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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/19/11

धर्म उद्योग को पहचानना जरूरी-हिन्दी लेख (dharam udyog or religion industry ki pahachan jaroori-hindi article or lekh)

          टीवी और अखबारों के समाचारों के अनुसार एक स्वर्गीय संत के कमरे से 11.56 करोड़ की नकदी, 307 किलोग्राम चांदी, और 98 किलोग्राम सोना मिलने की बात कही गयी है। नकदी को गिनने के लिये तीन मशीने लाई गयीं। अपने चमत्कारों की वजह से अपने भक्त बनाने वाले उन संता का पूरा जीवन चरित्र विवादों से घिरा रहा था। उनकी अध्यात्मिक शक्ति का अनुमान तो हम कभी नहीं कर पाये पर उनकी आर्थिक शक्ति की चर्चा पूरे विश्व में रही ह यहै। यही कारण है कि उनकी संस्था को विदेशी प्रचार माध्यमों एक शक्तिशाली संस्था माना गया। वैसे कहा जाता है कि स्वर्गीय व्यक्ति की चर्चा में कभी उसकी बुराई नहीं करना चाहिए और हम करेंगे भी नहीं पर मुश्किल यह है कि निर्जीव सोना, चांदी और रुपये कुछ न कुछ बोल रहे हैं। यह संसार की माया विचित्र है। मजे की बात यह कि सत्य सांसें लेता है पर विस्तार नहीं लेता और माया सांस नहीं लेती पर विस्तार रूप लेती है। बंगला, गाड़ी, रुपया, चांदी, सोना, हीरा तथा जवाहरात कभी सांस नहीं लेते मगर हर इंसान इनकी वजह से ही सांस ले रहा है। सांसें नहीं लेने के बावजूद माया बोलती है, आदमी को बुलाती है। उसकी आवाज कोई नहीं सुन सकता क्योंकि उसका आकर्षण ऐसा ही है कि आदमी उसे देखते हुए उसके पीछे दौड़ता है।
           अक्सर हमने अपने लेखों में एक बात दोहराई है कि भारतीय मनीषियों ने सत्य का अन्वेषण किया है और इसलिये भारत देश विश्व में अध्यात्मिक गुरु माना जाता है। यह भी लिखा है कि भारतीय मनीषियों का यह सुविधा इसलिये मिली क्योंकि माया का सर्वाधिक प्रकोप भी यहीं रहा हे। जिस तरह कांटों में गुलाब और कीचड़ में कमल खिलता है लगभग वैसे ही अज्ञान के अंधेरे में ही कोई ज्ञान का दीपक जला सकता है। हम उन भारतीय मनीषियों के ऋणी हैं जिन्होंने सत्य की खोज कर हमारे सामने प्रस्तुत किया पर यह भी कहने का मन करता है कि कौनसे उन्होंने तीर मारे क्योंकि उनको अपने सत्य का प्रकाश फैलाने के लिये यहां अज्ञान का अंधेरा भी तो मिला। अगर हमारे यहां ज्ञान का सूरज आरंभ काल से ही चमकता रहता तो क्या कोई ऐसे छोटे दीपक जलाने की सोच सकता था? कदापि नहीं, क्योंकि तब हमारे मनीषी नहीं जान पाते त्याग क्या होता है क्योकि सभी त्यागी होते। ज्ञान क्या है? इसकी खोज कोई नहीं करता क्योंकि सभी ज्ञानी होते। हमारे देश में आम लोग माया के कुछ अधिक ही दीवाने रहे हैं और यह बात मनीषियों ने जानी होगी तभी तो वह सत्य की खोज कर सके।
         यह व्यंग्यात्मक बातें आजकल संतों की संपत्तियों के खुलासे होने के बाद मन में आ रही हैं। आज जड़ हो रहे समाज में इतनी विसंगतियां हैं कि लगता नहीं है कि कोई इस बात को समझ पायेगा कि हमारे मन, बुद्धि और अहंकार का वह चालाक व्यापारी लाभ उठा रहे हैं जिनको धार्मिक, जातीय, भाषा के आधार भावनाओं का दोहन करने की कला आती है। इनमें कोई गेरुए वस्त्र पहन लेता है तो कोई सफेद, पर उनके मन में लालच, लोभ और अज्ञान का विकट अंधेरा है। मजे की बात यह है कि कोई ज्ञानी स्वयं कहे कि मैं बहुत बड़ा ज्ञानी हूं तो लोग उससे पूछेंगे कि क्या तुम्हारे पास अमुक संत जितना पैसा है जो दावा कर रहे हो कि बडे़ ज्ञानी हो।
          आजकल देश के शिक्षण संस्थानों में अनेक छात्र छात्रायें पढ़ रहे हैं। उनका उद्देश्य केवल नौकरी पाना होता है। शायद ही कोई युवक युवती स्वयं उद्योगपति बनना चाहता है क्योंकि उनको पता है कि वहां उनके लिये कोई जगह नहीं है। व्यवसायी तो कोई बनना ही नहीं चाहता क्योंकि हमारे यहां उसको अब असम्मानीय माना जाने लगा है। वैसे भी व्यवसाय करना एक कठिन काम हो गया है पर इसका कारण यह है कि सरकार तथा समाज की प्रवृत्तियां इस तरह की है जिसमें व्यवसायी को दलाल मान लिया जाता है। अगर देखा जाये तो हम लड़के लड़कियों को विकास के नाम पर गुलामी की तरफ ढकेल रहे हैं। उससे भी अधिक चिंता की बात यह कि देश में नहीं तो विदेशों में जाने का मोह पैदा कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह कि जहां वह हैं वहां उसके लिये जिंदा रहने का अवसर नहीं है। अगर है तो वह आवश्यकताओं की पूर्ति लायक नहीं है।
