एक टीवी चैनल का एक दृश्य है। उसमें एक अधेड़ महिला-धारावाहिकों में काम करने वाली महिलाओं को बुढ़िया इसलिये भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि परदादी होने पर भी उनके बाल काले होते हैं-कुछ बोलते हुए पढ़ रही है-‘इस संसार में क्या साथ लाये हो और क्या ले जाओगे। जो कुछ भी पास में है यही छोड़ जाओगे।’
इतने में उसका पति आता है-यह बाद में ही पता चलता है क्योंकि उसके बाल सफेद हैं-और वह उसे देखकर चुप हो जाती है। वह उससे पूछता है-‘क्या पढ़ रही हो?’
वह उत्तर देती है-‘गीता पढ़ रही हूं।’
वह कहता है-‘अच्छा कर रही हो। इस उम्र में यही ठीक रहता है।’
अपने देश के हिंदी धारावाहिक चैनलों के निर्माता दर्शकों की धाार्मिक प्रवृत्तियों का दोहन करने के लिये मनोरंजन के नाम पर उसमें कुछ दृश्य ऐसे जोड़ते हैं जिससे उसके सामाजिक होने को प्रमाणित किया जा सके-यह अलग बात है कि वह इस आड़ में कर्मकांड और अंधविश्वास वाले दृश्य भी जोड़ते जाते हैं। प्रसंगवश इन्हीं चैनलों में नारी को घर की एक निष्क्रिय सदस्य माना जाता है जो हमेशा प्रपंचों में लगी रहती है। कोई नारी स्वातंत्र्य समर्थक बुद्धिजीवी इस विचार नहीं करता और कभी कभी तो लगता है कि वह भी इन्हीं से प्रभावित होकर अपने विचार व्यक्त करते हैं।
मगर इस चर्चा का उद्देश्य यह नहीं है। हम तो बात उस दृश्य की कर रहे हैं जिसने इस लेखक को हैरान कर रख दिया। वह महिला उस किताब को पढ़ते हुए जो वाक्य बोली थी वह कहीं श्रीगीता में नहीं है। श्रीगीता के संदेशों का जो आशय है उस पर यहां चर्चा नहीं की जा रही है। जब कोई यह कहता है कि वह श्रीगीता पढ़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि वह संस्कृत के श्लोक पढ़ रहा है या उसका अनुवाद। जो लोग नियमित रूप से श्रीगीता पढ़ते हैं वह अच्छी तरह से जानते हैं कि उसमें क्या लिखा है? यकीनन उपरोक्त वाक्य कहीं भी श्रीगीता में नहंी है।
इतना ही नहीं इन संवादों भाव भी देखें। यह वैराग्य भाव को प्रेरित करते हैं जबकि श्रीगीता मनुष्य को संपूर्ण अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए विज्ञान में विकास के लिये प्रेरित करने के साथ ही जीवन में अपने स्वाभाविक कर्म करने के लिये प्रेरित करती है-जिन पाठकों को लेखक की इस बात पर संदेह हो वह उसे लेकर किसी श्रीगीता सिद्ध के पास ही जाकर उसकी जानकारी मांगें क्योंकि अनेक संतों और धार्मिक संस्थाओं द्वारा श्रीगीता के संबंध में जो उसका आशय प्रकाशित किया जाता है वह भी श्रीगीता में नहीं है।
इस दृश्य में ऐसे दिखाया गया है कि जिनकी जिंदगी की रंगीन नहीं रही है या जिनके रोमांस की आयु बीत गयी है उन्हें ही श्रीगीता का अध्ययन करना चाहिये। शायद कुछ लोगों को अजीब लगे पर सच यह है कि श्रीगीता का अध्ययन करने का समय ही युवावस्था है जिसमें लोग गल्तियां अधिक करते हैं। यही वह आयु होती है जिसमें पाप और पुण्य अर्जित किये जाते हैं। ऐसे में श्रीगीता का अध्ययन करने से ही वह बुद्धि प्राप्त होती है जो न केवल जीवन के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाती है बल्कि स्वयं को गल्तियां करने से भी बचाती है।
अब आते हैं मुख्य बात पर।
आमतौर से हिंदी, हिन्दू और हिन्दुत्व को लेकर अनेक प्रकार की बहसें चलती हैं। निश्चित रूप से इसमें बुद्धिजीवी अपनी विचाराधाराओं के अनुसार विचार व्यक्त करते हैं। देश में लोकतंत्र है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है पर यह प्रश्न तो उठता ही है कि वह जिन ग्रंथों को लेकर भारतीय धर्म की आलोचना करते हैं क्या वह उन्होंने पढ़े है? मगर यह सवाल केवल आलोचकों से ही नहीं वरन् भारतीय धर्मों के समर्थकों से भी है।
आलोचकों ने भारतीय धर्म का आधार स्तंभ मानते हुए वेदों और मनुस्मृति से चार पांच श्लोक और तुलसीदास का एक दोहा ढूंढ लिया है जिसे लेकर वह भारतीय धर्म पर बरसते हैं मगर समर्थक भी क्या करते हैं? वह दूसरे धर्मों के दोष गिनाने शुरु कर देते हैं। मतलब भारतीय धर्म के आलोचकों और प्रशंसक दोनों ही नकारात्मक सोच के झंडाबरदार हैं। नकारात्मक बहस में शब्द और वाणी में आक्रामकता आती है और प्रचार माध्यमों के लिये वह इसलिये रोचक हो जाती है।
देश का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी समुदाय बहस बहुत करता है पर न तो वह भारतीय अध्यात्म ज्ञान की जानकारी रखता है और न ही रखना चाहता है। इसकी उसे जरूरत ही नहीं है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको वैसे ही प्रसिद्ध किये दे रहे हैं। इससे हुआ यह है कि जिन लोगों के नाम के साथ भारतीय धर्म की पहचान लगी हुई है वह अध्यात्मिक ज्ञान को समझे बगैर ही उसका प्रचार प्रसार करते हैं-बशर्त इससे उनको व्यवसायिक लाभ होता हो। वह धारावाहिक जिन लोगों ने देखा होगा उनका मन उस निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री के प्रति अंधश्रद्धा से भर गया होगा-वाह क्या दृश्य है?
