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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/25/13

राजा तो केवल राजा ही होता है-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन लेख(raja to kewal raja hi hota hai-hindi adhyatmik chinttan,hindi adhyatmik chinttan lekh)



                        हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भगवान को पूज्य और राजा को सम्माानीय माना गया है।  अनेक विद्वान  राजा को भगवान का ही प्रतिनिधि तक मानते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य समुदाय को हिंसक होने से रोकने के लिये राजा ही सबसे बड़े पहरेदार का काम करता है। राजा के पास अनेक प्रकार के दंड हैं जिनका वह प्रयोग प्रजा में अनियंत्रित लोगों की गतिविधियां रोकने के लिये करता है।  मनुष्य समुदाय को नियंत्रित करने के लिये अनेक कानून बनाये गये हैं। इसका कारण यह है कि इस धरती पर विचरने वाले अन्य जीव तो स्वतः ही अपने प्राकृतिक नियमों का पालन करते हैं पर मनुष्य की बुद्धि, देह और मन में इतना लचीलापन है कि उसे नियम बनाकर ही नियंत्रित करना पड़ता है। ऐसा न हो तो मनुष्य पशुओं से ज्यादा हिंसक हो जायें। पेट भरा हो तो शायद बड़ी मछली छोटी को न मारे तथा विश्राम कर रहा सिंह मृग से मुंह फैर ले पर इंसान की प्रवृत्ति ऐसी है कि न उसका पेट भरता है न मन!  धन और रोटी की बहुतायत होते हुए भी वह भविष्य के लिये चिंतित रहता है और हमेशा ही आक्रामक होकर इधर से उधर विचरता है।  उसकी यही सक्रियता अतिरूप लेकर उसे हिंसक बना द्रेती है।
                        राजा को भगवान मानना एक आदर्श राज्य की स्थिति है पर जहां हालत खस्ता है वहां प्रजा राजा को ही दैत्य मानने लगती है।  कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य में राजा या राज्य प्रमुंख का दर्जा हमेशा ही ऊचा रहता है। उसके बाद जमीदार, साहुकार तथा अन्य छोटे पदासीन लोग आते हैं। आज के लोकतांत्रिक युग ने मनुष्य समाज की राज्य प्रणाली में अनेेक प्रकार के विरोधाभास उत्पन्न किये है।  स्थिति यह है कि अनेंक वामपंथी विद्वान आधुनिक लोकतंत्र को धनपतियों की छद्म तानाशाही का नाम देकर वाह वाही लूटते है। इसके पीछे वजह यह है कि आधुनिक लोकतंत्र में चुनाव से ही एक सीमित अवधि के लिये कोई भी राज्य प्रमुख पद पर आसीन होता है। चुनाव के लिये प्रचार और प्रबंधन मे ढेर सारा पैसा खर्च होता हैं।  यह पैसा धनपति ही राजसी व्यक्तियों को प्रदान करते है। जब कोई व्यक्ति राजसी पद पर पहुंचता है तब यही धनपति उसे अपनी उंगलियों पर नचाते हैं।  राजसी व्यक्ति की भी मजबूरी होती है क्योंकि उसे अगली बार फिर चुनाव लड़ना होता है।  वामपंथी बुद्धिजीवी मानते हैं कि विश्व में लोकतंत्र के नाम पर पूंजीपतियों के बूत ही सत्ता पर बैठते हैं। इतना ही नहीं अब तो अनेक सामाजिक विद्वान भी उनसे आगे बढ़कर अपराधिक तत्वों के समूहों की राजसी कर्म में लिप्त लोगों पर प्रभाव होने की बात करते हैं।  यही कारण है कि राजसी कर्म में लिप्त उच्च, मध्यम, और निम्न पद पर सक्रिय लोग कम इतराते हैं उससे अधिक तो वह अहंकार दिखाते है जो उनसे संपर्क का दावा करते है।  आजकल पहुंचे लोगों की बजाय उन तक पहुंच रखने वाले लोग समाज में अपने प्रभाव रखने का दावा करते हैं।
