अगर समाचार पत्र पत्रिकाओं के पत्रकार यह सोचते हैं कि उनके समाचार या लेखों में देवनागरी में अंग्रेजी शीर्षक-जैसे ‘टाईम ऑफ न्यू जनरेशन,’ यूजर्स ऑफ इंटरनेट‘ या ‘न्यू टाईप ड्राइंग रूम’-लिखने से पाठक आकर्षित होता है तो गलतफहमी में हैं। एक नहीं अनेक समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि आजकल के नये शिक्षित युवा ही उनके पाठक हैं और देवनागरी लिपि में अंग्रेजी शीर्षक लिखकर उनको प्रभावित करेंगे तो यह उनकी गलतफहमी के अलावा अन्य कुछ नहीं है। उन्हें इसके दुष्प्रभाव का अनुमान नहीं है क्योंकि इससे हिन्दी समाचार पत्रों के नियमित पाठक के मन में जो वितृष्णा का भाव आता है उसने हिन्दी अखबारों का महत्व कम ही किया है। दूसरी गलतफहमी उनकी यह है कि वह जैसी हिन्दी लिखेंगे वैसी ही समाज का हिस्सा बन जायेगी। उनको शायद अंदाज नहीं है कि उनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग तो हिन्दू संतों की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं से जुड़ गया है और उनकी ताकत इतनी बड़ी है कि वह दैनिक समाचार पत्र पत्रिकाओं के अपने विरुद्ध होने वाले प्रचारात्मक हमलों की परवाह ही नहीं करते। इसमें संत प्रवर आसाराम बापू की ऋषि प्रसाद एक प्रमुख पत्रिका है। जब समाचार पत्र पत्रिकाओं की हिन्दी को देखते हैं और बाद में जब इन पत्रिकाओं को देखने का अवसर मिलता है तो कहना पड़ता ही है कि हिन्दी की ध्वज वाहक तो ऐसी ही पत्रिकाऐं हैं।
हिन्दी पाठक को बीच में मिलने वाले अंग्रेजी वाक्य व्यवधान पैदा करते हैं यह बात वही आदमी समझ सकता है जो खुद लिखने के साथ ही पढ़ता है। देश भर के कुछ अखबार अगर अंग्रेजी शीर्षकों के सहारे पाठक जुटाने का प्रयास कर रहे हैं तो यह मानना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले पढ़ना नहीं जानते। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी दुर्लभ आकर्षक छबि का शिकार देश के लेखन कर्मी हो गये हैं। उनको अंग्रेजी पूरी तरह से आती नहीं और आती है तो अंग्रेजी प्रकाशन संस्थाओं में उनको काम नहीं मिलता। हिन्दी प्रकाशन में काम मिलता है तो अपने को बुद्धिमान साबित करने के लिये अंग्रेजी शीर्षकों का उपयोग करते हैं। यकीनन वह अंग्रेजी के आड़ में अपने हाथ से लिखे जा रहे विषय के प्रति उनके अल्पज्ञान तथा प्रस्तुतीकरण में आत्मविश्वास की कमी साफ दिखाई देंती है।
यह आत्मविश्वास की कमी शायद इसलिये भी हो सकती है क्योंकि प्रकाशन जगत में गलाकाट प्रतियोगिता होने के कारण समाचार पत्र पत्रिकाओं के दाम आज भी बहुत कम हैं और यकीनन वह केवल पाठकों के सहारे जिंदा नहीं है बल्कि विज्ञापनों के आय से ही उनका काम चलता है। ऐसे में समाचार पत्र पत्रिकाओं के कार्यरत लेखन कर्मियों को इस बात का आभास है कि उनकी कलम में कोई व्यवसायिक शक्ति नहीं है। शायद इसी कारण वह ऐसे में किसी प्रकार भी हिन्दी से अपनी रोटी कमाने तक ही उनका लक्ष्य है और उसके स्वरूप बचाने का फिक्र उनमें नज़र नहीं आती।
कुछ लोगों को लगता है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं की वजह से भाषा में बिगाड़ आयेगा तो वह भी शायद गलत ही है क्योंकि हम जब अध्यात्म पत्र पत्रिकाऐं तथा पाठकों के साथ उसका जुड़ाव देखते हैं तो लगता है कि हिन्दी भाषा का सतत प्रवाह बनाये रखने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रहेगा।
