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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/30/08

आतंकवाद से लड़ने के लिये सामाजिक ढांचा मजबूत होना जरूरी-आलेख

पिछले चार दिन से अखबार, टीवी चैनल और अंतर्जाल पर देश में हुई ताजा आतंकवादी घटनाओं के बारे में समाचार पढ़ने को खूब मिले और लेखकों और संपादकों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विचार भी व्यक्त किये। कुछ लोगों ने गहरा क्षोभ जताते हुए कड़े कदम उठाने की मांग की तो कुछ ने गहरा दुःख जताया और कुछ ने आर्त भाव से विभिन्न समुदायों में एकता की अपील की। ऐसे अवसर पहले भी अनेक आये और उस समय भी करीब करीब ऐसे ही विचार व्यक्त किये गये इन सबको देखकर यह कहना अतिश्याक्ति नहीं होगी कि लार्ड मैकाले ने जिस उद्देश्य से भारत के लोगों की मानसिकता को ही गुलाम बनाने की जो योजना बनाई थी वह फलीभूत हो गयी है। लोग अपने वैचारिक आधारो (पूर्वाग्रहों) से एक कदम भी आगे बढ़कर सोचने को तैयार नहीं है। आतंकवादी घटनाओं से क्रोध, निराशा और दुःख की सीमा में सिमट कर विचार करते हुए जिसके दिमाग में जैसा विचार आ रहा है व्यक्त कर रहा है। जबकि सबसे पहली समस्या तो आतंकवाद सही रूप समझने की है और तभी उस पर कोई विचार हो सकता है।

भारत में आतंकवाद न एक दिन में आया है और न एक दिन में जाने वाला है। जिन्हें उपलब्ध हो सकें वह आज से पच्चीस से सत्ताईस वर्ष पूर्व के अखबार उठाकर देख लें या टीवी के दृश्य फिर देखें। यह आतंकवाद एक दिन में जायेगा भी नहीं। इसके लिये पहले तो अपने विचारों को व्यापक दृष्टि लानी होगी। इसका उपाय सभी समाजों को ढूंढना क्योंकि वह उसके कमजोर होने के साथ ही आतंकवाद बढ़ता जा रहा है। जिस आतंकवाद को हम देख रहे हैं उसमें दो तरह के लोग लिप्त हैं। एक तो वह जिनके लिये यह व्यापार है और कहीं न कहीं उनको इसके आर्थिक फायदे हैं और दूसरे लोग वह हैं जो निराशा के कारण उपजे क्रोध के कारण इसमें शामिल हो जाते हैं और थोड़े से आर्थिक लाभ की लालच उन्हें ऐसा करने के लिये प्रेरित कर देती है।

इस आतंकवाद के चेहरे को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की दृष्टि से देखने का प्रयास निरर्थक है। हालांकि इस बारे में भी हर कोई अपनी सुविधा से ही विचार करता हैं कुछ लोग धर्म और जाति के नाम इसकी पहचान करते हैं तो कुछ लोग इसका विरोध करते हैं-पर तर्क दोनों के सतही है। इस दुनियां में जाति, धर्म, भाषा, और धर्म के नाम अनेक समूह स्वतः बन गये जिनको समाज भी कहा जाता है। हर मनुष्य अपनी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिये इनका सदस्य बना रहना चाहता है। इसका लाभ इन समूहों या समाजों के शीर्ष पर बैठे लोग अपने लिये लेते हुए ऐसे काम करते हैं जिससे कि उसके अंतर्गत सांस लेने वाले सभी प्राणी उसके अनुगामी बने रहें और वह मर जाये तो उसकी पीढि़यां भी उस पर शासन करें। इसके लिये एक ही तरीका है कि दूसरे समूह या समाज का खौफ अपने लोगों में बनाये रहो। सदियों से चले आ रहे यह समाज इतने रूढ़ हो जाते हैं कि थोड़े से बदलाव की हवा भी उनको कंपा देती है। बदलाव इस सृष्टि का नियम है और उससे ही सभी समाज और समूह बचने का प्रयास करते हैं। यहीं से शुरू होता है आपसी वैमनस्य का भाव। इसमें एक तरफ होते हैं वह लोग जो बदलाव की तरफ जाते हैं और दूसरे जो यथास्थितिवादी होते हैं। यह संघर्ष अनेक बाद हिंसा का रूप लेता है-इतिहास इस बात का प्रमाण है।

