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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/1/08

पैसा खर्च कर खुशी खरीदने की प्रवृत्ति

आज ईसवी सन २००८ प्रारंभ हो गया है। कहते हैं कि अंग्रेज यहाँ से चले गए पर अपनी अंग्रेजियत यहाँ छोड़ गए पर मुझे नहीं लगता कि इसके लिए उनको जिम्मेदार ठहरना ठीक होगा। जब भारत के आजादी दीवाने उनके पीछे पड़ गए और उन्होने यहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी होगी और जल्दबाजी से घबडाहट में यहाँ कुछ छूट गया तो उन्हें दोष देना गलत होगा। पर वह अपने संस्कारों के बीज जो यहाँ छोड़ गए उससे उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षा प्रणाली ने उनको खाद पानी देकर विशाल वृक्ष बना दिया है।

अब तो वेलनटाइन डे और फ्रेंड्स डे भी यहाँ मनाये जाने लगे हैं। अभी भी पुरानी पीढ़ी है जो बसंत पंचमी दीपावली और होली जैसे मस्ती वाले त्यौहार संजोये बैठी है वरना बहुत कम लोग इसका कम आनंद उठा पाते हैं। पहले जब मैं छोटा था तो बुजुर्ग लोगों के मुख से सुनता था-''अब क्या त्यौहार का मजा रह गया है। सब पैसे वालों का खेल रह गया है?''

जब अंग्रेजी त्योहारों का सुनते थे तो लगता कि वह खाली-पीली मुफ्त से मनाने वाले त्यौहार होंगे पर जैसे-जैसे उनका रंग देखा तो लगा कि दुनिया में कोई भी त्यौहार हो वह पैसे के बिना नहीं मनाया जा सकता है। यह जरूरी नहीं है कि सब पैसे वाले खर्च कर त्यौहार मनाये पर जिन्हें मनाना है उन्हें अपनी जेब ढीली करना जरूरी है। वैसे अपने देश के त्यौहार देखें तो वह सब परिवार के साथ मिलकर मनाने के लिए बने हैं पर अंग्रेजी त्यौहार जिस तरह मनाये जा रहे हैं उसमें तो केवल रोमांस की प्रधानता नजर जाती है। कम से कम भारत के टीवी चैनलों पर इसे दिखाया जाता है तो उससे यही लगता है कि इन त्योहारों में युवक-युवतियों को परिवार से स्वच्छंद होकर ऐसे त्यौहार होटलों और अन्य व्यावसायिक स्थानों पर मनाना चाहिए।

अपने देश में कहा जाता है कि लड़के की इज्जत पीतल के लोटे की तरह होती है और कितना भी गंदा हो जाये साफ करने पर वैसा का वैसा हो जाता है। और लडकी की इज्जत मिट्टी के बर्तन की तरह होती है एक बार टूटा सो टूटा। अपने संस्कारों से दूर होते समाज में इसकी कोई चिंता नहीं कर रहा है पर जब इन्हीं टीवी चैनलों पर खबरें देखें तो यह भी पता चल जाता है कि आखिर किस तरह लड़कियों को ही अपनी तथाकथित आजादी के दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। मजे की बात यह है कि देश में अपराधों की बढ़ती स्थिति पर चिंता करने वाले लोग उसके वास्तविक कारणों से मुहँ फेर लेते हैं। आज शौक तो सबको है पर सबके पास धन नहीं है। समाज में आर्थिक विषमता किस तरह बढ़ती जा रही है इसे भोगने वाले भी नहीं बता पाते क्योंकि उनका पूरा ध्यान अपनी समस्याओं के हल में ही लगा रहता है।

आजकल प्रचार माध्यमों को अपनी छबि बनाए रखने के लिए आखिर कुछ न कुछ तो करना है और उसने पश्चिम के सारे त्यौहार गोद ले लिए हैं-उसकी व्यवासायिक मजबूरियों के मद्देनजर उस पर उंगली उठाना व्यर्थ है। अत अब लोगों को खुद इस बात पर विचार करना होगा कि क्या उनके पास अब केवल खर्च कर ही खुशियाँ आ सकतीं हैं और क्या इससे समाज के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के लोगों में कुंठा नहीं पनपती। बेहतर यही है कि अपनी आने वाली पीढी में अपने लिए खर्च कर खुशिया अर्जित करने की बजाय गरीबों और मासूम बच्चों की मदद कर आत्मिक सुख उठाने की प्रवृति का निर्माण करें।

2 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

आपके विचार वेहद सुंदर है

राज भाटिय़ा said...

**आखिर किस तरह लड़कियों को ही अपनी तथाकथित आजादी के दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं**
काश आप के उत्तम विचार उन को मिल पाते,जो बेहुदगी को ओर आवारपन को आजादी का नाम दे कर बर्बादी की तरफ़ जा रही हे.
धन्यबाद
राज भाटिया

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