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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/16/11

पहली बैठक में ही खोदे पहाड़ से निकला चूहा-अन्ना हज़ारे अन्ना हज़ारे के आंदोलन पर विशेष लेख (pahli baithk mein khode pahad se nikla chuha-special article on anna hazare moovment against corruption)

          अन्ना हजारे का अनशन बहुत चर्चित हुआ था। उनका जनलोकपाल बनाने के लिये कानून बनाने की मांग पर जोरदार चर्चा हुई थी। वैसे सरकारी तौर से लोकपाल विधेयक बनाने की तैयारी चल रही थी तो साथ ही दो नंबर के धनपतियों के विरुद्ध जांच एजेंसियों की कार्यवाही के समाचार भी जमकर आ रहे थे। भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक स्वयंसेवी संस्था का आंदोलन बाबा रामदेव का नाम लेकर जोरदार प्रचार पा रहा था। स्थिति यह हो गयी थी कि प्रचार माध्यम भ्रष्टाचार और दो नंबर के धन पर शोर मचा रहे थे।
          ऐसे में अवसर पाकर बीसीसीआई की टीम की कथित विश्व विजय से प्रेरित होकर महाराष्ट्र के समाजसेवी  अन्नाहजारे दिल्ली अनशन के लिये पधारे। उनका नाम भले ही भारत के बौद्धिक क्षेत्र में जाना जाता रहा है पर महाराष्ट्र के बाहर का आम आदमी उनको अधिक नहीं जानता था। इस अनशन से पूरे भारत में उनका प्रचार हुआ। वह दूसरे गांधी कहलाने लगे। उनकी मांग मानी गयी तो पूरे देश में जश्न मनाया गया।
लोकपाल बनाने के लिये पांच सदस्य जनता की तरफ से लिये गये जिनको अन्ना साहब ने मनोनीत किया। स्वयं अन्ना हजारे भी इसके सदस्य बने। अन्ना जी के पास कोई स्वयं का संगठन नहीं है इसलिये दिल्ली में सक्रिय ही स्वयंसेवी संगठन के चार लोग उन्होंने अपने साथ जनप्रतिनिधि के रूप में लिये। तय बात है कि इन चार सदस्यों की प्रतिबद्धताऐं अन्ना हजारे की तरह प्रमाणिक नहीं थी। कथित जनलोकपाल का प्रारूप भी इन लोगों ने ही बनाया था और शायद प्रचार की ताकत पाने के लिये उन्होंने अन्ना हजारे का उपयोग किया या वह ही एक बनी बनायी रणनीति का लाभ उठाने के लिये स्वयं ही प्रेरित हुए कहना कठिन हैं। इस तरह पांच सरकारी तथा पांच अन्ना साहेब के सदस्यों को मिलाकर कानून बनाने के लिये बनी दस सदस्यीय की पहली बैठक संपन्न हो गयी है।
           हमने शुरु में ही लिखा था कि अन्ना हजारे जी के आंदोलन को बहुत लंबी दूरी तय करनी है। अगर हम पहली बैठक का प्रचार देखें तो कहना पड़ता है कि पहली बैठक में खोदा पहाड़ निकली चुहिया। प्रचार माध्यामों ने अन्ना हजारे की तरफ से प्रचारित जनलोकपाल के लिये जो प्रारूप बताया था उसमें से ‘कुछ’ हटाया गया है। वही ‘कुछ’ हटाया गया है जिस पर यथास्थितिवादियों को आपत्ति थी।
         महत्वपूर्ण बात यह है कि हम देख रहे हैं सरकार भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जूझती दिख रही है। इधर न्यायालय भी भ्रष्टाचार पर भारी टिप्पणियां कर रहे हैं। सरकार लोकपाल कानून बनाने वाली थी तो अन्न हजारे जन लोकपाल बनाने की मांग लेकर सामने आ गये। ऐसा लगता है कि कथित स्वयंसेवी आंदोलनकारी संस्था अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि बचाये रखने के लिये अन्ना जी को ले आयी। लोकपाल का नामकरण ‘जनलोकपाल’ कर ही वह अपनी इज्जत बचा रही है। अभी तक यह नहीं पता चला कि सरकार के लोकपाल कानून तथा अन्ना हजारे के कल्पित जनलोकपाल के बीच अंतर क्या रहने वाला है?
         हम यहां सरकार के प्रस्तावित लोकपाल कानून से अधिक अन्ना हजारे के जनलोकपाल पर जानना चाहते हैं। बैठक के बाद अन्ना साहेब ने कहा-‘सब ठीक चल रहा है।’
उनके ही एक प्रवक्ता कानून विद का कहना है कि ‘हमारे प्रस्तावित मसौदे वह ‘कुछ’ शामिल नहीं था जो हटाने की बात हो रही है।’
अगर यह सच है तो जब अन्ना हजारे के आंदोलन का प्रचार हो रहा था तब यह बात उन्होंने क्यों नहीं कही? हमने पहले भी लिखा था कि अन्ना साहेब के साथ जो चार लोग हैं उन पर नज़र रखी जायेगी। सरकारी प्रतिनिधियों का रवैया इतना चर्चा का विषय नहीं बनेगा जितना कथित रूप से जनप्रतिनिधियों के विचार जाने जायेंगे।
        ऐसा लगता है कि अन्ना साहेब अपनी राष्ट्रीय छवि बनाने दिल्ली आये थे। उनको यह अनुमान नहीं था कि वह अनचाहे ही विशाल भारत की जनता को आंदोलित कर रहे हैं। सरकार निरंतर भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ न कुछ करती रही है। वह लोकपाल कानून भी बनाने जा रही थी। ऐसे में कथित आंदोलन से निकल देश के महान कानून विद जनप्रतिनिधि बनकर पहुंच गये। हालांकि उस समय किसी ने यह उल्लेख नहीं किया कि सरकार के प्रतिनिधि भी जनप्रतिनिधि पहले हैं बाद में उनका राजकीय पद आता है। तब अन्ना हजारे क्यों आये? आये तो फिर उनके आंदोलन का क्या प्रभाव हुआ?
