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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/14/11

आओ भोग रोग और योग पर चर्चा करें-हिन्दी लेख (bhog rog aur yog par charcha-hindi lekh or article)

           भारत में विश्व की करीब बीस प्रतिशत आबादी है पर हृदय रोगियों की संख्या पचास फीसदी हो गयी है। देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा अंतर्राष्ट्रीय विषयों में मस्त रहने वाला हमारा समाज शायद ही इस पर चिंतित होता दिखा रहा है। इसके अलावा आये दिन मधुमेह, चर्बी, सांस तथा अन्य रोगियों की संख्या भी निरंतर बढते रहने के आकंड़े आते रहते हैं पर शायद ही कोई बहस इस पर होती है कि हमारा समाज स्वास्थ्य की दृष्टि से कितना खोखला होता जा रहा हैं उससे भी हैरानी की बात यह है कि अनेक मनोविज्ञानिक विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि देश की आबादी का एक बहुत बडा मनोविकारों का शिकार है पर इलाज की यह स्थिति है कि मनोरोगी न स्वयं यह बात जानते हैं न उनके परिजन इसे स्वीकार करते हैं। ऐसे में हम जब ज्वलंत विषयों पर चर्चा करते हैं तो वह कहना कठिन होता है कि सामने वाला मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति है।
       समाज में हम जब दैहिक तथा मानसिक रोगियों की जो स्थिति देख रहे है तो अत्यंत चिंताजनक है। अपने आसपास के लोगों से व्यवहार करते समय उनसे हम सतर्कता बरतें पर यह तभी संभव है कि हम यह जान पायें कि वह रोगी है। किसी को कोई दैहिक काम दें तो यह पता लगाना कठिन है कि वह उसे कर पायेगा या नहीं। उसमें क्षमता है कि नहीं। साथ ही जब किसी के साथ आपसी संवाद करें तो यह कहना भी कठिन है कि वह मानसिक विकार से ग्रसित है कि नहीं। सच बात तो यह है कि अब पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति ढूंढना कठिन है जबकि हम अपने समाज को एक शक्तिशाली होने का भ्रम पाल रहे हैं।
       एक नहीं ऐसी बल्कि कई ऐसी घटनायें हो रही हैं कि लोग मोटर साइकिल या कार लेकर रास्ते पर निकल पड़ते हैं। खाली मार्ग देखकर अनौपचारिक रेस लगाने लगते हैं बिना यह विचारे कि आगे कोई दूसरा वाहन हो सकता है या कहीं कोई गड्ढा या पेड आ सकता है। किसी दूसरे वाहन से टकराव हो सकता है। नतीजा दुर्घटनायें होती है। इसमें कई जवान मौतें हो चुकी हैं। अगर आप ऐसे वाहन चालकों की मनोविज्ञानिक स्थिति का पता लगाये तब उनका कोई परिजन नहीं मानेगा कि दिमागी रूप से वह अस्वस्थ थे पर मनोविज्ञानिक मानते हैं कि यह सब मनोविकारों का नतीजा है। सवाल यह है कि हमने आखिर सभ्य और स्वस्थ मानव के लिये कौनसे मानक तय किये हैं। हमारे एक योगाचार्य कहते हैं कि बढ़ती दुर्घटनायें इस बात का प्रमाण है कि लोगों का आज्ञाचक्र स्वभाविक ढंग से काम नहीं करता है।
          पश्चिमी रहन सहन के चलते लोगों की जीवन शैली में बदलाव आया है पर हमारी जलवायु वैसी नहीं है जैसे कि अमेरिका या यूरोप में है। कभी सर्दी और गर्मी का मौसम तो कभी बरसात अपना उग्र रूप दिखाती है। लोगों ने आनंद लेने के लिये तौर तरीकों में ंपरिवर्तन किया है। शोरशराबा करना और भीड़ लगाकर अपने वैभव और व्यक्तित्व का प्रदर्शन करने की बढ़ती प्रवृत्ति ने लोगों को विलासी बना दिया है।       इन्हीं विलासिता पूर्ण साधनों के एकत्रीकरण के लिये अपराध भी बढ़ा है।
            पहले तो धनवानों के लिये राजरोगों का भय था पर भोजन, जल, तथा औषधियों के नकली या मिलावटी होने की वजह से अल्प धनियों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ा है। ऐसे में हम जब आर्थिक विकास की बात करते हैं तो हंसी और निराशा दोनों ही आती है। अध्यात्मिक विकास की बात को एकदम नकार दिया गया है। कहीं कहंी तो धर्म के नाम पर भी आदमी की अध्यात्मिक भूख शांत करने के लिये नृत्य संगीत और गीतों का सृजन फिल्मी तर्ज पर हो रहा है। ऐसे में लगता नहीं है कि हम अपने पुराने समाज को याद करते हैं जो सीमित साधनों में प्रसन्नचित्त रहता था। अगर यही विकास है तो फिर हमें मानना चाहिए कि यह विकृत विकास है जिसमें मानव सभ्यता चमकदार दिखाई देती है पर दरअसल वह विनाश की तरफ बढ़ रही है।
        आज हमारे समाज में योग के प्रति रुझान इसलिये नहीं बढ़ा कि उसकी शक्ति की व्यापकता को लोग समझ रहे हैं बल्कि वह अपने भोगों से उत्पन्न विकारों से मुक्ति पाने वाली दवा के रूप में इसे मान रहे हैं। यही कारण है कि प्राणायाम तथा आसनों का प्रचार अधिक हो रहा है जबकि ध्यान के साथ धारणा को एकदम भुला दिया गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा समाज आधुनिक भोगों के साथ जीना चाहता है और भारतीय अध्यात्म से उसका बस इतना ही संबंध है कि वह इसके लिये अधिक शक्ति प्रदान करे। सीधी बात कहें आधुनिक भौतिकतवाद के प्रति समाज का आकर्षण चरम पर है जो अंततः उसके विनाश का कारण बन सकता है। यह अलग बात है कि दर्द पूरे समाज को एक साथ नहीं होता। टुकड़ों टुकड़ों में होता है। जख्म होता है तो धीरे धीरे उसका दर्द कम होता है पर दूसरे को होता है तो वह कराहता है और पहले वाला उसे देखता है। इस तरह क्रम चल रहा है। इस बात का कौन ध्यान रखता है कि आजकल जवान मौतों का सिलसिला अधिक हो गया है और उसे रोका जाना चाहिए। कहने वाले तो कह सकते हैं कि मौत तो किसी भी आयु में हो सकती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  Bharatdeep, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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