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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/4/08

संतों की अंधभक्ति और अंधविरोध दोनों ही अनुचित-आलेख

आजकल के साधु संतों के प्रति अंधभक्त नहीं दिखाना चाहिए, यह बात मानने योग्य है पर उनका अंधविरोध भी करना कोई अच्छी बात नहीं है इसका भी विचार करना चाहिए।

अभी हाल ही में भारत एक प्रसिद्ध संत को गुरुकुलों में बच्चों की मौत का मामला चर्चा का विषय बना हुआ है। जांच एजंसियां इनकी जांच मेंं लगी हुई है पर ऐसा लगता है कि भारतीय प्रचार माध्यम अपना विवेक खो रहे हैं वह उस संत पर आक्षेप करते हुए तमाम ऐसी बातें कह रहे हैं जिसका उनको अधिकार नहीं है। अखबारों और टीवी चैनलों को अब हर मामले में अपने संवाददाताओं को वकील और स्वयं को जज मानकर फैसले देने की आदत हो गयी हैं और अंतर्जाल पर भी अनेक लेखक इसी मानसिकता का शिकार हो रहे हैं।

वह एक संत हैं। संतों को माया से दूर रहना चाहिए पर उन्होंने उसके विस्तारित रूप के साथ ही अपने अध्यात्म सम्राज्य का विस्तार किया है-इसमें केाई संदेह नहीं हैं। तमाम तरह के आरोप लगाते हुए लोग सड़कों पर आ गये, पर आखिर उन आरोपों की सच्चाई का निर्णय कौन करेगा? देश में तमाम तरह की जांच एजेंसियां हैं और कानून की रक्षा के लिये अने संस्थायें हैं पर लोग क्या चाहते हैं कि वहां कार्यरत अधिकारी उनके कहे अनुसार बहुमत से फैसले लें।

उन संत ने अध्यात्म का व्यवसाय की तरह अपनाया पर इसमें बुराई क्या है? इस देश में ऐसे भी संत हुए हैं जिन्होंने माया का दूर सेू नमस्कार करते हुए ही समाज को सत्य के रहस्य से अवगत कराया और उन्होंने ऐसे व्यवसायिक संतों से से दूर रहने की सलाह दी। फिर लोग जाते क्यों हैं उनके पास? संत कबीर ने तो ऐसे साधु संतों पर तीखे प्रहार किये हैं। इसका आशय यह है कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे। हमारे देश के महान संत कबीर का संदेश जो पढ़कर धारण करे वह ऐसे संतों के पास नहीं जायेगा। संत कबीर का लिखा कोई अंग्रेजी में नहीं है कि लोग पढ़ते नहीं है पर फिर भी ऐसे लोगों के पास जाते हैं। वजह! कोई स्वयं चिंतन, मनन और अध्ययन के लिये अपने मस्तिष्क की नसों को तकलीफ देना नहीं चाहता। यहीं से शुरू होता है ऐसे व्यवसायिक संतों का कार्र्यक्षे+त्र। लोग उनके यहां जाते हैं और चाहे जैसे अपने मन का बोझ हल्का कर लेते हैं।

एक तरफ सभी कहते हैं कि प्रचार माध्यम जबरन सनसनी फैला रहे हैं और उनके द्वारा दी जा रही खबरों पर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं वह अविश्वसनीय हैं। ऐसा लगता है कि भारत के अनेक हिंदी लेखक भी अपने पुराने लेखकों की तरह पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं अगर प्रचार माध्यमों की कोई खबर और निष्कर्ष बुरा लगे तो अविश्वसनीय और अगर वह मनोमुताकिब हो तो उस पर लिखना शुरू कर देते हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र-पत्रिकाएं अपने दृष्टिकोण से जिस तरह निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहें उससे तो यही लगता है कि वह निष्पक्षता की हदें पार कर रहें हैं। एक बार एक चैनल ने सात संतों को काला धन सफेद करते हुए रंगे हाथेां दिखाया था पर किसी अन्य चैनल ने उसको नहीं दिखाया क्योंकि वह किसी आधिकारिक पटल पर नही आया पर वर्तमान प्रकरण कानून की दृष्टि में है तो उस पर सब अपने हिसाब से बयानबाजी कर रहे हैं। कई लोग उन संत के बारे में दूसरों के मुख से कही गयी पुरानी घटनाओं को यहां दावे के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं? क्या वह यह कह सकते हैं कि जिस व्यक्ति ने उनको यह घटना बताई है वह सच है?