हम आतंकवाद के बारे में हमेशा यही सुन पाये हैं कि इसमें विदेशी ताकतों का हाथ है, पर उंगलियां इस देश की हैं इससे हमेशा ही मूंह फेरने का प्रयास किया और यही कारण यह है कि नित प्रतिदिन आतंक बढ़ता ही जा रहा है। एक बार ठंडे दिमाग से सोचे आखिर वह कौन लोग हैं जो विदेशी हाथ में उंगलियों की तरह नाच रहे हैं। हमें इसके लिये देश के संपूर्ण ढांचे पर दृष्टिपात करना होगा। सच तो यह है कि सभी समाज या समूह अंदरूनी द्वंद्वों का शिकार है। अक्सर जब कहीं कोई बड़ी आतंकवादी घटना होती है तब धर्म, भाषा, जाति, और क्षेत्र के नाम पर बने समाजों में आपसी एकता की बात की जाती है जबकि यह संकट उनके अंदरूनी द्वंद्वों और निराशाओं का परिणाम है। पिछले 62 वर्ष से अलग अलग समाजों के बीच लगाये जा रहे एकता के नारे से इसका हल तब तक नहीं निकलेगा जब तक कि सभी समाजों के लोग अपने शीर्षस्थ लोगों की चालों का शिकार हुए बगैर इस पर चिंतन और मनन करेंगे। इसके लिये अधिक नहीं केवल एक कदम आगे बढ़कर विचार करना है।
सारे समाज अंदर से खोखले हैं क्योंकि उनके कर्मकांड अर्थ पर आधारित है। जिनके पास धन है उसका प्रदर्शन वह निर्धन लोगों के सामने अपने जन्मजात श्रेष्ठ होने के प्रमाण के रूप में करते हैं। निर्धन लोगों के मन में यह निराशा अंततः क्रोध का जन्म देती हैं। ऐसे में थोडे आर्थिक लाभ की खातिर वह ऐसी घटनाओं में लिप्त हो जाते हैं जिसमें बाद में उनको भारी संकटों का सामना करना पड़ता है। याद रखें भारत से बाहर गये अप्रवासियों को मानव श्रम निर्यात का ही भाग माना जाता है। इसका आशय यह है कि हमारे यहां मानव श्रम अधिक मात्रा में है और इसी कारण अगर विदेशी अगर दक्ष और कुशल लोगों का जहां अपने यहां आयात कर रहे हें तो अकुशल लोगों को यहां उपयोग कर देश को अस्थिर कर रहे हैं, और उनको अगर इसमें सफलता मिल रही है तो उसके पीछे हमारे देश में अस्थिर हो रहा सामाजिक ढांचा ही है।

यहां समाज की बात छोड़कर व्यक्ति के रूप में व्यक्तियों का ही सोचें। देश में गरीब तो पहले भी थे पर आतंकवाद नहीं था। दरअसल समाज में धन का असमान वितरण इतना नहीं था जितना अब होता जा रहा है। फिर धन से अर्जित शक्ति को शक्तिशाली लोग संभाल कर रखें तो भी ठीक पर वह तो उसका उपयोग कमजोर को दबाने के लिये कर रहे हैं। ऐसे में हर समाज में असंतोष है और कमजोर सदस्य उससे असंतुष्ट हैं। ऐसे आतंकवाद के व्यापारी अपनी सुविधानुसार चाहे जिस समाज या समूह से अपने लिये मानवश्रम जुटा लेते हैं और अगर हम उन्हीं जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर इस आतंकवाद की पहचान करेंगे तो कभी नहीं जीत पायेंगे।
इसके लिये यह आवश्यक है कि एक नये समाज के निर्माण के साथ अपने ऊपर एक आर्थिक और सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब ठंडे दिमाग से विचार करें। स्वयं पर आर्थिक नियंत्रण और अपने पद के साथ प्रतिष्ठा के अहंकार का भाव अब लोगों को छोड़ना ही होगा क्योंकि इस कारण लोग अपने समाज के सामान्य लोगों की सहानुभूति खोते जा रहे हैं
भारत को अध्यात्मिक रूप से विश्व का गुरु कहा जाता है पर यहां का हर आदमी भौतिक परिलब्धियों के पीछे भाग रहा है। आम आदमी की क्या करें यहां सके सभी समाजों के धर्मगुरू भी सर्वशक्तिमान का स्मरण करने का संदेशा देकर माया एकत्रित करने में लगे हैं। समाज के नाम पर तो उसका दायरा केवल बच्चों की शादी करने तक ही रह गया है। इसके अलावा भी अन्य रूढि़यों को निभाने के चक्कर में आदमी घर से बाहर की हालतों पर तो सोच ही नहीं पाता यही कारण है लोग जागरुक नहीं है और इसका लाभ इस देश को अस्थिर करने वाले लोग उठा लेते हैं। यहां मैनें किसी समाज या समूह का नाम नहीं लिया और न ही किसी घटना का उल्लेख इसलिये किया कि कोई डर है बल्कि इसका कारण यह है कि इनकी संख्या इतनी है कि किस किस का नाम लें और किस किस को रोयें। सच तो यह है कि हमें अपने समाजों के अंदर ही सद्भाव और सहयोग का भाव लाने का प्रयास अपने स्तर पर ही करना चाहिए क्योंकि इस समय सबसे बड़ी समस्या अपने अंतद्र्वद्वों से उभरने की है। आखिर सभी समाजों के शीर्षस्थ लोग अपने समूहों का प्रतिनिधित्व करते हुए शांति की अपीलें करते हैं पर उसके बावजूद यह क्रम थम नहीं रहा । क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि समाज अंदर से खोखले हो गये हैं? ऐसे में समाजों के मध्य एकता के नारे से इसका मुकाबला नहीं किया जा सकता। इसके लिये यह जरूरी है कि सभी समाज स्वयं मजबूत हों। क्रमशः
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1 comment:

गरिमा said...

बिल्कुल सही कहा.. अगली कडी का इन्तजार रहेगा।

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