पुराने समय के राजाओं महाराजाओं की आलोचना खूब होती है पर उनकी कुछ विशेषतायें अब याद आती हैं। इन राजाओं ने अपने रहने के लिये महल और किले बनवाये तो जनता के पीने के लिये जलाशय, मनोरंजन के लिये बड़े बड़े उद्यान तथा अन्य सुविधाओं क लिये इमारतों का निर्माण करवाया। जिस काम को हाथ में लिया उसे पूरा कराया। सत्ता के केंद्र बिन्दू राजा ही थे इसलिये जनता से कर वसूलने के अलावा साहूकारों से पैसा वसूलने के लिये उनको हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। विपत्ति का समय होता तो जमींदार और साहूकार उनको स्वयं धन देते थे और बदले में कोई काम करने के लिये कहने का साहस उनमें नहीं होता था क्योंकि वह जानते थे कि राजा सुरक्षित है तो राज्य भी सुरक्षित होगा जो कि उनके लिये फलदायी है। इसलिये भ्रष्टाचार नाम को भी नहीं होता अलबत्ता राजाओं और बादशाहों की विलासिता के चर्चे होते थे जिसका लाभ उठाकर कुछ दरबारी अपने लिये विलासिता की साधन जुटाते थे।
कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। वैसे तो हमारे देश के अधिकतर कर्णधार आम परिवारों से है इसलिये लोकतंत्र के सही अर्थों में काम करने का प्रयास करते हैं पर इसके बावजूद कुछ ऐसे हैं जिनका व्यवहार राजशाही जैसा होता है। इस पर लंबी बहस हो सकती है। मुख्य बात यह है कि पुराने राजा अपने निर्मित इमारत या पार्क के बनवाने के बाद उस पर अपना नाम लिखवाने का कोई प्रयास नहीं करते थे। इतिहास उनका नाम स्वयं दर्ज करता रहा है। वह पैसा भले ही अपने खजाने से देते थे जो जनता से एकत्रित होता था मगर राजाओं के लिये वह एक निजी संपत्ति की तरह होता था पर फिर भी निर्माण कार्य कराने पर निजत्व के प्रचार की वैसी आदत नहीं थी। जबकि आज देश में अनेक जगह पत्थरों पर नये राजाओं के नाम लिखे मिल जाते है। लोकतंत्र में धन जनता का होता है और उसे किसी भी तरह किसी की निजी संपत्ति नहीं माना जा सकता।
कई जगह तो ऐसे पत्थर भी मिल जायेंगे जिनके निर्माण कार्य अभी तक शुरु नहीं हुए होंगे जबकि उनको लगे बरसों हो गये। कई जगह ऐसे पत्थर भी मिल जायेंगे जिनके निर्माण कार्य हुए पर उनका अस्तित्व अब नहीं भी हो गये पर पत्थरों की चमक कायम है। ‘इस सड़क का निर्माण कार्य की शुरुआत अमुक के कर कमलों से हुई’, जबकि सड़क बनी और वह अब गड्ढों में भी तब्दील हो गयी, मगर पत्थर है कि चमक रहा है। इसका कारण यह है कि और कुछ हो न हो उद्घाटन के समय पत्थर बहुत मजबूत लगाया जाता है ताकि उद्घाटनकर्ता नाराज न हो। दरअसल अर्थशास्त्री एडमस्मिथ लोकतंत्र के बारे में कहता है कि उसमें राज्य क्लर्क चलाते हैं, ऐसे दृश्य देखकर उसकी बात याद आती है। पत्थर लगवाने वाले नये राजाओं में कुछ स्वयं प्रबंध कौशल में इतना माहिर नहीं होते नतीजा यह है कि उनके सीधे नियंत्रण में रहने वाले मातहत केवल तात्कालिक रूप से उनको प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं और इसी कारण पत्थर अच्छे लग जाते हैं। बाकी काम के बारे में तो जनता ही जानती है पर उसकी बात सुनता कौन है। यही कारण है कि अनेक बुजुर्ग कभी पुराने राजाओं तो कभी अंग्रेज शासन को याद करते हैं। ऐसे में नये राजाओ में जो अर्थशास्त्र, प्रबंध तथा अध्यात्म की विधा में पारंगत हैं वही कुशलता से काम करन जनता का भला कर पाते हैं। वैसे कहा जाता है कि भले लोग समाज सेवा में सक्रिय नहीं हो रहे इसलिये जिन लोगों को अपने अंदर सामर्थ्य अनुभव हो उनहें सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होना चाहिये बिना इस बात की परवाह किये कि भले लोगों के लिये सफलता संदिग्ध है।
-------------------------कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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2 comments:
आईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !
आचार्य जी
यही कारण है कि अनेक बुजुर्ग कभी पुराने राजाओं तो कभी अंग्रेज शासन को याद करते हैं। ऐसे में नये राजाओ में जो अर्थशास्त्र, प्रबंध तथा अध्यात्म की विधा में पारंगत हैं वही कुशलता से काम करन जनता का भला कर पाते हैं।
" आज बहुत दिनों पर इस ब्लॉग पर आना हुआ. बहुत रोचक लगा ये आलेख....."
regards
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