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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/23/11

समाज की बदलती प्रवृत्ति से उपजा संकट-हिन्दी लेख (samaj ki badalti pravriti-hindi lekh)

जब दिसम्बर में अंतिम सप्ताह में सर्दी के बीच अचानक तेज बरसात लंबे समय तक हुई तभी इस बात का अंदेशा हो गया था कि इस बार शीत ऋतु कहर बरपा सकती है। मावठ की बरसात होती है पर इधर पिछले कई बरसों से उसका क्रम टूट गया था। बरसात भी इतनी देर हुई कि पिछली स्मृतियों में उसका इतिहास नहीं दर्ज मिलता। वैसे मावठ के दौरान ओले भी गिरते देखे है पर हमने ऐसा भी समय देखा कि जब दिसंबर में भी स्वेटर की जरुरत नहीं अनुभव होती है। उस समय कहा जाता है कि धरती पर गर्मी बढ़ रही है। मगर इस बार सर्दी ने आने से पहले ही कहर बरपाने का संकेत दिया।
हालत यह हो गयी कि जो मध्य भारत कम सर्दी वाला इलाका माना जाता है वहां कश्मीर की ठंडी हवाऐं बहकर आने लगी और उत्तर भारत के ठंडे शहरों से भी कम तापमान मध्य भारत में दर्ज किया गया। स्पष्टतः मौसम का यह संकेत यहां की फसलों के लिये अच्छा नहीं था। लगभग दस दिन तक कंपा देने वाली ऐसी सर्दी पड़ी कि हमने छत पर लगे लोहे के टट्टर को प्लास्टिक से ढक दिया। बाहर से अंदर आने वाली हवा को रोकने के लिये दरवाजों को बंद कर दिया। हीटर का उपयोग नहीं करते इसके लिये यही उपाय बेहतर साबित होना था। अंदर के कमरे लगभग इंटेसिव केयर यूनिट की तरह बना दिये जिसमें रात को शरण लेते रहे। ऐसे में यह चिंता होती थी कि जिनके पास रहने के लिये खुला आसमान है या पेट के कारण बाहर रहने की बाध्यता हो उनका क्या होगा?
इससे ज्यादा क्या सोच सकते थे। अलबत्ता फसलों के चौपट होने का खौफ था और वह जल्द समाचारों में दिखाई दिया। पाला पड़ने से अनेक किसान बर्बाद हो गये। फसलें चौपट होने के बाद किसान की स्थिति क्या होती है यह सभी जानते हैं। अभी तक महाराष्ट्र से ऐसे समाचार आते थे पर मध्य प्रदेश में इसकी शुरुआत हो गयी है।
मगर क्या इस तरह की आत्महत्याओं को केवल फसलों के चौपट होने का परिणाम ही माना जाये या उसके आने पर लिये गये कर्जे चुकाने की संभावना समाप्त होने से हुई निराशा से जोड़ा जाये? यह भी एक विचारणीय मुद्दा है। अर्थशास्त्र में भारतीय कृषि की समस्याओं में दो सबसे बड़ी मानी जाती है। एक मानसून पर ही आधारित होना दूसरा किसानों रूढ़िवादिता। सिंचाई के साधन हमारे देश में बहुत कम है इसलिये मानसून के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता मगर जब हम रूढ़िवादिता की बात करते हैं तो उसमें चर्चा की गुंजायश है। एक रूढ़िवादिता तो यह मानी जाती है कि भारतीय किसान अभी भी पुरानी पद्धति से खेती कर रहे हैं जिससे उत्पादन कम होता है। इसमें अब देखने में आ रहा है कि भारतीय कृषक अधिक फसल के लिये तमाम तरह के उपाय करने लगे हैं। उस दिन तो यह सुनने में आया कि किसान आलू की फसल को बढ़ाने के लिये उसमें शराब छिड़क रहे हैं। कीटनाशकों के उपयोग की जानकारी भी आती है। ऐसे में पूरे भारत तो नहीं पर एक बहुत बड़े भाग के किसान अब आधुनिक प्रचार माध्यमों से नई तकनीकी से अवगत हो रहे हैं मगर सामाजिक रूढ़ियों के बंधन उनके लिये अब भी वैसे हैं जिससे वह मुक्त नहीं होना चाहते। खासतौर से गमी में तेरहवीं और शादी के अवसर पर होने वाले खर्चों से वह बचना नहीं