कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दुत्व तो एक जीवन शैली है। कोई मानता है कि हर आदमी पैदा तो हिन्दू के रूप में ही होता है और तब तक रहता है जब तक वह कोई दूसरा धर्म नहीं मान लेता। हिन्दुत्व वास्तव में मनुष्यत्व का ही रूप लगता है क्योंकि इसमें खानपान, रहन सहन, तथा नित्यक्रिया को लेकर कोई नियम तय नहीं है बल्कि हर स्थिति में अपने निश्चय, विचार, सत्कर्म तथा भक्ति पर दृढ़ रहने का संदेश है। इतना ही नहीं जहां अन्य विचाराधाराओं के विद्वान अपनी पुस्तकों की महिमा गाते हैं वहीं श्रीमद्भागवत गीता तो कहती है कि उसका ज्ञान केवल अपने भक्तों को ही सुनाया जाये। इतना ही नहीं हिंसक व्यक्ति को न केवल तामसी प्रवृत्ति का बताया गया है और उससे दूर रहने का भी संदेश दिया गया है। ज्ञान और विज्ञान से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत गीता समग्र ज्ञान का सार होने के बावजूद हिन्दूत्व की अकेली पहचान नहीं है-यह अलग बात है कि उस जैसा ग्रंथ विश्व में कोई दूसरा नहीं है जो मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है।
अगर हमने यह मान लिया है कि हमारा विचार और कर्ममार्ग ही श्रेष्ठ है और उसमें समय, पर्यावरण तथा विश्व समाज के अनुसार परिवर्तन नहीं करेंगे तो यह अहंकार का भाव है जो हमें जीवन को सही ढंग से जीने नहीं देता। विश्व में अनेक प्रकार के धर्म और विचारधारायें हैं जिनको मानने वाले लोग इस भाव से जीते हैं कि जैसे उनका जीवन उसी की ही देन है जबकि वास्तविकता यह है कि पांच तत्वों से बनी इस देह में तीन प्रकृतियां स्वतः प्रवेश कर उसका संचालन करती है। मुख्य रूप से अहंकार की प्रकृत्ति मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु है जिसके वशीभूत इंसान उस हर वस्तु को श्रेष्ठ समझता है और उस कर्म को ही सत्कर्म मानता है जिससे वह स्वयं क्रता है। इसके अलावा अपने ही इष्ट को सबसे अधिक पवित्र मानता है। विश्व में इसी अहंकार के वशीभूत सारे संघर्ष होते हैं क्योंकि श्रेष्ठता का भाव आदमी के अंदर ऐसा अहंकार पैदा करता है जो उसे हमेशा असंतुष्ट बनाये रखता है। यही असंतोष अनेक प्रकार के एतिहासिक संघर्षों का कारण बना है।
इसके बावजूद यह सत्य है कि भारतीय इतिहास में धार्मिक विवादों पर बहस चलती रही है पर यहां हिंसा नहीं हुई। किसी राजा ने किसी दूसरे राजा पर इसलिये हमला नहीं किया कि वहां की प्रजा उसके इष्ट को नहीं मानती। इतना ही नहीं बड़े बड़े धार्मिक संतों ने किसी भी प्रकार से सर्वशक्तिमान के किसी एक रूप को ही श्रेष्ठ बताने का प्रयास नहीं किया बल्कि सभी को एक ही परमात्मा का रूप माना है। किसी एक भाषा को भी सर्वशक्तिमान की नहीं माना। हर भाषा में अपने अपने ढंग से अध्यात्मिक विचार व्यक्त किये जाते रहे। अलबत्ता अंग्रेजी में पारंगत होकर नौकरी या व्यवसाय पाने की चाहत ने लोगों को अपनी देश की भाषाओं से दूर जरूर कर दिया है क्योंकि बदलते समय में अपने देश में आधुनिक प्रकार के रोज्रगार कम ही रहे हैं-जिनमें गुलामी साहब बनकर की जाती है। लोगों के रोजगार में नौकरी की महत्ता बड़ी तो उन्होंने विदेशी भाषाओं संस्कृति को आत्मसात करने का प्रयास किया है। कालांतर में यही प्रवृत्ति समाज के आंतरिक संघर्ष का कारण जरूर बनी पर अब समय के साथ लोगों को यह समझ में आ रही है कि पश्चिम का मायाजाल की राह भारत का आदमी नहीं चल सकता क्योंकि इन प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कुछ अध्यात्मिक गुण उसके रक्त में ही रहते हैं जिससे वह धार्मिक भाव से दूर नहीं रह सकता।
