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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/10/07

अच्छा लिखने की कोशिश

मैं कभी भी अच्छा लिखने का प्रयास ही नहीं करता क्योंकि अगर मैं एसा करूंगा तो एक भी लाईन नहीं लिख पाऊँगा-मेरा पूरा समय ही यह सोचते हुए निकल जाएगा कि क्या अच्छा लिखूं-अगर लिखूंगा नहीं तो कैसे पता लगेगा कि अच्छा लिखा कि नही और मैं उसे अच्छा मानूं तो भी क्या पढने वाले उसे मान लेंगे और अपनी रचना बुरी या निरर्थक किसे लगती है? अगर मैं यह तय करने लगूं कि मेरा लिखा अच्छा है या बुरा तो मैं अगली रचना भी नहीं कर पाऊँगा।

कोई भी लिखी गयी रचना अच्छी है या बुरी उसे पढने वाला ही तय कर सकता है और मैं दूसरे की रचनाओं को पढने में ही इस अधिकार का इस्तेमाल करता हूँ। मैं अच्छा लिखने की बजाय अच्छा सोचने और विषय की गहराई में जाने के प्रयास पर जोर देता हूँ और मानता हूँ कि अच्छे या निरर्थक का निर्णय पढने वाले पर ही छोड़ दूं।

लिखते हुए मेरा दिमाग केवल उसी विषय पर रहता है जिस पर लिख रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि उसमे संबंधित तत्व पूरी तरह शामिल हो जाएँ और जब गहराई में पहुंचते ही जब शब्द और वाक्य स्वत:बाहर आने लगते हैं और तब मेरे लिए यह सोचना काठी होता है कि यह रचना किसको अच्छी लगेगी और किसको बुरी। ब्लोग पर मैं सीधे लिखता हूँ और इसीलिये मुझे लगता है कि अपने मूल स्वरूप में नहीं लिख पा रहा हू पर एसा लग रहा है कि धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए उसे पा लूंगा। रचना लिखने के बाद मैं उसके पीछे नहीं जाता यह पता करने के लिए कि उसके पढने वाले पर क्या प्रतिक्रिया हुई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जब मेरी रचनाएं छपती हैं तो उसे पढने वाले मेरे मित्र और परिचित उस पर स्वत: प्रतिक्रिया दें तो अलग बात हैं पर मैं कभी उनसे अपने रचनाओं की चर्चा तक नहीं करता हूँ क्योंकि मेरे लिखे और उसके छपने के बीच जो समय है उसमें मैं और भी बहुत लिख चुका होता हूँ। वह लोग खुद अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। मैं उनकी प्रतिक्रियाएँ सहजता से सुनता हूँ।


जब ब्लोग पर लिखना शुरू किया उसके तीन महीने बाद मैंने अपने ऐसे ही मित्र पाठकों को अपने ब्लोग के पते दिए और जब उन्होने यह ब्लोग देखे तो रचनाओं को पढ़कर वह लोग बहुत अप्रसन्न हुए उनका कहना था कि वह उस स्तर की नहीं है जिसके लिए मुझे जाना जाता है । मैंने उन्हें बताया कि यहां मुझे लिखते समय केवल अपने दिमागी विचारों पर ही नहीं बल्कि की बोर्ड की तरफ भी ध्यान रखना पड़ता है और साथ ही अपनी बिजली गुल होने की आशंका भी रहती है, और बहुत बड़ी रचनाएँ यहाँ लिखना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। तब उनका कहना था कि मुझे कागज़ पर लिखकर बाद में उसे टाईप करना चाहिऐ। मैंने एसा प्रयास किया तो अपने ही लिखे को पुन: टाईप करना मेरे को ऐक अत्यंत बोर करने वाला प्रयास लगा। अगर उसे सादा हिंदी फॉण्ट में टाईप करना होता तो मैं सहर्ष तैयार हो जाता पर युनिकोड में एसा करना मुझे बोर करने वाला काम लगता है- सबसे बड़ी दिक्कत वर्तनी की त्रुटियों से है। लिखने के बाद मैं सरसरी तौर से पढता हूँ और त्रुटियों में सुधार करता हूँ पर जब कभी उन्हें दूसरी बार पढता हूँ तो त्रुटियों को देखकर क्षोभ होता है। सादा हिंदी फॉण्ट में मैं इस तरह की गलतियां नहीं करता, कम से कम से वाक्य लिखने में तो बिल्कुल नहीं -यहाँ तो लिखते हुए वाक्य भी गलत हो जाते हैं और जब उन्हें ठीक करने बैठता हूँ तो लिखने से अधिक समय लग जाता है।