             जब अन्नाजी ने विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने की बधाई देते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन में जीत के लिये वैसा ही संघर्ष करने का आव्हान किया तभी लगने लगा था वह स्वयं या उनके अनुयायी कोई खेल खेलने आ गये हैं। अन्ना के कथित जनप्रतिनिधियों में दो ऐसे लोग हैं जो अनुभवी हैं और वर्तमान व्यवस्था से संबद्ध रहे हैं इसलिये बड़े बदलाव के लिये उनके तैयार होने पर पहले भी संदेह था और अब तो पुष्टि हो गयी है।
अन्ना ने इन लोगों को चुनने पर कहा था कि ‘उन्होंने जनलोकपाल कानून का प्रारूप बनाया है, इसलिये वह अधिक जानकारी है। अतः उनको रखा जा रहा है।’
            जनलोकपाल के लिये संघर्षरत आंदोलनकारियों के प्रचारित और प्रस्तावित प्रारूप में अंतर आना इस बात को दर्शाता है कि यहां नारों और घोषणाओं पर चलने की आदत का अनुकरण जारी है। समस्या अब अन्ना हजारे जी के सामने आने वाली है। अगर प्रचार माध्यमों में सक्रिय सभी बड़े आंदोलनकारियों की सूची देखी जाये तो उनमें कई ऐसे हैं जो अब सीधे अन्ना हजारे पर सवाल उठायेंगे। उससे भी ज्यादा बुरी बात यह होगी कि उनके प्रचार के बाद देश के आमआदमी भी अन्ना हजारे की तरफ देखेगा। आम आंदोलनकारी के सामने अब दोबारा मुखातिब होना अन्ना हजारे के लिये मुश्किल है क्योंकि वह उनके प्रस्तावित और प्रचारित प्रारूप पर सवाल उठायेगा। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन भी उसी बाज़ार से प्रायोजित था जो किसी बहाने भी जनता को व्यस्त रखना चाहता है। सुनने में आया है कि अन्ना हजारे जी के आंदोलन से भ्रष्टाचार शब्द लोकप्रिय हो गया है अब उसपर इंटरनेट पर गेम बन गये हैं जिसमें भ्रष्टाचार के लिये बदनाम लोगों को सजा देने के खेल का निर्माण किया गया है। अब देश के अप्प टप्पू अपनी उंगलियों से भ्रष्टाचारियों को सजा देंगे। उनका अच्छा समय पास होगा और बाज़ार पैसा भी कमायेगा।
           आखिरी बात अन्ना हजारे देश के राजनीतिक नेताओं पर फब्तियां कस रहे थे पर ऐसा लगता है कि उनकी स्थिति को देखते हुए सभी चुप थे वरना तो अनेक नेताओं की भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की इच्छा दिखती है और अंततः उनको ही उसे रोकने के लिये कानून बनाने हैं। जन इच्छा को पूरा करने के लिये उनसे आशा की भी जानी चाहिए। हम उनकी मंशा पर शक नहीं कर सकते खासतौर से जब कथित आंदोलनकारियों के प्रस्तावित और प्रचारित प्रारूप में अंतर हो। वैसे हमने जो लिखा है वह प्रचार माध्यमों में देख सुनकर ही लिख रहे हैं। आंदोलनकारियों के कानूनविद प्रवक्ता की स्वीरोक्ति देखने के बाद ही हमने यह लेख लिखा है जिसमें उन्होंने कहा कि ‘वह कुछ तो पहले ही हमारे प्रारूप में नहीं था।’
जबकि हमने देखा कि वह कुछ था जो हटाया गया। बहरहाल आगे देखें क्या होता है। बहरहाल जिन पर कानून बनाने का जिम्मा है वह तो बनायेंगे ही यह अलग बात है कि कुछ लोग उसका श्रेय स्वयं लेने का प्रयास करेंगे। संभव है कि सरकार अपने ही प्रस्तावित कानून में चर्चा कर कुछ कठोर नियम भी बनाती पर लगता है कि इसमें श्रेय लेने के लिये आंदोलन को जनाभिमुख बनाने का प्रयास कुछ पुराने बुद्धिजीवियों ने किया। जबकि यह न कर सरकार से मांग कर भी वह देश का काम चला सकते थे। यह अलग बात है कि उनको तब कोई नहीं पूछता। हमने जो लिखा है वह टीवी चैनलों में दिख रहे समाचारों के आधार पर बने विचारों से लिखा है। अगर कोई अन्ना हजारे के विरुद्ध दुष्प्रचार का यह हिस्सा हो तो हमें नहीं मालुम। अलबत्ता प्रचारित और प्रस्तावित प्रारूप में अंतर उनकी छवि खराब कर सकता है। 
इस संबंध में पूर्व में लिखा आलेख यहां पढें।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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