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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/4/09

द्यूतमय विश्व वातावरण-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya lekh)

राजा नल ने जुआ खेली और उसमें हारने पर राज्य और परिवार त्यागकर वन में जाकर दूसरे की सेवा करनी पड़ी। अति सुंदर रुक्मी इंद्र जैसा बलशाली और महान धनुर्धर था पर जुए में खेलने के कारण ही बलराम जी के हाथ से मारा गया। कौशिक राजा मंदबुद्धि दंतवक्र जुए की सभा में बैठने के कारण ही बलराम जी पर हंसने के कारण अपना दांत तुड़ा बैठा। धर्मराज युद्धिष्ठर ने भी हुआ खेला ओर उसके बाद जो उन्होंने और उनके परिवार ने कष्ट झेले उसे सभी जानते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि द्यूत या जुआ कभी भी फलदायी नहीं होता पर आदमी है कि उसके पीछे ही पड़ा रहता है। इधर आजकल तो लग रहा है कि लोगों को जुए का मतलब ही नहीं मालुम। टीवी चैनलों के धारावाहिक हों या दूसरे खेल सट्टे के आगोश में फंसे हैं पर लोग उसे मजे लेकर देख रहे हैं।
जुआ या द्यूत यानि क्या? समझाना पड़ेगा वरना लगता नहीं कि लोग इसका मतलब अधिक जानते है। वरना लोग तो जुआ केवल ताश या पांसा खेलना ही समझते हैं। बहुत कम लोगों को मालुम होगा कि आज भी अनेक लोग यह खेल मुफ्त में खेलकर जीवन गुजार रहे हैं। जुआ का पूरा आशय जान लेंगे तो समझ में आयेगा कि आज तो पूरा वातावरण ही द्यूतमय हो रहा है। पहले तो कभी कभार ही जुए होते थे-वह भी बड़े लोगों के बीच- इसलिये इतिहास में दर्ज हो गये। दर्ज तो आज भी होते हैं पर जुए का स्वरूप सामने नहीं आता। कोई ताश मे हारा या पांसों में पता नहीं लगता। वैसे आज एक अंक का दूसरा क्रिकेट का सट्टा अधिक खेला जाता है। अनेक बार सुनने में आता है कि अमुक आदमी ने अपनी पत्नी को मारा, पिता को मारा या मां को मारा क्योंकि वह सट्टा खेलता था समाचार देने वाले चालाक हैं यह नहीं बताते कि वह कथित अपराधी क्रिकेट के पर सट्टा लगाकर बरबाद हुआ जिस कारण उसने यह जघन्य अपराध किया, क्योंकि इस खेल से भी उनको विज्ञापन और पैसा मिलता है फिर वह जिन नायकों के सहारे पैसा कमा रहे हैं उनकी खलनायकी कैसे दिखा सकते हैं