चाहते। एक बात याद रखनी चाहिए कि किसान भी दो तरह के हैं। एक तो जो स्वयं जमीन के स्वामी हैं और दूसरे वह जो मजदूर हैं। खेतिहर मजदूरों की एक बहुत बड़ी जमात है जो फसल बोने और काटने के लिये भूस्वामियों के पास आते हैं। ऐसे में जब फसल नष्ट हो जाती है तो वह कहीं अन्यत्र रोजगार ढूंढ लेते हैं। शहरों में कई ऐसे मज़दूर हैं जो फसलों के अवसर पर अपने गांव जाते हैं। इन भूमिहीन किसानों में शायद ही कोई फसल नष्ट होने पर आत्महत्या करता हो क्योंकि उनके पास सामाजिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिये पैसे खर्च करने के लिये नहीं होते। फिर गरीब होने के कारण वह कथित सामाजिक संस्कारों का निर्वाह अपने अनुसार धन की उपलब्धता के आधार पर करते हैं पर भूमिस्वामी किसान पहले ही अपनी फसल के अनुमान पर ऐसे खर्चे ऋण लेकर करता है जिनसे वह बच सकता है और सामाजिक प्रतिष्ठा का मोह त्यागकर जीवन बिताये। भूमि होने का अहंकार कहें या अतिआत्मविश्वास फसल बर्बाद होने पर भारी संकट का कारण बन जाता है।
आजकल शादियों का मौसम है। राजमार्ग पर अनेक ऐसे ट्रेक्टर दहेज के सामान से लदकर जाते देखे जा सकते हैं। स्पष्टतः वह गांवों से आते जाते हैं जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि वह गांव फसल चौपट होने के प्रकोप से बचे हुए हैं या फिर कर्ज लेकर विवाह हुआ है। ट्रेक्टर में कूलर, पलंग, फ्रिज, मोटर साइकिल जैसे सामान देखकर यह यकीन करना कठिन होता है कि देश के भूमिस्वामी किसान गरीब भी हो सकते हैं।
देश में महंगाई असाधारण रूप से बढ़ रही है पर उसका प्रभाव शादी विवाह तथा गमी में तेरहवीं के अवसर पर नहीं दिखाई दे रहा है। वैसे यह कहा जा सकता है कि जो करते हैं उनकी सक्रियता दिखती है और जो नहीं करते उनकी निष्क्रियता की चर्चा नहीं हो सकती। ऐसे में तो यह माना जा सकता है कि हमारा समाज दो भागों में बंट गया है। एक जो धन के प्रभाव से अतिसक्रिय है दूसरा वह जो उदासीन हो गया है क्योंकि उसके पास धन नहीं है। हम समाज के सक्रिय तत्वों को देखकर यह नहीं मान सकते कि सब ठीक ठाक है।
आखिरी बात यह कि कहा जाता है कि भारत अपने अध्यात्म के प्रभाव के कारण शाक्तिशाली मानसिकता वाले लोगों का देश है जहां आत्महत्या करने वालों की संख्या नगण्य है मगर पाश्चात्य संस्कृति ने अपने पांव गांव गांव तक फैला दिये। आधुनिक सुविधाजनक साधनों के उपयोग की प्रवृत्ति वहां भी पनपी है। स्पष्टतः अनुत्पादक कार्यों में किसान हो या व्यापारी उसका व्यय बढ़ गया है। ऐसे में कृषि तथा व्यापार के लिये ऋण लेने वाले लोग अपने व्यवसाय से इत्तर व्यय कर अपने लिये संकट मोल लेते हैं। दरअसल बदले हुए समाज की बदली हुई प्रवृत्ति उसके लिये संकट बनती जा रही है। हम संस्कारों के नाम पर अपव्ययी संस्कार गले लगाकर भले ही संस्कारवान होने का दिखावा करें पर अंतिम सत्य यही है कि यह भौतिक संसार पैसे की जगह पैसे से ही काम चलने वाला है। ऐसे में चादर से पांव बाहर फैलाने वालों के लिये संकट बढ़ने वाला है। विशेषज्ञ इस बात को जानते हैं और यही कारण है कि कुछ लोगों ने इशारा कर दिया था कि पाला लगने से जिस तरह फसलें नष्ट हुई हैं उससे किसानों की आत्महत्या की घटनायें मध्य प्रदेश में भी होंगी।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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