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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/29/10

गुलाब के साथ कांटे-हिन्दी लेख (gulab ke sath kante-hindi lekh)

भारत में भी शादी के बाद तलाक की घटनायें बढ़ रही हैं। पहले जब बुजुर्ग लोगों के श्रीमुख से पश्चिमी देशों के मुकाबले अपने देश की संस्कृति, संस्कार और स्वभाव के श्रेष्ठ होने की बात सुनते थे तो उनका तर्क यही होता था कि वहां तलाक ज्यादा होते हैं, वहां की लड़कियां बिना विवाह के मां बन जाती हैं, या फिर विदेशों में लोग माता पिता तथा गुरु की इज्जत नहीं करते थे। उस समय के बच्चे आज बड़े हो गये हैं पर उनके तर्क भी आज इसी तरह के रहते हैं मगर अब यह तर्क खोखले लगते हैं।
देश की सच्चाई से मुंह फेर कर तर्क करना इस देश के बौद्धिक और अबौद्धिक दोनों समाजों की आदत हो गयी है। दरअसल इन बुजुर्गों ने ही अपने बच्चों को पाश्चात्य सभ्यता को आधुनिकता का पर्याय मानकर उस अपनाने दिया। उस पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संवरते हुए अपनी औलाद के संस्कारों को फलते फूलते देखकर बहुत प्रसन्न हुए पर आज जब उन्हें पश्चिमी सभ्यता की वजह से अकेले पन का दंड भोगना पड़ता है तब भी वह इस सच से मुंह फेरकर अपने देश की कथित संस्कृति की रक्षा करने की बात करते हैं। सवाल यह है कि आखिर इस संस्कृति की रक्षा कौन करे? सभी का एक ही ध्येय है कि हमारे बच्चे अंग्रेजी में पढ़कर बड़े बने जिससे हमारी नाक समाज में ऊंची हो। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि वह उनको गुलामी के लिये-यानि नौकरी करने के लिये-तैयार करते हैं और फिर रोते हैं कि उनके बच्चे पूछ नहीं रहे। अब यह सोचने की बात है कि जब बच्चा दूसरे की गुलामी में चला गया तो फिर उससे अपने पारिवारिक सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। किसी का बच्चा अमेरिका में है तो किसी का जर्मनी में तो किसी का ब्रिटेन में। इसे लोग बड़ी शान से बताते हैं पर उनका अकेलापन उनके चेहरे से झलकने लगता है।
जब देश में तलाक की संख्या बढ़ रही है तब मुहूर्त देखकर शादी करने की बात भी अब शक के दायरे में आ जाती हैै। पहले के बुजुर्ग दावा करते थे कि हमारे यहां शादियां मुहूर्त देखकर की जाती हैं इसलिये इतने तलाक नहीं होते। मगर शादियां तो अब भी मुहूर्त देखकर होती हैं। फिर ऐसा क्या हो रहा है। दरअसल पहले स्त्रियां इतनी मुखर नहीं थी। अपने घर के कष्ट झेलकर खामोश रहती थीं। उस समय के बुजुर्ग पुरुष अंदर ही अंदर घुट रही नारी को खुश मानकर ही ऐसे दावे करते थे। अब हालात बदल गये। अंग्रेजी माया के चक्कर ने जहां कथित रूप से इस देश को सभ्य बनाया तो लोगो में मुखरता भी आयी। पुरुष पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत स्त्रियों को ही अपनी पत्नी के रूप में पसंद करने लगे। सो पश्चिम की खुशियों के साथ उससे जुड़ी बीमारियां भी यहां आ गयीं। सच है यार, खुशियों के फूलों के साथ कांटे भी जुड़े रहते हैं। गुलाब की चाहत में पौद्या लगायेंगे तो उसमें कांटे भी आयेंगे। कमल लगाना है तो कीचड़ का जमाव करना ही होगा।
यह सब बकवास हमने योग का मतलब समझाने के लिये लिखी है। योग हर इंसान करता है-सहज योग और असहज योग। जब आदमी स्वयं योग करता है तब वह सहज योग की प्रवृत्ति में स्थित होता है पर जब बिना सोचे समझे चलता जाता है तब वह असहज योग को धारण किये होता है। लोग अपने हाल पर कभी सहज होने का प्रयास करते हैं पर अन्य असहजतायें उनके चेहरे पर छायी हुई होती है। खुश होने या दिखने के लिये आदमी जूझता रहता है पर उसके नसीब में नहीं होती। सहज योग का अर्थ है कि अपने ऊपर हमारा नियंत्रण होता है जबकि असहजयोग की स्थिति में स्थिति हम पर नियंत्रण करती है। गुलाब के साथ कांटे होने की सच्चाई को जब हम अपने सहज योग से देखते हैं तो तनाव कर होता है पर जब हम असहज होते हैं तो वह हमारा पीछा हमेशा करती है।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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2 comments:

माधव( Madhav) said...

nice musing

मिलकर रहिए said...

मेरे नए ब्‍लोग पर मेरी नई कविता शरीर के उभार पर तेरी आंख http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_30.html और पोस्‍ट पर दीजिए सर, अपनी प्रतिक्रिया।

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