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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/1/08

अध्यात्म और धर्म अलग अलग विषय हैं-आलेख (3)

धर्म क्या है? शायद कई लोग नहीं बता पायेंगे? अनेक युद्ध धर्म के नाम पर हुए पर किस धर्म के लिये। महाभारत युद्ध किस धर्म की रक्षा के लिये लड़ा गया था? इस पर अनेक व्याख्यायें मिल जायेंगी। वर्तमान में लोग अनेम धर्मों के नाम बताने लगेंगे-जो कि केवल भ्रम है। धर्म वह है जो मनुष्य द्वारा धारण किया जाता है। इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि मनुष्य द्वारा अपनी इस देह धारण करने के बाद जो कर्तव्य अपने लिये स्वयं या स्वाभाविक रूप से स्वतः निर्धारित हो जाते हैं वही धर्म है कि न कर्मकांडों का निर्वहन जैसा प्रचारित किया जाता है। एक व्यक्ति के रूप में मनुष्य द्वारा स्वीकार यह स्वतः निर्धारित कर्तव्य या धर्म कई प्रकार का हो सकता है। एक पुरुष के लिये पिता,पुत्र,पति, भ्राता,मित्र तथा अन्य संबंधों के निर्वाह के लिये कर्तव्य का निर्वहन ही धर्म है। एक स्त्री के लिये माता, पुत्री,बहिन, पत्नी तथा अन्य रूप में कर्तव्य निर्वहन करना ही धर्म का स्वरूप कहा जा सकता है।

महाभारत युद्ध की बात करें तो देखा जाये सभी पक्ष कर्तव्य विमुख हो रहे थे। जिसका चर्म रूप था द्रोपदी का चीरहरण। महाभारत काल में परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह न करना ही अधर्म कहा गया है। धर्म की कोई अन्य संज्ञा वहां नहीं दिखाई देती-आशय यह है कि धर्म का कोई एक नाम नहीं है। भगवान श्रीराम ने भी धर्म की रक्षा के लिये ही युद्ध किये पर किसी धर्म विशेष का नाम रामायण मे भीं नहीं आता। रावण का विधर्मी इसलिये कहा जाता है कि वह अपनी शक्ति के अहंकार में इतना मतवाला हो रहा था कि यज्ञ और हवन करने वाले ऋषियों पर हमले कर उनका सहंार करता था। वह स्वयं भी भगवान शिव का उपासक था पर अन्य देवों के उपासकों पर हमले करने की प्रवृत्ति के कारण वह अधर्मी करार दिया गया। यहंा विचाराधाराओं का वैसा ही द्वंद्व दिखाई देता है जैसा आजकल हो रहा है। एक तरह वह स्वयं भगवान शिव की भक्ति कर रावण ने वरदान प्राप्त किया पर उसे अन्य लोगों द्वारा यज्ञ हवन और अन्य तरीके से पूजा करना सहन नहीं था। उसने उन पर हमला किया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि अन्य देवों की उपासना हो। भगवान श्रीराम ने उसके अनेक राक्षसों को सीताहरण से पहले ही मार गिराया था और वह भी इसलिये क्योंकि वह दूसरों की पूजा विधि विधाने को रोकने का प्रयास कर रहे थे। इसका आशय यह नहीं है कि भगवान श्रीराम को उसके इष्ट भगवान शिव की उपासना से कोई द्वेष था बल्कि वह स्वयं ही भगवान शिव का सम्मान करते थे। तात्पर्य यह है कि धर्म का रूप यह भी कि कोई किसी की भी उपासना करे पर दूसरे के पूजा विधान से द्वेष न करे।

वर्तमान में जो प्रचलित धर्म हैं उनमें भी वह सब बातें हैं जो सदियों से कही जाती हैं पर उनको नाम दिये गये हैं ताकि उसे एक छत बनाकर लोगों की भीड़ वहां एकत्रित कर उनका आर्थिक और राजनीतिक दोहन किया जा सके। आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता कि वह बड़े राजनीतिक ग्रंथ पढ़कर उनका अर्थ समझ सके इसलिये सभी धर्मों में कथित बिचोलिये हैं जो इन किताबों से पढ़कर उनके बारे में लोगों को बताते हैं। इनमें भी कर्मकांडों का वह भाग सुनाकर उसका अनुकरण इसलिये कराया जाता है कि ताकि वह एक समूह में रह सके और दूसरे समूह से अलग दिखें। जब कोई बड़ी वारदात होती है तो आपने सफाई सुनी होगी कि सभी धर्म प्रेम, दया, और अहिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है, आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, आतंकवादी की कोई जाति नहीं होती, उसकी कोई भाषा नहीं होती, आदि आदि। इसे आप उन समूहों के शीर्षस्थ लोगों की चालाकी भी कह सकते हैं जो वारदात के बाद उनको अपने समूहों या समाजों के बारे में अच्छा कहने का अवसर मिल जाता है।

सच तो यह है कि धारण किया जाने वाले धर्म का कोई नाम नहीं होता क्योंकि वह कर्तव्य के रूप में देह के साथ जुड़ा रहता है और जिसका नाम लेते हैं वह केवल एक भ्रम के अन्य कुछ भी नहीं है।

‘आध्यात्म अपने अंतर्मन की यात्रा है’ अनुरक्ति ब्लाग के ललित मोहन त्रिवेदी ने यही पिछले लेख में अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था। यह यात्रा बहुत सरल भी है और कठिन भी। कठिन यह तय करना है कि हम अपने अंतर्मन की यात्रा करें या नहीं और जब करने निकलें तो फिर बाहर के झंझटों से आदमी स्वतः परे हो जाता है। वह अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होता पर उनका तनाव अपने ऊपर नहीं आने देता। समय के अुनसार अपना धर्म निभाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने वाले का मन अपने निंयत्रण में रहता है इसलिये उसको कोई भटका नहीं सकता पर जिनको नहीं हैं वह अपने समाजों और समूहों के शीर्षस्थ लोगों को आव्हान पर चाहे जो करने को तैयार हो जाते हैंं। किसी भी धर्म में अध्यात्म ज्ञान का प्रावधान नहीं है। प्रेम, अहिंसा, और दया के उपदेश तो सभी में दिया गया है पर साथ ही अपनी सांसरिक परेशानियों में सर्वशक्तिमान को याद करने की सलाह भी दी जाती है। काम सिद्ध हो जाये तो उसका धन्यवाद नहीं हो तो कह देते हैं उसकी मर्जी पर किसका बस चलता हैं यह मनुष्य को मानसिक रूप से पंगु करने का प्रयास है जिसमें सभी धर्मों के प्रचारक सफल रहते हैं और इस संसार में धार्मिक कहलाकर अपनी पूजा कराते हैं। इसलिये भारतीय अध्यात्म विश्व में सभी जगह स्वीकार किया जा रहा है क्योंकि वह जीवन और सृष्टि के रहस्यों के ज्ञान से भरा पड़ा है-याद रखें भारतीय अध्यात्म में भी किसी भी धर्म का नाम नहीं दिया गया है न ही कर्मकांडों को ही सर्वोपरि बताया गया है। उनका सारांश यही है कि जीवन को सहज भाव से जीते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह करो यही धर्म है और इसका ज्ञान ही अध्यात्म है। शेष फिर कभी
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