ईरान में अपनी प्रेमिका के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने वाले एक शख्स की आंखें फोड़ दी गयी हैं। ऐसा वहां की न्यायपालिका की सजा के आधार पर किया गया है। आमतौर से ईरान को एक सभ्य राष्ट्र माना जाता है और वहां ऐसी बर्बर सजा देना आम नहीं है। अलबत्ता कभी कभी धर्म आधार पर वहां ऐसे समाचार आते रहते हैं जिसमें सजायें दिल दहलाने वाली होती हैं। उनकी खूब आलोचना भी होती है। वहां की धर्म आधार व्यवस्था के अनुसार चोरी की सजा हाथ काटकर दी जाती है। इससे कुछ लोग सहमत नहीं होते। खासतौर से जब कोई बच्चा रोटी चुराते पकड़ा जाये और उसको ऐसी सजा देने की बात सामने आये तब यह कहना पड़ता है कि यह सजा बर्बर है। अपना पेट भरना हर किसी का धर्म है इसलिये धन चुराने और रोटी चुराने के अपराध में फर्क किया जाना चाहिए। मानवीय आधार पर कहें तो मजबूरीवश रोटी चुराना अपराध नहीं माना जा सकता।
अपनी प्रेमिका की आंखें फोड़ने वाले आशिक की आंखें फोड़ने की सजा को शायद कुछ लोग बर्बर मानेंगे पर सच बात यह है कि इसके अलावा अब कोई रास्ता दुनियां में नज़र नहीं आता। बात चाहे ईरान की हो या भारत की हम स्त्रियों के प्रति बढ़ते क्रूर अपराधों की अनदेखी नहीं कर सकते। अब यहां पर कुछ मानवाधिकारी विद्वान दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं। वह कहते हैं कि क्रूर सजा अपराध नहीं रोक सकती। अलबत्ता ऐसा दावा करने वाले फंासी जैसी सरल सजा पर ही सोचते हैं। फांसी से आदमी मर जाता है उसके बाद उसका कोई दर्द शेष नहीं रह जाता। हाथ काटना या आंख फोड़ना मनुष्य के लिये मौत से बदतर सजा है इस बात को पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित विद्वान नहीं जानते। कम से कम स्त्रियों के प्रति क्रूर अपराध रोकने के लिये ऐसी सजायें तो अपनानी होंगी।
हम एशियाई देशों में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों को देखें तो ऐसी क्रूर सजाओं को अलावा कोई रास्ता नज़र नहीं आता। एशियाई देशों के अ्रग्रेजी संस्कृति समर्थक विद्वान अक्सर पश्चिमी और पूर्वीै समाज में अंतर नहीं करते। वह सोचते है कि जिस तरह वह पश्चिमी संस्कृति में ढले है वैसे ही पूरा एशियाई समाज भी हो गया है। हम शहरी भारतीय समाज को देखें तो यहां स्पष्टतः दो भागों में बंटा समाज है। एक तो वह जो पाश्चात्य ढंग का पहनावा अपनाने के साथ ही विचारधारा भी वैसी रखते हैं। दूसरा वह जो दिखता तो पश्चिमी सभ्यता से रंगा है पर उसकी मानसिकता ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली है। ऐसे नवपश्चात्यवादी उसी तरह ही खतरनाक हो रहे हैं जैसे कि नवधनाढ्य! हम ग्रामीण परिवेश में रहने वाले समाजों के लोगों की बात करें तो उनमें भी कुछ लोग नारियों के प्रति क्रूरता का व्यवहार करते हैं पर वह मारपीट तक ही सीमित होते हैं या हथियार से मारकर एक बार ही दर्द देने वाले होते हैं। जबकि नवपाश्चात्यवादी तेजाब फैंककर या बलात्कार ऐसी सजा स्त्री को देते हैं जो उसकी जिंदगी को मौत से बदतर बना देती हैं। पश्चिमी विचारधारा के विद्वान इस बात को नहीं देखते।
दूसरी यह भी बात है कि पाश्चात्य देशों की समशीतोष्ण जलवायु की बनिस्बत एशियाई देशों की ग्रीष्मोष्ण जलवायु के कारण हमारे यहां के लोगों के दिमाग भी अधिक गर्म रहते हैं। ऐसा नहंी है कि पाश्चात्य देशों में स्त्रियों के प्रति अपराध नहीं होते पर वहां तेजाब डालकर असुंदर या अंधा बनाने जैसी घटनाओं की जानकारी नहीं मिलती जबकि हमारे भारत में निरंतर ऐसी घटनायें हो रही हैं। हम स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों के कारणों पर नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि अब कठोर सजाओं की नहीं बल्कि क्रूर सजाओं की आवश्यकता है।
हमारे देश में कुछ ऐसे कारण हैं जो देश में महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ा रहे हैं।
1.कन्या भ्रुण हत्याओं की वजह से लिंग संतुलन बिगड़ा है, जिससे विवाहों के लिये सही वर वधु का चुनाव कठिन होता जा रहा है। जिससे युवाओं को बड़ी उम्र तक अविवाहित रहना पड़ता है। लड़कियों की शादी में दहेज भी एक समस्या है।
2.ग्रीष्मोष्ण जलवायु के कारण पश्चिम के समशीतोष्ण जलवायु में रहने वालो लोगों की बनिस्बत कामोतेजना यहां के लोगों में ज्यादा है।
3.कानून का भय किसी को नहीं है। आजीवन कारावास से अपराधियों को कोई परेशानी नहंी है और फांसी मिल जाये तो एक बार में सारा दर्द खत्म हो जाता है। फांसी मिल भी जाये तो पहले तो बरसो लग जाते हैं और मिलने वाली हो तो मानवाधिकार कार्यकर्ता नायक बना देते हैं।
4.हमारे मनोरंजन के साधन कामोतेजना के साथ ही पुरुष के अंदर पुरुषत्व का अहंकार बढ़ाने तथा नारी को उपभोग्या की मान्यता स्थापित करने वाले प्रकाशन और प्रसारण कर रहे हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह कुछ नवपाश्चात्यवादी अपने आधुनिक होने के अहंकार तथा घर के बाहर की नारी को उपभोग की वस्तु मानकर चल रहे हैं उनके अंदर भय पैदा करने के लिये ऐसी क्रूर सजाऐं जरूरी हैं। यहां स्पष्ट कर दें कि पश्चिमी विद्वान यह दावा करते हैं कि कठोर सजाओं से अपराध नियंत्रित नहीं होते पर क्रूर सजाओं के बारे में उनकी राय साफ नहीं है हालांकि तब वह मानवाधिकारों की बात कर उसे विषय से भटका देते हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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