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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/7/10

यह पब्लिक है, सब जानती है- हिन्दू धर्म पर लेख (a article on Hindu Dharma)

हिन्दू संत से क्या आशय है? आखिर यह पता तो होना चाहिए कि आजकल के बुद्धिजीवी किस आधार पर यह तय करते हैं कि अमुक हिन्दू संत है या नहीं। शायद वह केवल हर गेरूए धारी को ही संत मानने लगते हैं पर समाज में ऐसी सोच नहीं है। भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी विदेशी संज्ञाओं को अपनी बुद्धि में बसा चुके हैं कि वह अपने देश के ही ग्रामीण परिवेश के अशिक्षित लोगों को मूर्ख समझते हैं और उनको समझाने लगते हैं जबकि सच यह है कि यह है कि वह अधिक समझदार दिखते हैं।
यह सच है कि गेरुए वस्त्र हिन्दू संतों की पहचान है पर कम से कम आम भारतीय इस आधार पर उनको संत नहीं मानता। अपने देश में आचरण की ऐसी महिमा है कि अगर कोई गृहस्थ सद्आचरण करता है तो उसे भी संत माना जाता है। छल कपट से परे, दूसरों की सहायता को तत्पर तथा मीठी वाणी से दूसरे को प्रभावित करने वाला हर व्यक्ति अपने समूह में संत की तरह देखा जाता है। आधुनिक काल में ऐसे अनेक अपराधी हैं जो संतों का चोला पहनकर ठगी कर रहे हैं और यह बात समाज जानता है। दूसरी बात यह है कि रामायण मेें यह बात भी दर्ज है कि रावण ने सीता का हरण सन्यासी बनकर ही किया था-इसलिये ही आम भारतीय अध्यात्मिक ज्ञाता हर सन्यासी वेशधारी को ही संत नहीं मानता। इसके विपरीत मैकाले की शिक्षा पद्धति से शिक्षित ऐसे लोग जिनके पास प्रचार माध्यमों में अपनी बात कहने की शक्ति है वह गेरुए वस्त्रधारी ठगों, देह व्यापारियों तथा अपराधियों को भी ‘हिन्दू सन्यासी’ कहकर संबोधित कर रहा है।
अब जरा आधुनिक बाजार और प्रचार माध्यमों की कार्यशैली पर भी बहस करें। ऐसे अपराधियों को संत बनाया किसने? आम लोगों ने! यह बात विदुषकों के प्रलाप के अलावा अन्य कोई नहीं कह सकता। हम आम लोग अनेक धार्मिक स्थानों और मंदिरों में जाते हैं। हर जगह मठाधीश होता है। हम कहीं दस मिनट रुके तो कहीे एक घंटे, फिर बाद में अपने घर चले जाते हैं। प्रचार माध्यमों ने अनेक संतों को अपने लक्ष्य बना रखा है पर लोग फिर भी उन संतों के पास जाते हैं क्योंकि यह सभी को पता है कि प्रचार माध्यम किसी दबाववश देश के धर्म को शुद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं! अगर पिछले दो वर्षों में देखा जाये तो अनेक संत अपने ही बुने जाल में फंसे तो कुछ के खिलाफ चल रहा दुष्प्रचार अभी प्रमाणिकता से परे है। जिस राह प्रचार माध्यम चले हैं उसे देखते हुए यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि इसमें अभी तो तीन अपराधी संत फंसे हैं और अगर कोशिश होगी तो यह संख्या तीन हजार भी हो जायेगी। क्योंकि इसमें संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्मिक ऐसे स्वर्णिम शब्दों से सुसज्जित है जिनको रट कर सुनाया जाये तो भी प्रभाव छोड़ते हैं-शाब्दिक ज्ञान को धारण कितने लोग करते हैं यह अलग बात है। ढूंढने निकलेंगे तो एक नहीं ऐसे ढेर सारे संत मिल जायेंगे जिनका आचरण धर्मानुकूल नहीं है-आम लोग इस बात को जानते हैं पर उनके लिये कुछ करना संभव नहीं है।
आज एक चैनल पर देश के चारों शंकराचार्यों को बुलाकर एक बहस कराई गयी। जिसमें यह मुद्दा उठाया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह चारों शंकराचार्य अपने धर्म के ज्ञाता हैं पर वह राजनीति के माहिर खिलाड़ी नहीं है। यहां पता चला कि हरिद्वार में चल रहे कुंभ में भी विवाद हुआ जहां 108 लोग शंकराचार्य होने का दावा कर रहे थे। वहां प्रशासन ने आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार शंकराचार्यों को ही मान्यता दी। इसमें एक शंकराचार्य ने स्वीकार किया कि हिन्दू धर्म को विखंडित करने के लिये ही नकली शंकराचार्य खड़े किये गये हैं। उनकी बात में दम था। उन्होंनें कहा कि शंकराचार्य शब्द की लोकप्रियता का फायदा कुछ लोग उठाना चाहते हैं और उनको समाज के उस शक्तिशाली वर्ग का समर्थन मिलता है जो धर्म की आड़ में समाज पर नियंत्रण करना चाहता है।
उनकी बात जमी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर शंकराचार्य की पदवी की बात है तो वह केवल आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों के पास ही रह सकती है और बाकी का दावा कमजोर दिखता है। एक शंकराचार्य की यह बात भी ठीक थी कि अगर अपने अंदर ज्ञान और योग्यता है तो बिना शंकराचार्य की पदवी के भी अनेक संत लोगों के हृदय में विराजमान है। उनकी बात में दम इसलिये भी लगी कि सर्वश्री बाबा रामदेव, आसाराम, बापू, मोरारी, बापू, रमेश भाई ओझा तथा अन्य अनेक संत ऐसा कोई दावा किये बगैर ही धर्म प्रचार के कार्य में लगे हुए हैं। ऐसे में यह संदेह होता है कि भारतीय धर्म के संगठन का प्रतीक आदि शंकराचार्य का नाम भुनाने के लिये ऐसे लोग सक्रिय कैसे हैं जिनके पास कोई योग्यता नहीं है। अगर उनमें योग्यता है तो वह क्यों इस पदवी को धारण करना चाहते हैं?