मेरे कुछ मित्र फिर भी यही चाहते है कि मुझे इन्टरनेट पर लिखना जारी रखना चाहिये। पन्द्रह मित्रों में दो एसे भी हैं जिन्हें लगता है कि रचनाएं छोटी है पर उतनी ही अच्छी जितनी पत्र-पत्रिकाओं में लिखता हूँ। मतलब यह कि प्रतिक्रियाओं को देखते हुए यह कहना कठिन है कि क्या अच्छा लिखा या क्या बुरा? ऐक बात और कि मैंने अपने मित्र और पाठकों से कोई राय स्वयं नहीं मांगी थी पर उनकी आदत है वह मेरे से मेरे लिखे पर जब भी मिलते हैं चर्चा अवश्य करते हैं। एसे मित्रों की समालोचना से मेरे अन्दर केवल इतना प्रभाव होता है कि अगली बार लिखते समय इस बात का प्रयास करता हूँ कि उन्हें इसका अवसर न मिले पर जब अपनी चरम स्थिति पर पहुँचता हूँ और वाक्य और शब्द अपनी स्वाभाविक गति से बाहर आते हैं तो सब भूल जाता हूँ क्योंकि मुझे विषयों की गहराई में आ जाने पर और कुछ ध्यान नहीं रह पाता।

प्रतिक्रियाएँ लिखने को प्रेरित करतीं है पर अच्छा या बुरा लिखना इस बात पर निर्भर करता है कि विषय के प्रति हम कितना गंभीर है। अक्सर लोगो लिखने के लिए लिखते हैं और चाहते हैं लोग उनकी वाहवाही करें, सीमित दायरे में ऎसी वाहवाही मिल भी जाती है पर जब आपको लिखने के लिए व्यापक दौरे में पाठक चाहिऐ तो आपको अपने विषय के प्रति गंभीर रहना चाहिऐ। मैंने जब इन्टरनेट पर लिखना शुरू किया था तो मुझे यह पता ही नहीं था कि पढने वालों से इतनी जल्दी रू-ब -रू होने की भी इसमें प्रक्रिया है और जिसे कमेन्ट कहते हैं। मैं कमेंट करने वालों को अपने पाठक मित्रों की तरह ही मानता हूँ-उन दोनों में अंतर है तो बस इतना कि मित्र लोग प्रत्यक्ष सामने प्रतिक्रिया देते है जबकि कमेंट लिखने वाले लिख कर विचार देते है- मुझे दोनों में आत्मीयता का भाव एक जैसा ही लगता है। । इससे मुझे प्रसन्नता होती है और लिखते समय कोशिश करता हूँ कि उन्हें अच्छा पढने का अवसर मिले पर बहुत जल्द यहाँ भी भूल जाता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भी तरह अपनी यह पोस्ट पूरी करूं और अपने विषय में डूबे होने के कारण् वाक्य और शब्द धाराप्रवाह चले आते हैं और उनको रोकना कठिन होता है साथ ही विषय को सामाजिक् सरोकार से जोडने के प्रयास भी करना आवश्यक लगता है एसे में भावी प्रतिक्रिया का ध्यान रखना कठिन लगता है और अंततः उस रचना के सार्थक और निरर्थक होने का निर्णय पढ्ने वाले पर छोडना ही पडता है। अब अच्छा लिखा या बुरा वह जाने।

4 comments:

सुजाता said...

मित्र भारतदीप, अपने लिखने के लिए इतना बडा स्पष्टीकरण क्यों दे डाला है ?
ब्लाग कैसे लिखें,क्यों लिखें, किसके लिए लिखें -इसका कोई नियम -विधान नही है । जो लिखना चाहो सो लिखो ।बिन्दास !
और हां ,word verification बेबात उलझाता है ।

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी, आप ने सही कहा कि सीधे नेट पर पोस्ट लिखते समय कई परेशानीयां आती हैं...ऐसी परेशानीयां मुझॆ भी कई बार आइ हैं....लेकिन आप तो काफी अच्छा लिखते हैं....आप के विचारों से बहुत कुछ सीखनें को मिलता है।

Udan Tashtari said...

बिना प्रयास के ही जब इतना बेहतरीन लिख रहे हैं तो प्रयास क्यों करना भाई.

आप लिखना जारी रखें, बढ़िया तो चल रहा है सब.

बसंत आर्य said...

लेट के लिखो आप,या सो कर , कागज पे लिख के टाईप करो या डायरेक्ट एक्शन लो पर लिखन बन्द किया तो आपकी खैर नही

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