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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/12/11

अथर्ववेद से संदेश-हिंसक भाव से परे रहें (atharvaved se sandesh-hinsa se pare rehen)

            मानव समाज में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति एक चिंताजनक विषय है। मुख्य बात यह है कि आजकल कथित सभ्य समाज के बुद्धिजीवी अनेक हिंसक तत्वों के आक्रोश की अभिव्यक्ति का यह कहकर समर्थन करते हैं कि अपने प्रति अन्याय का प्रतिकार करने के लिये हिंसा के अलावा उनके पास कोई मार्ग नहीं है। जबकि यह बुद्धिजीवी स्वयं किसी पर एक कंकर भी नहीं फैंक सकते। स्पष्टत है कि आज के उदारीकरण के युग में हिंसक तत्व भी प्रायोजित हो गये हैं और कहीं न कहीं बुद्धिजीवी अपने प्रायोजकों के हितों के अनुसार उनका समर्थन और विरोध करते हैं। कलमवीरों का बंदूकचियों का समर्थन करना अब एक आम बात हो गयी है।
         एक मजे की बात यह है कि अनेक धार्मिक तथा धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी भारतीय धर्म ग्रंथों से हिंसक घटनाओं के प्रति भी अपना नजरिया रखते हैं। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने रावण का तथा द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध किया-इस पर समर्थन या विरोध करने पर भी अनेक नजरिये सामने आते हैं। कुछ लोग तो इस कदर भारतीय धर्म से विमुख हो गये हैं कि उनको वेदों, पुराणों, उपनिषदों, मनुस्मृति, तथा श्रीमद्भागवत गीता में भी हिंसक प्रतिरोध के औचित्य के दर्शन होते हैं। जबकि उस हिंसा का अर्थ वह कदापि नहीं है जैसा कि प्रचारित किया गया है। हिंसा का दंड भी हिंसा ही होती है इस बात को हमारा भारतीय अध्यात्म मानते हुए उससे बचने की सलाह देता है। दिक्कत यह है कि लोग आधा अधूरा अध्ययन कर अपना ज्ञान बघारने चल पड़ते हैं।
हिंसा को रोकने के लिये अथर्ववेद में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि
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मा नो हिंसनिधि नो ब्रू हि परिणो वृडग्धि मा मां त्वया समरामहिं।
         ‘‘मै हिंसा न करूं ऐसा उपदेश दो, मेरी रक्षा करो, मुझे किसी पर क्रोध न आये तथा मैं किसी का विरोध न करूं।’’
              हमें परमात्मा से प्रार्थना करना चाहिए कि हमारे अंदर कभी हिंसक भाव या क्रोध न आये तथा हम किसी से झगड़ा न करें। यह बात भारतीय दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है। आज जब खानपान, रहन सहन तथा पर्यावरण प्रदूषण के कारण् मानव समाज में सहिष्णुता के भाव का ह्रास  हुआ है वहीं भारतीय अध्यात्म से उसकी दूरी ने पूरे विश्व समाज को संकटमय मना दिया है। हिंसा किसी परिणाम पर नहीं पहुंचती। कम से कम सात्विक लोगों की दृष्टि से हिंसा निषिद्ध है। राजस प्रवृत्ति के लोगों को भी हिंसा से बचना चाहिए यदि वह राजकर्म से जुड़े न हों। भगवान राम ने रावण के साथ युद्ध किया था पर उनका लक्ष्य सीता को पाना था। भगवान श्री कृष्ण ने भी अपनी माता तथा पिता के उद्धार के लिये कंस को मारा पर धर्म की स्थापना करने के लिये जिस महाभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश दिया उसमें हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा की। इससे यह बात तो समझ लेना चाहिए कि हथियार उठाने या प्रत्यक्ष हिंसा में लिप्त रहने वाला मनुष्य कभी धर्म की स्थापना नहीं कर सकता चाहे दावा कितना भी करता हो।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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