इधर भारतीय धर्म के व्यवसायिक साधु और संतों ने भी कोई कम हानि नहीं पहुंचाई है। अधिकतर प्रसिद्ध संतों और साधुओं ने अनेक तरह की संपत्ति का निर्माण किया है-हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है क्योंकि लोग सभी जानते हैं और फिर भी उनके पास जाते हैं। यह लेखक भी कभी कभार उनके प्रवचनों में चला जाता है क्योंकि वही जाकर पता लगता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान क्या है और उसे बताया किस तरह जा रहा है?
आज श्री बालसुब्रण्यम का एक आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को सामंतशाही के विरुद्ध एक आंदोलन निरुपित किया। यह एक नया विचार था। उन्होंने वर्ण संबंधी ऐसे श्लोकों और दोहों की भी चर्चा की जिनको लेकर भारतीय धर्म को बदनाम किया जाता हैं। इस लेखक ने अपनी टिप्पणी लिखी जिसका आशय यह था कि भारतीय भाषाओं में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखे जाने की प्रवृत्ति है और विदेशी पद्धति से चलने वाले विद्वानों उसका केवल शब्दिक या लाक्षणिक अर्थ लेते हैं।
सच बात तो यह है कि इस देश को सांस्कृतिक या धार्मिक खतरा विदेशी भाषाओं, विचारधाराओं और उनके प्रचारकों से नहीं बल्कि देश के लोगों की बौद्धिक गरीबी से है जो भले ही अंग्रेजी नहीं जानते पर उस पर आधारित शिक्षा पद्धति से शिक्षित होने के कारण बाहरी आवरण से अपनी भाषा और संस्कृति में रंगे जरूर लगते हैं पर भावनात्मक रूप से बहुत परे हैं। वह व्यवसायिक प्रचार माध्यमों और कथित साधु संतों की बातों से अपने अध्यात्म को समझते हैं जो उनको कर्मकांडों और अंधविश्वासों से कभी बाहर नहीं निकलने देती।
देश की फिल्मों, टीवी चैनलों, और व्यवसायिक प्रकाशनों में ऐसे ही अल्पज्ञानी लोग भारतीय धर्म के पैरोकार बनते हैं जो आलोचकों के वाद और नारों का उत्तर भी वैसा ही देते हैं जिनसे बहस और अभियानों का परिणाम नहीं निकलता।
हमें किसी की सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं करना चाहिए मगर जब यह बातें सामने आती हैं तो अपना दायित्व समझते हुए सचेत करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि पहले भारतीय अध्यात्म ज्ञान को समझें फिर उसके समर्थन में आगे बढ़ें। यहां यह भी बता दें श्रीगीता में कोई लंबा चैड़ा ज्ञान भी नहीं हैं। न ही उसमें कोई रहस्य छिपा है-जैसा कि कुछ विद्वान दावा करते हैं। पढ़ने में समझ में सब आ जायेगा मगर पहले यह देखना होगा कि संकल्प किस तरह का है। अगर आप उससे सीखने और समझने के लिये पढ़ रहे हैं तो उसका ज्ञान स्वतः आता जायेगा। अगर आप ऐसे सिद्ध बनने की कामना करते हुए पढ़ना चाहते हैं जिससे ढेर सारे लोग गुरु मानकर पूजा करें तो ं तो फिर कुछ नहीं होने वाला। फिर तो आप प्रसिद्ध ज्ञानी जरूर हो जायेंगे। लोग आपके ज्ञान को श्रीगीता का ही ज्ञान कहेंगे मगर जो उसके नियमित पढ़ने वाले होंगे वह आपके पाखंड को समझ जायेंगे।
यहां कुछ उदाहरण देना अच्छा रहेगा
कई जगह लिखा मिल जाता है कि
1. ‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म ही मेरी पूजा है’।
स्पष्टीकरण-पूरी श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहीं भी ऐसा नहीं कहा। हां, उसमें निष्काम कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है पर उसे भी अपनी पूजा नहीं कहा।
2.‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सभी जीवों पर दया करो।’
स्पष्टीकरण-श्रीगीता में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया बल्कि उसमें निष्प्रयोजन दया का संदेश है।
लेखक द्वारा यह चर्चा करने का उद्देश्य स्वयं को सिद्ध प्रमाणित करने के लिये नहीं किया जा रहा है बल्कि इस आशा के साथ किया जाता है कि अगर कोई ज्ञान में कमी हो तो उसमें सुधार किया जाये। शेष फिर कभी
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
1 comment:
... श्रीभगवतगीता पाठ के वाद ही टिप्पणी देना उचित जान पडता है !!!!!
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