जब सारे देश में गांधीवादी नेता श्री अन्ना हजारे की मांगें मान लेने पर मोमबत्तियां जलाकर जीत का जश्न मनाया जा रहा है तब अन्ना हजारे आगे ‘बड़े आंदोलन‘ की तरफ इशारा कर रहे हैं। अन्ना हजारे के के चेहरे पर कहीं भी विजय का उन्माद नहीं दिखाई दे रहा है। इसका सीधा मतलब यह है कि अन्ना हजारे जिन मांगों को लेकर अनशन पर बैठे उनका पूरा होना विजय का प्रतीक नहीं हैं बल्कि बल्कि हज़ारे आंदोलन का बंद शिविर से युद्ध मैदान में आना भर है। इससे देश में कोई बदलाव नहीं आने वाला बल्कि यह ऐसा अस्त्र लोगों के हाथ में आ गया है कि जिसका इस्तेमाल भी करना सीखना होगा। जनता को संबोधित करते हुए अन्ना हजारे का चेहरा कोई पढ़ सके तो यह साफ पता लग जायेगा कि वह खुश होने की बजाय आगे के लिये चिंत्तन कर रहे हैं।
देश में अच्छे या बुरे अवसर पर मोमबत्तियां जलाकर अपने दुःख और खुशी की भावनाऐं व्यक्त का प्रचलन पश्चिम के आधार पर शुरु हो गया है पर यह बौद्धिक चिंत्तन के अभाव का प्रतीक है। कोई भी जनआंदोलन नारों के इर्दगिर्द सिमट जाता है तब उसमें गंभीर बदलाव की सोच नहीं दिखती है इसलिये वहां घोषणायें ही सफलता मान ली जाती हैं भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से परिणाम के रूप में प्रकट नहीं होती। ऐसे में देश में जो भ्रष्टाचार पनपा है वह समाज में चेतना और आत्मविश्वास की कमी का परिणाम है। यह बात अन्ना हज़ारे जानते हैं और शायद यही कारण है कि वह भविष्य की रूपरेखा तैयार करने में लग गये हैं। वह जानते हैं कि भले ही प्रचार माध्यम अपने विज्ञापनों के लिये उनकी जीत पर मोमबत्तियां जलती दिखाने के साथ विश्व कप में बीसीसीआई की टीम की-जिसे भारत का ही प्रतिनिधि मान लिया जाता है-विश्व विजय से तुलना कर रहे हैं पर यह सब चौंचले हैं। उनके जनआंदोलन को गंभीर दौर से गुजरना बाकी है। जब देश में बदलाव लाने की बात हो रही हो तो गंभीर चिंत्तन तथा सतत सक्रियता ही कोई नतीजा दे सकती है।
अभी अन्ना हजारे जी के आंदोलन पर अधिक लिखना ठीक नहीं लगता क्योंकि हमें परिणामों का इंतजार रहेगा। यह परिणाम मिलने में भी अभी समय लग सकता है। मांगों को पूरी करने की घोषणा तथा परिणामों के बीच एक बहुत लंबा मार्ग है। अन्ना हजारे के साथ आंदोलन में बहुत सारे लोग खड़े हैं पर सवाल यह है कि उनमें से कौन कौन उपनेतृत्व की भूमिका निभा रहे हैं। वह लोग कौन है जो जननेता की छवि रखने वाले अन्ना हज़ारे जी के प्रवक्ता और प्रतिनिधि के रूप में सक्रिय हैं। एक जन आंदोलन चलाने वाले नेता को ऐसा संगठन रखना पड़ता है। इस उपनेतृत्व की कार्यशैली आंदोलन की गतिविधियां प्रभावित होती है और ऐसे में मुख्य नेता के प्रबंधकीय कौशल की भी परीक्षा होती है कि वह कैसे उन पर सतत नियंत्रण करता है। जननेता वही बनता है जो वास्तव में समाज हित को समर्पित होने के साथ ही ईमानदार होता है पर जब वह बदलाव के लिये आंदोलन चलाता है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे को अपने सिद्धांतों के अनुरूप चलाने के लिये प्रबंधकीय कौशल का परिचय देना पड़ता है।