             इस संघर्ष के चलते भारतीय युवा जनमानस अपने अध्यात्मिक ज्ञान से दूर हो गया है और इसका लाभ उन कथित धार्मिक ठेकेदारों को मिल रहा है जिन्होंने ग्रंथों को रट लिया है। एक बात तय है कि भारतीय जनमानस का मन बिना अध्यात्मिक ज्ञान के बहुत गरीब होता है और अंततः वह उसकी तरफ आकर्षित होने लगता है तब यह तोते की तरह रटे रटाये ज्ञानी उसे अपने जाल में फंसा लेते हैं। फिर संधर्ष कठिन है तो नौकरी, बीमारी, और अन्य परेशानियों के हल के लिये चमत्कार होने का दावा करने का दावा कर यह लोग समाज के बौद्धिक रूप से कमजोर लोगों को भ्रम में डालते हैं। स्थिति यह हो जाती है कि जहां कहीं उनके चेले और चेलियां मिलें तो अपने गुरु के सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करते हुए लड़ पड़ते हैं।
        अब तो यह स्थिति यह है कि अनेक धार्मिक संतों की संपत्ति देश के उद्योगपतियों से भी अधिक दिखती है। उनके आश्रम तथा संगठनों का काम कंपनी की तरह चलता दिखता है। जब देश के कुछ बड़े  उद्योगपति संतों के पास जाते हैं तो समझ में नहीं आता कि ‘धन का वास्तविक स्वामी’ कौन है? संत या सेठ! कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि धनपति अपनी कंपनियां इन्हीं संतों की आड़ में चलाकर छूट का लाभ ले रहे हैं। शक भी होता है। कोई भी सामान्य व्यवसायी उसी वस्तु के विनिमिय का कार्य करता है जिसमें वह प्रवीण हो मगर अपने देश के संतों ने तो पेन, दवाई, कैलेंडर,चाबी के गुच्छे, चटाई, तथा पत्रिका प्रकाशन के काम भी शुरु कर रखे हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि बरसों तक तपस्या का दावा करने वालों को इतना सारा अनुभव कैसे हो गया कि चाहे जो भी काम कर लेते हैं।
          निश्चित ही धर्म के नाम पर छूट का लाभ लिया जा रहा है। सभी धर्मों के ठेकेदार जिस तरह के कार्य कर रहे हैं उससे तो देखकर यही लगता है कि वह दोहरी भूमिका हैं। एक तरह वह अपनी पवित्र पुस्तकों के ज्ञान का दावा करते हुए सर्वज्ञानी बनने का दिखावा कर अपने समाज को काबू में रखते हैं दूसरी तरफ उसका लाभ वह धर्म के नाम पर छूट के लिये उठाते हैं। इन्हीं धार्मिक संतों के आश्रमों या दरबारों में मत्था टेकने कोई अभिनेता, अभिनेत्री और उद्योगपति परिवार समेत जाता है तो उसका समाचार सभी जगह आता है। अभी तक तो हम मानते थे कि बाज़ार और प्रचार के अलावा भ्रष्ट समाज सेवकों का समूह मिलकर पूरे विश्व में आम आदमी पर राज कर रहा है पर ऐसा लगता है कि यह धार्मिक ठेकेदार भी उनके साथ शामिल हैं। शायद सभी के बॉस भी हों क्योंकि सभी क्षेत्रों के खास लोग इनके पास जाते हैं। आम आदमी भी जाता है पर वह उनके लिये एक संख्या बढ़ाने वाला हथियार होता है जिसे दिखाकर वह अपने श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। आम आदमी की संख्या बहुत ज्यादा है इसलिये गरीबों के नाम पर कहीं भोजन तो कहीं स्वास्थ्य की सुविधा पर कुछ खर्च कर यह लोग अपनी देवता जैसी छवि भी बनाते हैं। अनेक ने शैक्षणिक संस्थान भी खोल लिये हैं। इस तरह यह धर्म उद्योग बन गया है जिसका किसी धर्म से केवल इतना ही नाता होता है कि उसका मुखिया उसकी पवित्र किताबों से ज्ञान पढ़कर सुनाता है या फिर किसी आदमी के स्वाभाविक रूप से कोई काम होने पर उसे अपना चमत्कार बताता है।
        धर्म शब्द इतना संवेदनशील है कि कोई इस धर्म उद्योग के रूप में पहचानने को तैयार नहीं है। अभी हाल ही में ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ ने कहा था कि भारत में धार्मिक संगठन एकदम बाज़ार की तर्ज पर चलते हैं और अपने भक्त बनाये रखने के लिये वैसे ही साधन अपनाते हैं जैसे कि कोई कंपनी करती है। जब हम पूरी तरह से अंग्रेजों के मानसिक रूप से गुलाम हैं तो फिर क्यों नहीं इस धर्म उद्योग के अस्तित्व को स्वीकार करते?
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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