आखिर कुछ कथित पवित्र लोग धर्म प्रचार क्यों करते हैं? यह समझ में नहीं आता! धर्म का संबंध निज आचरण से है। सामान्यतः दूसरे पर दया करना, मीठी वाणी में सभी से चर्चा करना तथा सभी के प्रति समान भाव रखने के साथ ही सर्वशक्तिमान की भक्ति तथा उसके गुणों की पर विचार करना ही धार्मिक आचरण की परिधि में आता है। जब धर्म अपने आचरण से दृश्यव्य है तो फिर उसे दूसरे लोगों को बताने की आवश्यकता क्या है? सामान्य मनुष्य की चिंतन क्षमता कम होती है क्योंकि वह अपनी दिनचर्या में लिप्त रहता है पर उसकी चेतना मृत नही होती। किसी अच्छे व्यक्ति से मिलने पर उसके अंदर सकारात्मक भाव पैदा होता है तो निम्न कोटि का व्यक्ति उसके अंदर नकारात्मक विचार पैदा कर देता है। तब सवाल यह उठता है कि कथित पवित्र लोग अपने आचरण से अपने प्रमाणि करने की बजाय किसी धर्म का नाम लेकर प्रचार क्यों करते हैं?
स्पष्टतः धर्म प्रचार ऐसे लोग करते हैं जिनका आचरण दृश्यव्य नहीं है या वह उसे दिखाना नहीं चाहते क्योंकि वह स्वयं किसी सांसरिक क्रिया में दैहिक रूप से लिप्त नहीं होते पर उनका मन उसमें बिंधा रहता है। अगर उनका आचरण दृश्यव्य हो जाये तो शायद ही कोई उनकी धर्म सभाओं में जाये। फिर जिनको धर्म प्रचार का काम सौंपा जाता है उनको सांसरिक कार्य से प्रत्यक्षः मुक्ति दी जाती है या वह ले लेते हैं। जब आदमी सांसरिक कर्म करता है तो कुछ न कुछ ऊंच नीच होता रहता है ऐसे में धर्म प्रचारक की छबि पर दाग का खतरा बना जाता है यही कारण है कि हर धर्म प्रचारक सर्वशक्तिमान के अपने कथित रूप के नाम से बने दरबार में ही आवास बनाते हैं। उनके आवास सामान्य नहीं महलों की तरह होते हैं। अनेक जगह उनको राज्य से करों में रियायत के साथ ही कानूनी संरक्षण भी मिलता है। एक तरह से धर्म प्रचारक तथा उनके आवास समाज से पृथक एक अलग समाज बना लेते है। उनका दायरा बहुत सीमित होता है पर अपने अपने सर्वशक्तिमान के रूपों को मानने वाले भक्तों को अपना ही स्थाई अनुयायी मान लेते हैं तब उनकी शाक्ति विशाल लगती है जो केवल एक प्रचार भ्रम है।
उनका दावा होता है कि ‘हमारे इतने लोग हैं। हमारे सर्वशक्तिमान के स्वरूप को मानने वालों की संख्या बढ़ रही है। हमारी विचारधारा के लोगों की संख्या बहुत अधिक हो रही है।
इधर सर्वशक्तिमान के विभिन्न रूपों को मानने वाले लोगों के मन की थाह लें तो इन धर्मप्रचारकों की वहां कोई औकात नहीं दिखती। मगर राज्य और समाज के शिखर पुरुष अपनी ताकत बनाये रखने के लिये इन्हीं धर्म प्रचारकों को भीड़ पर नियंत्रित करने का ठेका देते हैं ताकि आम इंसान किसी प्रकार की विद्रोहात्मक स्थिति न पैदा करे।
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निरंकार है। वह एक है कि अनेक! वह गोरा है या काला! लंबा है या नाटा! वह सुंदर है या असुंदर! इस विषय में प्रमाणिक रूप से कोई नहीं जानता। साफ कहें तो वह तो अनंत है! मतलब यह कि धर्म प्रचारकों का यह कहना कि वह एक है अपने आप में ही उनके अज्ञान का प्रमाण है। ऐसे में लंबी चौड़ी बहसें होती हैं। कहीं झगड़े होते हैं तो कहंी एकता के लिये अभियान चलते हैं। इस तरह धर्म प्रचारक आम इंसानों की भीड़ की मानसिक रूप से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इसके लिये उनको राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों के -फिल्म, खेल, कला तथा धार्मिक-शिखर पुरुषों से संरक्षण मिलता है। वह सर्वशक्तिमान के बाद इस धरती पर दूसरी बड़ी शक्ति होने का दावा करते हुए कहते हैं कि ‘हम धर्म प्रचारक हैं।’’
धर्म प्रचार आज से नहीं बरसों से एक व्यवसाय है। मुश्किल यह है कि हर जीव एक ऐसी देह है जिसे आत्मा धारण करती है और मनुष्य में बुद्धि कुछ अधिक है इसलिये वह सब कुछ पाकर भी शांत नहीं बैठता और उसे अध्यात्मिक शंाति की आवश्यकता पड़ती है और यह धर्म प्रचारक उसे अपने अपने हिसाब से प्रवचन देखकर शांत करना चाहते हैं और वह इनके जाल में फंसता है।