तय बात है कि देश का शक्तिशाली वर्ग धर्म की आड़ में नये ढंग से अपना शासन समाज पर करना चाहता है और उसे लगता है कि पुराने संगठनों के सहारे यह संभव नहीं है इसलिये उनकी नकल खड़ी की जाना चाहिए। यकीनन प्रचार माध्यम भी इसी शक्तिशाली वर्ग के ही हाथ में है और वह उन्हीं के अनुसार काम करता है। धनी तथा शक्तिशाली वर्ग का प्रश्रय पाकर अनेक अपराधी भी साधु बन गये पर सवाल यह है कि उनको मान्यता देने का हक किसके पास है!
लोग वेदों की बात कर रहे हैं? सिवाय बकवास के वह क्या करते हैं? सभी जानते हैं कि श्रीमद्भागवत की स्थापना के बाद वेद अधिक प्रासंगिक नहीं रह गये क्योंकि चारों का सार उसमें आ गया। देखा जाये तो वेदों में चार प्रकार के भक्त बताये गये है-अर्थार्थी, आर्ती, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। भक्ति के दो मार्ग बताये गये हैं। एक तो है सकाम भक्ति जिसमें स्वर्ग दिलाने की बात कही जाती है दूसरी है निष्काम भक्ति! श्रीगीता में निष्काम भक्ति की बात कहने की साथ ही वेदों में वर्णितस्वर्ग से प्रीति न रखने का संदेश दिया गया है-मतलब वेदों का प्रतिवाद भी हमारे ही ग्रंथ में हैं, दूसरे हमें क्या सिखाना चाहते हैं। वेद इतने बृहद इसलिये हैं क्योंकि उसमें सकाम भक्ति की बात कही गयी है जिसके एक नहीं अनेक रूप हैं दूसरे वह किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित नहीं है इसलिये उनमें विरोधाभास है-जिनका फायदा हिन्दू धर्म के आलोचक उठाते है। श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन करने के बाद किसी का मन वेदों की तरफ नहीं जाता क्योंकि ज्ञानी जानते हैं कि वेदों का सार इसमें हैं।
ऐसे में धर्म की आड़ में अनैतिक व्यापार करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहिये पर उन पर हिन्दू धर्म की संज्ञा अधिक समय तक चिपकाना संदेह हो जन्म देती है। हिन्दू समाज एक ईमानदार समाज है और वह कभी अपराधियों का समर्थन नहीं करेगा। जहां तक अपराधियों के संतों या संतों के अपराधी होने की बात है तो यकीनन वह बिना पैसे या शक्तिशाली लोगों के सहयोग के बिना संभव नहीं है जैसा कि एक शंकराचार्य के प्रतिनिधि ने कहा।
एक अपराधी धर्म का चोला पहनकर देह व्यापार चला रहा है या एक कोई किसी फिल्म अभिनेत्री के साथ प्रेम प्रसंग कर रहा है तो क्या वह शक्तिशाली वर्ग के सहयोग के बिना संभव है?
अतः अपराधियों के बार बार हिन्दू संत कहना ठीक नहीं है। दूसरा बार बार यह कहना कि अमुक संत भोले भाले लोगों को धोखा देर रहा था भी भ्रामक है। जब कोई कथित संत ऐसे अपराध या व्यसन में फंसता है तो दरअसल धोखा तो वह शक्तिशाली वर्ग तथा उसके प्रचारतंत्र को दे रहा होता है क्योंकि कहीं न कहीं वह उसका सहायक होता है जिसके फंसने पर वह उससे पीछा छुड़ाते नज़र आते हैं। अगर कोई आम आदमी उनके जाल में फंसा भी है तो वह अपने लोभ, लालच और काम वासना की वजह से फंसा है न कि सोचने की कम बुद्धि की वजह से। धर्म का चोगा पहनने वाले कथित अपराधियों से कानून निपटेगा पर प्रचार माध्यमों को इस देश के आम इंसान की बुद्धि पर तरस नहीं खाना चाहिये। यह पब्लिक है सब जानती है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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