                        यह सब ठीक है पर राजा तो राजा होता है। जब तक उसके पूंछ मरोड़ी जाये ठीक है पर जब कोई उसकी गर्दन पर वार करेगा तो उसे अपने बचने की आशा भी नहीं करना चाहिये। पूंजीपति या अन्य बाहुबली लोग अनेक बार यही गलती करते हैं। उन्हें लगता है कि राजसी पुरुष उनके हाथ में है तो कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता यही कारण है कि वह उसके पद को अपना बंधुआ समझकर समाज में व्यवहार करते हैं जो अंततः उनके संकट का कारण बन जाता है।  अनेक पूंजीपति और बाहुबली राजनीति में प्रत्यक्ष सक्रिय नहीं है पर उनको लगता है कि हर राजसी पद उनकी जागीर है पर वह यह नहीं जानते कि राजा तो केवल राजा ही होता है। 
                        भारत में आजकल बहुत उथल पुथल है।  पिछले कुछ समय से अनेक पूंजीपतियों के विरुद्ध राज्य की कानूनी संस्थायें सक्रिय हुईं हैं।  अनेक के विरुद्ध मामले दर्ज हुए हैं। इसे लेकर उनके पालतू प्रचार समूह देश की आर्थिक प्रतिष्ठा पर संकट खड़ा करते हैं।  उनका मानना है कि सभी पूंजीपति विश्व में प्रतिष्ठत हैं और भारत की पहचान उनसे है।
                        हम उनसे सहमत नहीं है।  भारत की पहचान यहां के किसी आर्थिक शिखर पुरुष के कारण हो ही नहीं सकती। यहां की पहचान भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के कारण है जो त्याग का संदेश देता है। भोगी कभी बड़ा नहीं हो सकता भले ही वह कितना भी दावा कर ले।  दूसरी बात यह है कि पूंजीपतियों ने अपने समाज के साथ कभी मैत्रीपूर्ण व्यवहार नहीं किया। आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों को अपने हितों के अनुकूल बनवाने के बाद उन पर अमल के लिये राजसी पुरुषों पर दबाव डाला।  इस कारण आम इंसानों के हाथ से आर्थिक स्वामित्व निकलकर इन पूंजीपतियों के पास चला गया। लधु उद्योग तथा व्यापार में लोग निरुत्साहित हुए हैं। स्थिति यह है कि छोटे और मध्यम व्यापार में लगे लोगों के बच्चे नौकरियों के लिये लालाचित हैं।  इससे समाज का प्राचीन स्वरूप विघटित हुआ है।  अपने को समाज से प्रथक समझने वाले इन पूंजीपतियों पर जब संकट आया है तो वह विश्व बिरादरी में प्रतिष्ठा का वास्ता दे रहे हैं क्योंकि उनको पता है कि राष्ट्रीय समाज में हमारी विश्वसनीयता नहीं रही।  उन्हें यहां के लोगों से सहानुभूति नहीं मिलने वाली।  इधर राजसी पुरुषों को हर हाल में अपने ही समाज से जुड़े रहना है इसलिये वह अधिक देर तक इन पूंजीपतियों का साथ नहीं निभा सकते।  ऐसे में एक द्वंद्व चल रहा है।
                        राज्य का दायित्व निभाने वालों से हमेशा ही आम इंसान की रक्षा की आशा की जाती है।  वह अपने इस  कर्तव्य से हमेशा ही विमुख होकर नहीं चल सकते। यही बात धनपतियों और बाहुबलियों को समझ लेना चाहिये।  हमारे यहां कहा भी जाता है कि समाज के पहरेदार किसी के सगे नहीं होते और राजा सबसे बड़ा पहरेदार होता है इसलिये वह लंबे समय तक अपने ही सगे लोगों की अनियमित गतिविधियां बर्दाश्त नहीं कर सकता।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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