अध्यात्म यानि क्या? अध्यात्म वही आत्मा है जिसे इस देह ने धारण किया है। फिर उसे हम केवल आत्मा क्यों नहीं कहते। आत्मा का अगर स्थिर भाव हो तो उसे आत्मा कहा जाये पर उसके भाव का विस्तार होता है इसलिये उसके साथ अधि शब्द जोड़ा जाता है। यह आत्मा कुछ ऐसा देखना चाहता है जो कोई नहंी देख पाता, वह ऐसी चीज पाना चाहता है जिसे कोई नहीं पा सकता। वह ऐसा कुछ करना चाहता है जो कोई नहंी करना चाहता। वह शांति और सुख का सर्वोच्च शिखर छूना चाहता है जो केवल परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान से ही संभव है। यहीं से शुरु होती है धर्म प्रचारकों की धांधलियां। वह सामान्य जन में भ्रम पैदा करते हैं ताकि उसका अध्यात्म भाव उनका बंधक हो जाये।
किसी गरीब को देखेंगे तो कहेंगे कि ‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान सब देगा।’
किसी बीमार को देखेंगे तो कहेंगे-‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान बीमारी ठीक कर देगा।’
किसी परेशान को देखेंगे तो कहेंगे कि-‘विश्वास करो कि सर्वशक्तिमान सब समस्या हल कर देगा।’’
इस देह में फंसे मन को वह गोल गोल इस देह के आसपास ही घुमाते हैं। आदमी की बुद्धि के केंद्र में स्थापित देह के मोह का वह बहुत सटीक इस्तेमाल करते हैं।
यह धर्म प्रचारक अव्वल दर्जे के अज्ञानी और लालची हैं-उनको मूर्ख कहना ठीक नहीं क्योंकि वह तो आम इंसान को मूर्ख बनाते हैं। सांसरिक कर्म में जो कोई अपना स्थापित नहीं कर पाता वह धर्म प्रचारक बन जाता है।
जब कोई आदमी अपने धर्म प्रचारक होने का दावा करे तो समझ लीजिए कि वह व्यापार कर रहा है। दरअसल हमें अपने मन की शांति के लिए अध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता होती है न कि धर्म के नाम पर मनोरंजन की। इस संसार में जो समस्यायें हैं वह भौतिकता की वजह से हैं। देह है तो बहुत सारी परेशानियां रहेंगी। अगर कोई मर गया तो वह मर गया पर उसको स्वर्ग दिलाने के लिये कर्मकांडों के नाम पर खर्च करने से भी परेशानी होती है मगर लोग करते हैं यह सोचकर कि न करने पर समाज आक्षेप करेगा। दूसरे लोग कहेंगे कि ‘बड़ा अधर्मी आदमी है अपने मरे हुए आत्मीय को स्वर्ग नहीं भिजवा रहा। खर्च से डरता है।’
इस तरह कर्मकांडों से धर्म को जोड़ा गया है जबकि सच यह है कि इनका उस अध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है जो हमारा आधार है। दुनियां में बहुत सारे धर्म हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान की खान केवल भारतीय दर्शन में ही है जो संसार के आवश्यक कर्म करते हुए शांति और सफलता से जीवन जीने की राह दिखाता है। वह केवल अध्ययन, मनन और चिंतन से प्राप्त होता है और उसके लिये चाहिए एकांत! शोरशराबे में ज्ञान केवल चीख बनकर रह जाता है। फिर ज्ञान के लिये गुरु के पास जाना पड़ता है। ऐसा गुरु ढूंढना पड़ता है जो ज्ञान बेचने की बजाय उसके आधार पर अपना जीवन निर्वाह करते हुए संसारिक कार्य में निर्लिप्त भाव से से रहता है न कि धर्म प्रचारक बनकर अपने लिये शिष्य ढूंढता है। जब शिक्षित नहीं थे तब संत लोग ज्ञान बांटते थे पर जब अक्षर ज्ञान बढ़ गया है तब यही काम श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही कबीर, रहीम, तुलसी, मीरा तथा अन्य महान संतों की वाणी का अध्ययन कर किया जा सकता है। उसके लिये किसी पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है। एक बात याद रखें अपना ज्ञान तब तक दूसरे को न सुनायें जब तक वह इसके लिये आग्रह न करें क्योंकि एसा करते हुए धीरे धीरे उन धर्म प्रचारकों की श्रेणी में आ जायेंगे जो से कोरे हैं और धार्मिक कर्मकांडों को ही स्वर्ग का रास्ता बताते हैं और मोक्ष के नाम से तो उनको भय लगने लगता है।
------------कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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