं होता, कृपा करना तो उनका स्वभाव है। उनके विधान में पापी को दण्ड देना भी शामिल है।
इसमें संशय नहीं है कि कृपा का आन्तरिक स्वरूप तो सदा ही सरस, मनोहर और मधुर होता है, परंतु बाहर कभी वह सुन्दर से सुन्दर और कभी भीषण से भीषण रुप में प्रकट होती है। किसी समय उसका स्वरूप फूल से भी कोमल लगता है तो कभी वज्र से भी अधिक कठोर होता है।
जिन विवेकी और कल्याणकामी पुरुषों ने विषयों की प्राप्ति के लिए भगवान कृपा को साधन नहीं माना वही सच्चे त्यागी और भगवत प्रेमी है। वह इन दोनों रूपों में भगवत कृपा का अनुभव कर कृतार्थ होते हैं, परंतु जो अल्पबुद्धि प्राणी केवल आपात-रमणीय विषयों को ही ऐक मात्र सुख का साधन मानते है, वे अदूरदर्शी और अविवेकी मनुष्य भगवत कृपा के मनोहर रूपों के देखकर तो अत्यंत आह्लादित होते हैं और उस भीषण रुप को देखकर भय से काँप उठते हैं।
(कल्याण से साभार)

1 comment:

रवीन्द्र प्रभात said...

इसमें संशय नहीं है कि कृपा का आन्तरिक स्वरूप तो सदा ही सरस, मनोहर और मधुर होता है, परंतु बाहर कभी वह सुन्दर से सुन्दर और कभी भीषण से भीषण रुप में प्रकट होती है।शब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेलहै.उपरवाला ऐसी प्रतिभा विरले को ही देता है. आपकी प्रस्तुति प्रशंसनिए है. बधाईयाँ ....../

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