इस संदर्भ में हम गायत्री पीठ की अखण्ड ज्योति का भी नाम ले सकते हैं तो गोरखपुर के प्रकाशनों को भी नहीं भुलाया जा सकता है। सच बात तो यह है कि हिन्दी अध्यात्म और उसके ज्ञान की भाषा है और समाचार या सामयिक आलेखों में अंग्रेजी का इस तरह इस्तेमाल से उनका प्रभाव ही कम होता है और उनसे भाषा के क्षरण आशंका निर्मूल इसलिये लगती है क्योंकि आज हम अपने देश में हमेशा ही हिन्दी पाठकों का झुकाव अध्यात्म की तरफ रहा है और जब उनसे संबंधित पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ रहा है और समाचार पत्र पत्रिकाऐं हिन्दी से प्रतिबद्धता छोड़कर अपना ही महत्व खो रहे हैं।
दरअसल हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाऐं फिल्मों से बहुत प्रभावित लगते हैं जिनमें आधी अंग्रेजी होती है पर उनको शायद इस बात का अंदाज नहीं कि उससे अधिक व्यापक दायरा तो उनका खुद का है। फिल्में देखने वालों से ज्यादा संख्या अखबार पढ़ने वालों की है और हिन्दी का पाठक इस तरह के अंग्रेजी के इस्तेमाल से नाराज ही हो सकता है।
हम आसाराम बापू के ऋषि प्रसाद की बात करें तो इस बात का अंदाज लग जाता है कि वह पत्रिका उनकी बहुत बड़ी ताकत है। उनके विरुद्ध पूरा प्रचार जगत मोर्चा खोलकर खड़ा रहता है पर वह उसका प्रतिकार वह अपनी इस पत्रिका से करते हैं। जब उनके विरुद्ध कोई बड़ी खबर आती है तो अनेक लोग ‘ऋषि प्रसाद’ का इंतजार करते हैं। जब संत आसाराम जी पर प्रचार के रूप में प्रहार होता है तो ऋषि प्रसाद में प्रतिवाद आता है तो उनके शिष्य सहमत हो जाते हैं। देखा जाये तो संत आसाराम धार्मिक शिखर पुरुष हैं और प्रचार जगत के अनेक शिखर पुरुषों से उनका द्वंद्व चल रहा है पर उसमें अकेले ऋषि प्रसाद से ही वह उनके हमले बेकार कर देते हैं। बड़ों की लड़ाई में हम जैसे छोटे लेखकों की कोई बिसात नहीं है पर हिन्दी के पाठक के रूप में हम यह तो कह ही सकते हैं कि भाषा की दृष्टि से तो उनकी ऋषि प्रसाद ही अच्छी है। महत्वपूर्ण बात यह कि वह अंततः वह भारतीय अध्यात्म का ही वह प्रचार भी करती है।
हम यहां किसी के चरित्र या आरोप के समर्थन या विरोध में नहीं खड़े हैं बल्कि भाषा की दृष्टि से यह बात कह रहे हैं कि हिन्दी भाषा से जुड़े कर्मियों को कई प्रकार की गलतफहमियां निकाल देनी चाहिए। वह भाषा के साथ खिलवाड़ कर सफलता का गुमान न पालें। हिन्दी का पाठक अपनी भाषा से प्रेम करता है और अध्यात्म के प्रति उसका झुकाव विश्व प्रसिद्ध है ऐसे में अगर हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशन जगत हिन्दी से खिलवाड़ कर रहा है तो यह अध्यात्मिक पत्रिकायें उनकी जगह ले रही हैं। कम से कम उसमें पढ़ते हुए भाषाई व्यवधान तो नहीं होता जो कि इन पत्र पत्रिकाओं में होता है। यह बात उनको समझ लेना चाहिए कि व्यवसायिक प्रकाशक हिन्दी से प्रतिबद्धता नहीं रख सकते तो पाठक भी उनके प्रति सद्भाव नहीं दिखा सकता।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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