कुल मिलाकर किसी के विरुद्ध दुष्प्रचार करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं ऐसा करते हुए कुछ उंगलियां उनकी तरफ भी उठ सकती हैं। कुछ चैनल संत के आश्रमों के बारे में तमाम टिप्पणियां करे रहे हैं पर एक प्रश्न जो लोग पूछ रहे हैं कि आजकल कौनसा ऐसा निजी संस्थान है जो सफेद धन के सहारे खड़ा है? इसका उत्तर देने की न तो कोई आवश्यकता समझता है और दिया भी क्या जा सकता है? सबकी सच्चाई सभी जानते हैं।

संतों ने अध्यात्म के नाम पर मायाजाल का विस्तार किया है तो उनको कभी न कभी ऐसी हालातों का सामना करना है। उनके अनेक कार्यक्रमों से असहमति हो सकती है पर इस तरह बिना प्रमाण के आक्षेप करना शोभा नहीं देता। वैसे तो जो भगवान के सच्चे भक्त हैं वह किसी में दोष नहीं देखते पर वह ऐसे गुरू भी नहीं बनाते कि जो उनको अपनी अंधभक्ति के लिए प्रेरित करें। दूसरा यह भी सच है कि जो अंध विरोध कर रहे हैं वह इन्हीं संतों के भक्तों की भावनाओं को भी नहीं समझ रहे। इन संतों की अंध भक्ति करना ठीक नहीं है पर यह अंधविरोध भी कई ऐसे तनावों का जन्म दे सकता है जिन पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता। अनेक संत हैं जो अपनी माया का विस्तार का करते हुए इन भक्तों के मन मेें अपनी जगह बनाये हुए हैं और उनकी भावनाओं को आहत करने का किसी को अधिकार नहीं है जब तक उसके लिये उसे कोई दूसरा मार्ग बताया जाये।

क्या प्रचार माध्यम चाहते हैं कि इन संतों को प्रवचन को सुनना छोड़कर टीवी चैनलों के सास-बहू के चैनल देखकर लोग अपनी मानसिकता को विकृत करें या समाचारों में सनसनी और वीभत्सता फैलाने वाले कार्यक्रम देख अपने ऊपर तनाव लायें। याद रखने वाली बात यह है कि लोग उनसे भी उकताये हुए हैं ऐसे में यह कथित संत अपनी वाणी से ही लोगों को मोहकर उनको कुछ देर के लिये तनाव मुक्ति तो देते हैंं। यह अलग बात है कि यह तनाव मुक्ति अधिक देर तक नहीं रहती। इसका स्थायी इलाज तो सत्य का तत्वज्ञान है और उसे संत कबीरदास तथा अन्य महापुरुष बता गये हैं और उसे धारण करने की जरूरत हैं।
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5 comments:

बालकिशन said...

विचारोत्तेजक लेख है.
सही किसी भी चीज की अति ख़राब ही होती है.

Sheetal Rajput said...

Deepak ji,

mujhe yeh jaan ka khushi hui ki aapko mera blog achcha laga aur aap mere blog ka link apne blog par dena chahte hain. bina kisi sankoch ke aap mere blog ka link de sakte hain.

-- Sheetal

Smart Indian said...

आपसे बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ. मासूम बच्चों की मौत किसी भी संस्थान में हो, यह एक बड़ा अपराध है - एक से ज्यादा बार हो तो बहुत ही बड़ा है - मगर जब यह एक ऐसे बाबाजी के संस्थान में हो जिस पर लोग आँख मूँद कर विश्वास करते हैं तो इसके कहीं अधिक घातक प्रभाव हो सकते हैं.

रही बात बाबागिरी के व्यवसायीकरण की तो - बाबाजी की दुकान पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है. मगर उनकी दुकान सात्विक दुकान है और आम जन की दुकान मोक्ष में बाधा है - यह बात गले नहीं उतरती. मर्सडीज़ के बजे बाबाजी को उसी मनोवेग से भ्रमण करना चाहिए जिसके सब्जबाग वे भक्तों को दिखाते हैं.

कुछ भी हो, जिन बाबाओं के संरक्षण में मासूम बच्चों की जान को ख़तरा है - उनके प्रति गुस्सा लाजमी है.

शोभा said...

मैं भी आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ। जो भी हो रहा है मात्र सुनी हुई बातों के आधार पर हो रहा है। ये भी हो सकता है कि वे दोषी हों पर हम सब भी उतने ही दोषी हैं जो किसी भी इन्सान को पहले सिर पर बैठाते हैं और बाद में जल्दी में उसका अपमान भी करने लगते हैं। श्रद्धा हमारी विशेषता है पर अन्धी श्रद्धा हमारा पागलपन। इन घटनाओं से हम सभी को कुछ सीखना चाहिए। सस्नेह

Ali said...

बहोत उमदा विचरने लायक़ लेख।

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