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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/9/07

अपनी आक्रामक प्रवृति पर नियंत्रण करें

हमारे जीवन में कई बार एसे अवसर आते हैं जब हमारे अन्दर आक्रामकता का भाव उत्पन्न होता है और उसकी तत्काल अभिव्यक्ति करना चाहते हैं पर हमारे सम्मुख समय, हालात, व्यक्ति और स्थान हमेशा इसकी अनुमति नहीं देते। अगर उस समय हमारे सम्मुख कोई कमजोर व्यक्ति है तो हालात, और स्थान अनुकूल नहीं होते और हम रह जाते हैं। अगर शक्तिशाली व्यक्ति है तो ख़ून के कड़वे घूँट पीकर रह जाते हैं। कुल मिलाकर हमें अपनी ही अपनी आक्रामकता को वश में करना ही पड़ता है। कई बार अगर लगता है कि सब ठीक है तो अपने आक्रामक अभिव्यक्ति को बाहर आने देते हैं पर बाद में इसके लिए पछताना भी पड़ता है, खासतौर से अपने से कमजोर व्यक्ति पर जब इसकी अभिव्यक्ति करने पर कभी कभी पछताना भी पड़ता है क्योंकि पता लगता है कि कोई हमसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उसको संरक्षण दे रहा है।

फिर हम अपने अन्दर आयी आक्रामकता का क्या करें?
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प्रत्येक जीव में आक्रामकता का भाव होता है और हर कोई अपने से कमजोर पर आक्रामक अभिव्यक्ति प्रकट करता है। हम तो मनुष्य की आक्रामक प्रवृति की चर्चा कर रहे हैं। वैसे आक्रामकता और क्रोध में फर्क है। क्रोध हमें तब आता है जब कोई हालात, व्यक्ति और विषय हमारे प्रतिकूल होता है हालांकि उसकी अभिव्यक्ति के लिए हमें आक्रामक भाव की ही आवश्यकता होती है, पर हम जिस स्वरूप की चर्चा हम कर रहे हैं क्रोध, ख़ुशी, आशा और निराशा किसी भी समय प्रकट हो सकता है।

हम अपनी किसी उपलब्धि पर बहुत प्रसन्न है और अपने मित्रों या रिश्तेदारों के साथ उस पर चर्चा करते समय एसे राज या रहस्य प्रकट कर देंते हैं जिसका बाद में हमें पछतावा होता है और पता लगता है वह हमारी ऐक बहुत बड़ी गलती थी। अपनी सफलता के नशे में हम उत्साह के रुप में चले आ रहे आक्रामक भाव पर नियंत्रण नहीं कर पाते और उन लोगों के सामने अपने राज-रहस्य उगल देते हैं जिनके बारे में पता है कि उसका वह अपने लिए लाभ उठाएंगे या दुष्प्रचार करेंगे।

यही स्थिति तब भी आती है जब हम अपने किसी कार्य या लक्ष्य के संपन्न होने के लिए आशान्वित होने पर उसके राज-रहस्य दूसरों के सम्मुख प्रकट करते हैं और बाद में पता लगता है कि उस पर पानी फिर गया क्योंकि जिन लोगों के सामने अपने मन के भाव व्यक्त किये उन्होने वहां से हटते ही हमारी आशाओं के केंद्र बिन्दु पर हमला कर दिया और हमें बहुत बाद में पता चलता है ।

मतलब यह है कि हमें अपनी आक्रामक प्रवृति-जिसे हम जोश भी कह सकते हैं उस पर नियंत्रण रखना सीख लें और यह तभी संभव है जब हमें उसे पहचाने। ऐसा नहीं है कि हम अपने जीवन में बिना आक्रामक भाव के रह सकते हैं पर अगर हम उसका सही समय, व्यक्ति और हालत देखकर उसकी अभिव्यक्ति होने दें तो हम सफल हो सकते हैं। ग़ुस्से और निराशा से जब हमारे अन्दर आक्रामक या जोश का भाव उत्पन्न होता है तो हमें तत्काल उस तत्व से अपना ध्यान हटा लेना चाहिए जिसकी वजह से वह उत्पन्न हुआ है, इससे हमारे आक्रामक प्रवृति बाधित जरूर होगी पर समाप्त नहीं होगी। फिर जब एकांत में उस पर विचार करेंगे तो हमारी आक्रामक प्रवृति ही हमें उससे निपटने का मार्ग ढूँढने में मदद करेगी। यही स्थिति सफलता और आशा में भी रखना चाहिऐ ताकि जब हम उस पर अकेले में दृष्टिपात करें तो उसका पूरा विश्लेषण कर आगे का मार्ग भी बना सकें।
इसकी पहचान क्या है
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हम अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों में लिप्त तो होते हैं पर उस पर कभी विचार नहीं करते इसलिये हमें विशेष प्रकार का अवसर आने पर भी उसे नहीं पहचानते जबकि उसकी वजह से हमारे रक्त प्रवाह और मस्तिष्क में तीव्रता उत्पन्न होती है हमें लगता है कि हम सामान्य है पर होते नहीं हैं। जब हम नित-प्रतिदिन अपने कार्यों पर विचार करेंगे तो हमें यह स्वत: बोध होने लगेगा कि सामान्य और असामान्य हालात क्या है और जब इसका पता लगा जाएगा तो हम अपनी आक्रामक प्रवृति या जोश को भी पहचान लेंगे। फिर हम एसी गलतिया नहीं करेंगे जिसकी वजह से बडे में पछताना पडे। । (क्रमश:) शेष अगले अंकों में

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अगली पोस्ट का इन्तजार है।

बसंत आर्य said...

पहले तो लगा आप बाबा दीपक बन गये. पर पढ कर अच्छा लगा.लिखते रहिए. आपको फ़बता है

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