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कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
अर्थ का नाश, धर्मक्रिया का लोप, कर्मों में अप्रवृत्ति,सत्पुरुषों के समागम से विरक्ति, दुष्टों के साथ उठना बैठना,
हर समय क्रोध, हर्ष और संताप होना और क्लेख करना
स्नानादि शरीर संस्कार और उसके भोग में अनादर, व्यायाम न करना, अंगों की दुर्बलता,शास्त्र के अर्थ को देखना
मूत्रपूरीध के वेग को रोकना, भूख प्यास से अपने को ही पीड़ा देना
यह सभी प्रमाण द्यूत या जुए के लक्षण हैं
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पहले तो लोग भला नित प्रतिदिन अपने ग्रंथों का अध्ययन करते थे तब कुछ ज्ञान तो उनमें आ ही जाता था पर आज की पीढ़ी ने तो बस ग्रंथों के नाम ही सुने हैं बाकी तो उनके सामने हैं क्रिकेट या फिर टीवी चैनलों के वास्तविक शो जो किसी भी तरह से द्यूत जैसे नहीं दिखते पर उनसे कम नहीं हैं। इधर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और फिर बाद में वैसा ही रहन सहन जड़ बुद्धि ही बनाता है। कहने को तो अपने देश के बुद्धिजीवियों ने अच्छे अच्छे नारे गड़ रखे हैं पर पर आसमान में हवा की तरह उड़ते दिखते हैं जमीन पर उनका प्रभाव कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। समाज सुधारक बुद्धिजीवियों को आज के समय के ऐसे खेल जुए की तरह नहीं लगते जिनमें पैसा का व्यय हो रहा है। हो सकता है यह विज्ञापन या चंदे का परिणाम हो कि हमारे समाज सुधारकों के समूह की दृष्टि उन पर वैसी न जाती हो जैसे ताश या पांसे के जूए पर जाती है।
जुए का आशय यही है कि किसी खेल में परिणाम पर धन का लेन देन उसके जुआ होने का प्रमाण है। कोई किसी भी प्रकार के खेल में हिस्सेदारी करे पर उसके परिणाम पर अगर धन का लेनदेन करता है तो वह द्यूतक्रीड़ा में लिप्त है। सीधी बात कहें तो खेल में धन खर्च करना या लेना द्यूतक्रीड़ा या जुआ है। जुआ खेलना ही नहीं देखना भी विषप्रद है। हम अपनी इंद्रियों से जो ग्रहण करते हैं वैसा ही बाहर अभिव्यक्त भी होते हैं। वह चाहे हाथों से ग्रहण करें या नाक, कान, या आंख से। अगर कोई जुआ खेल रहा है और हम देख रहे हैं तो यकीन मानिए उसका दुष्परिणाम हमें भी कहीं न कहीं भोगना है। याद रखिये हमारी घर गतिविध का हम पर मानसिक प्रभाव पड़ता है। अरे यार, यह उपदेश नहीं है। यह सच है। सोचो जब कहीं भयानक आवाज होती है हमारे कान फटते हैं कि नहीं। कहीं से निकल रहे हैं और बदबू नाक में प्रवेश करती है तो कैसा लगता है? वही हाल विचार का भी है। जुआ देखोगे तो विचारों में कलुषिता तो आयेगी तब हम भले ही जूआ न खेलें किसी अन्य रूप में अवश्य प्रकट होगी। क्रिकेट के सट्टे पर कितने लोग बरबाद हो चुके हैं कोई नहीं बता सकता।
क्रिकेट का हाल तो सभी जानते हैं। एक प्रतियोगिता होती है उसमें कोई टीम बहुत अच्छा खेली। उसे ठीक अगली प्रतियोगिता में वह नाकाम होती है। विशेषज्ञ इसे इंगित कर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। दूनियां भर की टीमों पर मैच को पूर्वनिर्धारित करने का आरोप लग चुका है। कोई सामान्य आदमी कह भी क्या सकता है जब इसी नये प्रकार के जुआ के बारे में उन्हीं प्रचार माध्यमों में आता है जो इसका प्रचार भी करते हुए विज्ञापन भी पाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले टैनिस में भी ऐसी ही बातें आयीं थीं। फुटबाल पर भी संशय किया जाने लगा है। इन सबकी कभी पूरी सच्चाई सामने न आती है न आयेगी क्योंकि पूरा विश्व ही द्यूतमय हो रहा है। कई लोगों को तो यह पता ही नहीं कि जुआ होता क्या है?
इधर टीवी चैनलों पर वास्वविक धारावाहिक प्रदर्शित होते हैं। कई लोग तो उन पर भी पूर्वनिर्धारित होने का आरोप लगाते हैं। लिपपुते चेहरे और आकर्षक दृश्यों की चकाचैंध हमारे कौटिल्य महाराज का यह संदेश नहीं बदल सकती कि द्यूत अनर्थकारी होता है। आप बताईये आखिर हर मैच पर सटोरिये पकड़ जा रहे हैं इसका मतलब यह है कि अभी भी इस पर दांव लगाने वाले बहुत लोग हैं। इधर टीवी चैनलों पर वास्तविक धारावाहिकों के प्रसारण में लोगों से फोन पर संदेश और वोट मांगा जाता है उस पर क्या उनके फोन पर पैसे नहीं खर्च करते। वह मुफ्त में तो नहीं होता। अब यह तो हो गया टीवी चैनल वालों का व्यवसाय पर मनोरंजन करने पर वह भी प्रतिस्पर्धियों के बीच निर्णय कराने के लिये पैसा खर्च करना द्यूत हुआ कि नहीं। कहने को तो हम फिल्म पर भी पैसा खर्च करते हैं पर वहां कोई प्रतिस्पर्धी नहीं होता। सीधा आशय यह है कि मनोरंजन के लिये खेल पर पैसा खर्च करना या लेना द्यूतमय है और देखें तो आज पूरा विश्व उसमे लिप्त हो रहा है। ताश से जुआ खेलने वाले पकड़े जाते हैं क्योंकि उनका अपराध दिखता है पर प्रतिस्पर्धा खेल में पर्दे के पीछे क्या हो रहा है कौन देखने जाता है।
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