अन्ना हजारे ने स्वयं माना है कि जब वह महाराष्ट्र से दिल्ली आये तब उनको यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि उनका आंदोलन पूरे देश में फैल जायेगा। हम जब उनको मिले जनसमर्थन की बात करते हैं तो वह केवल बौद्धिक समुदाय के इर्दगिर्द सिमटा दिखता है। आम आदमी के लिये हजारे कोई अच्छा कर रहे हैं पर क्या? उसे समझाना जरूरी है। वह परिणाम चाहते है। वह बदलाव की बयार तुरंत बहते देखना चाहते हैं और हम यह तो मानेंगे कि उसका समय अभी नहीं आया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीत की घोषणा तो हो गयी पर उसे परिणाम के रूप में प्रकट होना शेष है। अन्ना सीधे, सच्चे और मस्त इंसान है। उनकी दृढ़ता प्रभावित करती है पर राजनीतिक कौशल का प्रमाणित होना बाकी है। अभी आंदोलन की शुरुआत है और उसके संगठन में अन्ना हज़ारे की बाद वाली पंक्ति के लोगों की योग्यता और बुद्धि के साथ ईमानादारी का प्रमाणित होना बाकी है। हमने जो नाम देखे हैं उनपर विवाद होना की संभावना पूरी है। वह कहीं न कहीं वर्तमान व्यवस्था से जुड़े हैं। कुछ लोग यह पूछ भी रहे हैं कि दूसरी पंक्ति के नेताओं की नियुक्ति क्या अन्ना हजारे ने की है या उपवास की कमजोरी के चलते कुछ लोगों ने अपने आप को स्थापित कर लिया है। याद रखें वह सभी लोग वर्तमान व्यवस्था से जुड़े रहकर लाभ लेते रहे हैं और उसमें मूल परिवर्तन की इच्छा अभी प्रमाणित नहीं है। ऐसे में इस जनआंदोलन के प्रति सशंकित हो सकते हैं पर निराशा नहीं क्योंकि अभी तो बहुत सारे तूफानों से इस आंदोलन का गुजरना है फिर आज के शक्तिशाली प्रचार युग में कुछ छिपता नहीं है।
बहरहाल अन्ना हजारे के आंदोलन का मुंह खुला तो बहुत सारे जनआंदोलन उभरेंगे। कई नये चेहरे आयेंगे। अन्ना हजारे की मांगे मान लेने को विजय मान लेना सतही बौद्धिक चिंत्तन का प्रमाण है पर उनके साथ जो गंभीर चिंतक हैं वह खामोशी से सब देख रहे हैं। जो हाथ हिलाकर हिलाकर नाच रहे हैं उन्हें यह शायद अंदाज नहीं है कि आगे अभी और लड़ाई है। यहां अन्ना और उस संगठन के बीच अंतर की चर्चा नहंी की जिसके लोग उनके अनशन का लाभ उठाकर जनप्रतिनिधि बन गये हैं। ऐसा लगता है कि अन्ना एक व्यक्ति की तरह दिल्ली आये और उनके अनशन का नाम पर एक स्वयं सेवी संगठन उनका पिछलग्गू बनकर आगे आ गया। इस तरह एक जन आन्दोलनकारी नेता को पहले से ही मौजूद संगठन स्वाभाविक रूप से मिल गया हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है पर इतना जरूर बता दें कि अन्ना हजारे एक आंदोलन है और उनका संगठन उसका प्रतिनिधि बन गया है पर जब यह आंदोलन बढ़ेगा तब अन्ना की बात ही अंतिम होगी न कि उनके संगठन की। यह सही है कि यह संगठन बहुत समय से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जूझ रहा है पर वह अन्ना हजारे नहीं है। अन्ना हजारे के साथ देश के जागरुक लोग जुड़े हैं वह उन्हीं की राय को अंतिम मानेंगे। ऐसे में उनकी राय देखकर ही आगे चलें यही अच्छा रहेगा। इस पर शेष आगे के लेखों में।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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