इस लेखक का दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका नामक ब्लाग दो लाख की पाठक/पाठ पाठन संख्या पार कर गया। यह ब्लाग गूगल की पैज रैंक में 4 तथा शाईनी स्टेटस में 15 की रैंक में है। जब हम अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की बात करते हैं तो अपना स्तर भी देखना होता है। जब स्तर देखते हैं तो अनेक बार ऐसा लगता है कि अनेक रचनाऐं स्तर से कमतर हो गयी हैं तो कुछ रचनायें ऐसी भी हैं जो उत्कृष्ट बन जाती हैं। इसके पीछे कारण यह है कि जब कोई विषय मस्तिष्क में सामने आता है तब उस समय लिखते समय अपनी मनस्थिति जो होती है वही रचना का स्तर निर्माण करती है। यहां कोई आर्थिक लाभ नहीं है और स्वप्रेरणा की शक्ति से ही लिखना पड़ता है। न ही कोई प्रोत्साहन है न ही कोई पीछे प्रायोजित समह है ऐसे में स्वांत सुखाय लिखने का आनंद उठाना ही एक मात्र ध्येय है। अपने प्रयोजक लेखक, संपादक तथा प्रकाशक स्वयं बन जाते हैं या कहें कि स्वयंभू हैं। हालांकि यह स्थिति आत्मुग्धता की है पर इसके बिना लिखना भी मुश्किल है।
एक बात निश्चित रूप से अनुभव की है कि आधुनिकता से ऊबा समाज हास्य व्यंग्य तथा कविताओं में बहुत रुचि ले रहा है। दूसरा यह भी कि अध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान भी बढ़ रहा है। ऐसे में निराशा से भरे पात्रों वाली कहानियां, उबा देने वाली कवितायें तथा विवादास्पद विषयों पर लेख लिखने से अधिक पाठक नहीं मिलते। हैरानी की बात यह है कि बड़े लेख बिना पढ़े रह जाते हैं और चार पंक्तियों की क्षणिकायें टिप्पणियां, पाठक तथा प्रशंसा जुटा लेती हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि दिमाग मेें कोई क्षणिका आने के बाद ब्लाग पर लिख लेते हैं तब लगता है कि इस छोटी रचना को देखकर आदमी टालू लेखक या कवि न समझ लें इसलिये दूसरी बड़ी कविता भी लिख देते हैं। इस लेखक ने कभी हास्य कविता नहीं लिखी थी न एक रचनाकार के रूप में लोगों के बीच छबि है। आश्चर्यजनक यह कि अध्यात्मिक लेखों के बाद उनकी वजह से ही अंतर्जाल पर लोकप्रियता मिल रही है। बहरहाल अभी भी अंतर्जाल पर हिन्दी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हम चार साल में एक ब्लाग पर दो लाख पाठक आने को बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं मान सकते पर दूसरा इसका यह भी एक पहलू है कि निजी ब्लाग लेखकों को पाठक जुटाने के लिये कोई प्रायोजन नहीं मिलता। अनेक समाचार पत्र पत्रिकाओं ने इंटरनेट पर अपने प्रकाशन की बेवसाईटें बना ली हैं और उनका नाम होने की वजह से पाठक भी उनको मिल जाते हैं। एक ब्लाग लेखक वह भी हिन्दी का हो तो उसके लिये अपना मार्ग स्वयं ही बनाना अनिवार्य है किसी अन्य से अपेक्षा करना बेकार है।
एक पाठक ने एक कविता पर गंभीर टिप्पणी की थी। कविता बेकार थी और ऐसा लग रहा था कि वह नाराज है। पढ़ते पढ़ते जब आखिर में पहुंचे तो उसने यह भी लिख दिया है कि साधुवाद, आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं।’
सच कहें तो अपनी वह कविता स्वयं को ही कोई उत्कृष्ट नहीं लग रही थी। निकृष्ट भी कहें तो शर्म नहीं आती क्योंकि इस मामले में अपना तो यहां सिद्धांत है कि हम बुरा लिखते हैं पर फिर भी कई लोगों की रचनाओं से कम बुरा होत है। मतलब यह कि हमारी दस पंक्तियों में एक दो पंक्ति तो बढ़िया हो ही जाती है मगर कई तो ऐसे हैं जो पचास लिखकर भी प्रभावित नहीं कर पाते। मतलब यह कि अंतर्जाल पर एकांत यात्रा में आत्ममुग्ध हुए बिना नहीं लिखा जा सकता। लिखते रहेंगे तो कुछ अच्छा भी आ ही जाता है और इस ब्लाग के मित्र ब्लाग लेखकों और प्रशंसक पाठकों को इस बात को याद रखना चाहिए कि हमारे ब्लागों में ऐसे कई गज़ब के लेख हैं कि यकीन नहीं होता कि हम लिख गये। कोई माने या माने धारा से अलग हटकर लिखने से अपना एक अलग पाठक वर्ग बन रहा है। लाखों में पाठक रोज नहीं आते पर जो आते हैं उससे यह सोचकर संतोष होता है कि हम अपनी बात समाज के सामने रख रहे हैं और कुछ लोग हैं जो हमारी बात सुनकर समझ रहे हैं। वरना चौराहे पर आकर चिल्लाने या छपने से फायदा भी क्या कि लोग पढ़े पर न समझें न प्रभावित हों। यह पाठ आत्ममुग्ध होकर नहीं लिखा गया बल्कि अपने ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को यह जानकारी बांटने के लिये लिखा गया है। आखिर उनकी प्रेरणा के बिना यह छोटा सफर भी कैसे पूरा होता?
लेखक एवं संपादक
दीपक भारतदीप,ग्वालियर
------------
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
No comments:
Post a Comment