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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/1/10

ऊंचे लोगों की पसंद कितनी ऊंची-हिन्दी व्यंग्य (oonche log, oonchi pasand-hindi vyangya)

अब ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को देखने का हमारा नज़रिया वैसा नहीं रहा जैसे पहले था। जिस तरह ऊंचे ऊंचे लोग अब जेलों में जा रहे हैं उसके बाद तो लगता है कि ऐसी ऊंचाईयों से गिरने के भी बहुत सारे खतरे हैं।
जब हम छोटे थे तो ऊंचे ऊंचे सपने देखते थे जिनमें हमें अपने भविष्य के दो ही रूप दिखते थे-एक आकर्षक पूंजीपति का या किसी बड़े दमदार पदाधिकारी का। अपने शुरुआती दिनों में हमने एक मजदूर की तरह जिंदगी गुजारना भी इसलिये स्वीकार किया कि आगे चलकर हमें बड़ा बनना है। एक निजी दुकान पर नौकरी की जहां ठेला भी चलाना पड़ा। तब आठवी पास की थी और हमारी नानी घर आकर कहती थी कि कुछ काम धंध करना सीखो। यह पढ़ाई किसी काम नहंी आयेगी। आजकल बेरोजगारी बहुत है।
वह ऐसे ऐसे उदाहरण सुनाती थी कि जिसमें नौकरी करने वाले सेठ और मजदूरी करने वाली पूंजीपति बन गये। पिताजी भी सोचते थे कि लड़का जवान हो रहा है पर वह ऐसी वैसी नौकरी नहीं करने देना चाहते थे जिससे उनके सेठ की छबि को आघात पहुंचे। वह भाईयों के साथ दुकान पर साझेदार थे और वहां हमारे लिये कोई काम नहीं था। दुकान रेडीमेड की थी और वहां जाते तो फिर काज बटन और सिलाई के लिये सामान देने के लिए उन महिलाओं के घर धूप में साइकिल पर जाना पड़ता था जो बाद में सिलकर दुकान पर दे जाती थी। प्रंत्यक्ष उससे कोई लाभ नहीं था पर पिताजी की मेहनत बच जाती थी। हमारी नानी एक तो पिताजी की भाईयों से साझेदारी से नाराज थी तो फिर हमारी निरर्थक मेहनत के समाचार भी उनको विचलित करते थे।