इधर धर्म के आधार पर अनेक तरह के वाद विवाद चलते हैंें। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित कुछ संदेश -जो कि समय के साथ हिन्दू धर्म मानने वालों के लिये ही अप्रासंगिक हो गये हैं-गैर हिन्दू धर्म के विद्वानों की दृष्टि में वही बसे हैं जिनको लेकर वह आये दिन प्रतिकूल बोलकर अपनी श्रेष्ठता साबित करते हैं। इसका कारण यह है कि भारतीय प्रचार माध्यम अपने आपको निष्पक्ष साबित करने के लिये उनके बयान खूब छापते हैं। बाजार के उदारीकरण ने इसे अधिक बढ़ाया है। ऐसे में मुश्किल यह होती है कि समझाया किसे क्या जाये। वैसे हिन्दू धर्म वास्तव में एक जीवन शैली है क्योंकि समय के साथ परिवर्तन की प्रवृत्ति ही मनुष्य होने का प्रमाण है। दूसरी बात यह भी है कि अन्य विचाराधाराओं के मानने वालों की तो एक ही पुस्तक है और वह उनके आधार पर ही विश्व समाज को चलते देखना चाहते हैं। वह उसका प्रचार कर अपने को धार्मिक साबित करते है। हिन्दू लोग कहलाने वालों की पहले तो एक कोई पुस्तक नहीं है दूसरे श्रीगीता ने सभी पुस्तकों का सार अपने अंदर समाहित कर दिया है। उसका तत्वज्ञान अधिक विस्तृत नहीं है और निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और योग साधना कर जीवन को तनाव मुक्त कैसे किया जा सकता है इसके लिये अधिक लिखने या पढ़ने की जरूरत नहीं है। बच्चा बच्च इसे जानता है। इसलिये हिन्दू लोग उसे लेकर अधिक बहस नहीं करते। दूसरी बात यह है कि इन धार्मिक ग्रंथों को भले ही हिन्दू अधिक न पढ़ते हों पर घर परिवार तथा समाज में सत्संगों में सभी इसे जानते हैं। उनके अंदर अध्यात्मिक का स्त्रोत सदैव रहता है। वह अपने जीवन की परिशानियों के लिये किसी से राय लेने नहीं जाते। अपनी बुद्धि और विवेक के प्रति यह उनका स्वाभाविक आत्मविश्वास है कि अगर कोई अच्छी बात कहता भी है तो उसे किसी पुस्तक का हवाला देने की जरूरत नहीं होती जबकि अन्य विचाराधारा के लोगों को इसके लिये अपनी किताब का हवाला देना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि हिन्दू समाज में अंहकार की कमी है पर वह धर्म को लेकर कभी ऐसा प्रदर्शन नहीं करते कि उनका विचार ही सर्वश्रेष्ठ है या उनका ही इष्ट का स्वरूप ही प्रमाणिक है। यही कारण है कि धार्मिक विवादों में कटुता का भाव उनमें नहीं आता। कुछ लोग हिन्दुओं में सर्वशक्तिमान के किसी एक रूप को नहीं गलत मानते है पर यही इसी समाज की पहचान है क्योंकि वह सभी रूपों सर्वशक्तिमान को निरंकार रूप की कल्पना करता है। यही सौम्यता हिन्दुत्व की ताकत है।
आखिरी बात यह है कि जीवन और मृत्यु के मूल तत्व कभी नहीं बदलते। अलबत्ता इसके मध्य जो संसार है वह परिवर्तनशील है क्योंकि उसमें भी कुछ ऐसे तत्व है जो जीवन की परिधि में आते हैं जिससे बनने बिगड़ने की नियति से वह बच नहीं सकते। यह सत्य केवल भारतीय अध्यात्म ज्ञान में ही वर्णित है इसलिये हिन्दू समाज आगे बढ़ता जाता है जबकि अन्य विचारधारा वाले अपनी पुराने सिद्धांतों का गुणगान करते हैं यह अलग बात है कि यह उनका दिखावा ही होता है वरना वह स्वयं भी अपनी जीवन शैली बदलते हैं पर क्योंकि उनके पास नये समय में कहने के लिये कुछ नहीं होता पर अहंकार है कि इसके लिये बाध्य करता है कि वह अपनी बात को ठीक कहें। कम से कम भारतीय समाज अपने अध्यात्मिक गुणों के कारण इस प्रकार के झगड़ों से दूर ही रहता है यह खुशी की बात है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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1 comment:
गीता ने जीने की कला सिखाई है ।
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