कच्ची बस्तियों का उजड़ना
पत्थर के महलों का बसना ही
शायद यही विकास कहलाता है।
गांवों का बढ़ते बढ़ते शहर हो जाना
शहरों में दिलों का सिकुड़ जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
नीयत का काला हो जाना,
बदनीयत को चतुराई जताना,
शायद यही विकास कहलाता है।
आजाद मजदूर का गरीब हो जाना
कलम के गुलाम का अमीर के साथ हो जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
खुद की सोच से ही डर जाना
अमीर के इशारे पर
जमाने का जागना और सो जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
कुदरत की सांसों को बादशाह का तोहफा कहना
दौलतमंदों के नखरों को आदत की तरह सहना
शायद यही विकास कहलाता है।
किसे समझायें कि
खुद को समझे बिना
जमाने को नहीं समझा जा सकता है
बंद कर दी अपनी अक्ल ताले में
तो कोई भी बिना जंजीरों के
भीड़ में भेड़ की तरह ले जायेगा तुम्हें
पर आंख और कान होते हुए भी
इंसान हो गये गुलाम
शायद यही विकास कहलाता है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
1 comment:
किसे समझायें कि
खुद को समझे बिना
जमाने को नहीं समझा जा सकता है
बंद कर दी अपनी अक्ल ताले में
तो कोई भी बिना जंजीरों के
भीड़ में भेड़ की तरह ले जायेगा तुम्हें
पर आंख और कान होते हुए भी
इंसान हो गये गुलाम
शायद यही विकास कहलाता है।
मार्मिक रचना दीपक जी।
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