बहरहाल हमने नौकरी की। वहां ठेला चलाना पड़ता है यह बात पिताजी से छिपाई। सोचा कभी न कभी तो ऊंचे बनेंगे। सोचते थे कोई चाणक्य मिलेगा जो चंद्रगुप्त बना देगा। धीरे धीरे यह आभास हो गया कि यह केवल ख्वाब हैं जो कभी पूरा नहीं होगा। तब लेखक बनने की ठानी-यह मालुम था कि इससे रोजगार नहंी मिलेगा पर दिल को अपने ऊंचे होने का अहसास पालने के लिये यह एक बढ़िया रास्ता दिखाई दिया। अपने संघर्ष के दिनों में भी कविताई करते थे। फिर भी कभी कभी ख्याल आता था कि ऊंचे आदमी कैसे बने।
अब लगता है कि ऐसा सोचकर हमने अपने आपके ख्वामख्वाह मानसिक तकलीफ दी कि हम स्वयं ऊंचे आदमी नहीं हैं। सच तो यह है कि प्रारंभ से ही हमें कोई अपराध करने से डर लगता है। बाद में यह अनुभव हो गया कि बिना बेईमानी, चालाकी, छल फरेब और धोखेबाजी के अलावा दूसरा कोई मार्ग ऊंचे आदमी बनने का नहीं है। बाद में स्थिति तो यह हो गयी कि कोई ऊंचे ओहदे और धनी आदमी से सामना हो भी जाये तो हमारी नज़र में वह सामान्य ही रहता था। तय बात है कि इससे चाटुकारिता का गुण नहीं आया। अलबत्ता सुरक्षा की दृष्टि से हमने दूसरों की सच्चाईयों का बयान उसके सामने करना बंद कर दिया और हास्य व्यंग्य की राह पकड़ ली। जब लिखने लगे तो ज्ञान चक्षु भी खुलने लगे। लोगों का दोगलापन सामने साफ दिखाइ्रे देता है। फिर भी ऊंचे आदमी न बन पाने का मलाल कभी कभी तो होता ही रहा।
भला हो उन महानुभावों का जो अब ऊंचे लोगों को जेल की राह पहुंचाने लगे हैं। उस दिन एक आदमी दूसरे को डरा रहा था कि ‘अरे, ऐसा न करना! कोई केस हो जायेगा तो जेल जाओगे।’
दूसरे ने हंसकर कहा-‘अरे, चिंता की बात नहीं है। जेल जाने के डर से पहले घबड़ाता था कि घटिया लोगों के बीच रहना पड़ेगा। अब तो देख लिया है कि बड़े बड़े सभ्य दिखने वाले लोग भी वहां जाने लगे हैं। इसलिये चिंता की बात नहीं है।’
आजकल तो रोज ऊंचे और बड़े लोगों के किस्से सामने आ रहे हैं-इनमें अधिकतर धन के बोझ तले दबे हुए हैं। रकम सुनकर तो हम जैसे लोग संख्या भी याद नहीं कर पाते। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जेल जाने वालों में गरीब और निम्न वर्ग के लोगों के नाम होते थे। आजकल तो हालत ही दूसरे हैं।’
एक गुटका का-इसे हम जहरीली पुड़िया भी कह सकते हैं-विज्ञापन आता है। उसमें एक आदमी को बंदरगाह पर उसकी पेटी चेक करने के लिये रोका जाता है। वह पुड़िया निकालकर कहता है कि ‘हम यहां भी खिलाते हैं, वहां भी खिलाते हैं।’
इस विज्ञापन की कल्पनाशीलता धन्य है। इस ‘खिलाते पिलाते’ में यह बात सामने आ जाती है कि यहां भी ‘ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद’ है तो बाहर भी है। ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद क्या है? धन इतना कि उसका बोझ नहंी उठाया जा सके। सोना इतना कि पीढ़ियां पहनकर पहनकर थक जाये।
अंग्रेजी विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ का एक कथन हमने कहंी पढ़ा था कि बिना बेईमानी के केाई अमीर नहंी बन सकता। तब हमारे देश के आर्थिक हालात ऐसे नहंी थे भले ही अमीर इसी तरह बनते होंगे पर प्रचारित नहीं होता था। फिर हमारी नज़र में अंग्रेजों की छबि भी इस तरह बना दी गयी थी कि वहां तो सब ईमानदार है क्योंकि गोरे हैं।
उनकी शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक पद्धतियों पर यह देश तो पहले ही चल पढ़ा था इसलिये जार्ज बर्नाड शॉ का यह कथन हमें अपने देश में चलता दिखाई देता है।
अभी हाल ही में पाकिस्तान में तैनात भारत की एक बी श्रेणी की महिला कर्मचारी के देश के साथ गद्दारी करने का प्रसंग सामने आया है। वह अपने देश के ऊंचे अफसरों से बदला लेने के लिये गद्दार बन गयी। वह जासूस बनना चाहती थी क्योंकि उसे ऊंचा दिखना था। अब वह भी जेल पहुंच गयी। उसकी बुद्धि पर तरस आता है। दरअसल वह जिनको ऊंचा समझती रही होगी वह भी अपनी दृष्टि में स्वय ऊंचे रहे होंगे इसमें संदेह है। हालत यह है कि ऊंचे पर पर आदमी तो पहुंच जाता है पर चरित्र उसका लघु रह जाता है। जब चरित्र में कमी हो तो फंसने का भय ऊंचाई के सुख और स्वाभिमान का अहसास नहीं करने देता। यही कारण है कि ऊंचे लोगों की पसंद कितनी भी ऊंची हो पर उनके कृत्य ऊंचे नहीं है-भले ही प्रचार माध्यम उनका कितना भी बखान करते हैं। इस तरह ऊंचे ऊंचे बनते आदमी जेल पहुंच जाये तो क्या कहेंगे? ज्ञान चक्षु खुले होकर रखें तो कोई आदमी ऊंचा या नीचा नहीं दिखाई देता। मुख्य बात है व्यवहार और चरित्र।
ऊंचा आदमी वह है जो अपने निम्न पर कृपा करे और उसका व्यवहार में शुद्धता हो। बरगद का पेड़ छाया देता हुए झुक जाता है या कहें कि झुकता है इसलिये दूसरों को आसरा देना वाला होता है। खजूर का पेड़ अकड़कर तना रहता है तो कौन उसका आसरा लेगा। यहां अब बरगद के पेड़ नहीं खजूरों से भरा हुआ चमन है। ऐसे में आपकी अगर छबि भले आदमी की है तो बहुत समझ लीजिये। आप किसी का छोटा काम करके भी धन्य हो सकते हैं पर आज के ऊंचे लोगों के पास न तो समय है न इच्छा। उनका एक ही लक्ष्य है धन और सोना एकत्रित करना। ऐसे में अपने परिश्रम से जितना मिले उसी में खुश रहना चाहिये। एक बात यहां बता दें कि आदमी में कमी उसके चरित्र में ही होती है तभी वह किसी का शिकार बनता है। ऐसे में ऊंचे आदमी बनने का मोह न ही पालें तो अच्छा। यह बात समझ लें कि आदमी सिर्फ आदमी होता है। माया में रूप में पद, प्रतिष्ठा तथा पैसे के शिखर सभी को नसीब नहीं होते और जिनको होते हैं उनके लिये खतरे बहुत होते हैं क्योंकि उसके चालाकियां भी उतनी करनी पड़ती हैं। कालांतर में वह अपराध में बदल जाती है और उसकी कभी न कभी सजा आती है। इसलिये दूसरे की दृष्टि में ऊंचा दिखने की इच्छा से अपनी दृष्टि में अपने ऊंचे होने का स्वाभिमान पालें। ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद उनको फंसा भी डालती है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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1 comment:

honesty project democracy said...

आपका सोच अत्यंत ही सराहनीय है / आप अपने सोच को चाहे वह कविता,कहानी या लेख कुछ भी क्यों न हो ,उसके जरिये देश और समाज में सार्थक बदलाव लाने की कोशिस जरूर कीजिये /आपके इस बिचारोत्तेजक रचना के लिए आपका धन्यवाद /

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