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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/10/13

समाचारों का सुपर संडे-विशिष्ट हिन्दी रविवारीय आलेख (super sandya of hindi tv news chaila-special hindi article or editorial)



            समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों को हर रविवार सुपर संडे स्पेशल के लिये सामग्री चाहिये। इस दिन उन्हें एक ऐसे विषय की तलाश रहती है जिस पर पर सनसनी और मनोरंजन के साथ चिंत्तन की चाशनी परोस सकें।  उस दिन अवकाश होता है और नौकरी पेशा मध्यम वर्ग के लोगों को अवकाश होता है जिनको बौद्धिक विलास के साथ ही मनोरंजक विषय प्रिय होता है।  यह मध्यम वर्ग चाहता है कि वह कुछ देश और समाज की चिंता के साथ मनोरंजन  करते हुए स्वयं को ही चिंत्तक होने का विश्वास दिलाये।
                        जिस तरह सारी बीमारियां पश्चिम से आई हैं उसी तरह हमारे प्रचार माध्यमों को सुपर संडे पर स्पेशल की बीमारी लग ही गयी है।  यह बीमारी हमने पश्चिम में देखी थी।  अमेरिका और ब्रिटेन में कुछ ऐसी घटनाओं को शुक्रवार तथा शनिवार को मूर्त रूप दिया जिनकी चर्चा पर वहां के टीवी चैनलों ने रविवार को खूब की।  तय बात है कि इसमें विज्ञापनों का समय खूब पास होता है।  यह चैनल धनपतियों के पास हैं और कभी कभी  काले धनपतियों से उनके रिश्ते होने का शक इसलिये भी होता है कि उन लोगों ने ही कुछ घातक घटनाओं को अंजाम दिलवाने का काम भी शुक्रवार तथा शनिवार को इसलिये ही किया ताकि रविवार को विशिष्ट सामग्री प्रसारित की जा सके। अब इस तथ्य को प्रमाणित करना तो कठिन है पर हिन्दी ब्लॉग जगत के एक पुराने ब्लॉगर ने रविवार के दिन ही कुछ खास घटनायें तथा दुर्घटनाऐं होने पर इसी तरह का शक जताया था।  रविवार के चयन पर संदेह जताते हुए उसने ऐसी कई घटनाओं की चर्चा की जिससे रविवार का दिन अमेरिका तथा ब्रिटेन में सुपर संडे बना। इस बात को कम से कम पांच वर्ष हो गये और तब तक भारतीय समाचार चैनलों में इस तरह की प्रवृत्ति नहीं देखी गयी थी।
                        हमें चैनलों के सुपर संडे के लिये सामग्री ढूंढने पर कोई आपत्ति नहीं है। मुश्किल यह होने वाली है कि चैनल अपनी सामग्री को सनसनीखेज बनाने के प्रयास में कहीं अपनी विश्वसनीयता न खो बैठें।  किसी के अपराध की जांच पुलिस करती है पर उसके विरुद्ध दर्ज मामले पर ही इन चैनलों में बहस कर उस अपराधी को दानव साबित करने का जो प्रयास होता है वह अजीब लगता है।  ऐसा लगता है कि प्रचार जगत के स्वामियों ने राजनीति, कला, साहित्य, अर्थ, फिल्म तथा धर्म के साथ ही दुनियां के उस हर क्षेत्र में अपने शिखर पुरुष स्थापित कर दिये हैं जो मनुष्य के मन से जुड़े हैं।  कभी कभी तो ऐसा लगता है कि कुछ शिखर पुरुष तो केवल प्रचार से ही बने हैं और जो स्वयं बने हैं वह भी इन प्रचारकों के लिये प्रिय बनने के लिये बेताव रहते हैं।  अनेक लोगों की  आंखें कैमरे ढूंढती हैं और उनकी वाणी तभी खुलती है जब उसे प्रसारण में जगह मिलने की संभावना हो।  स्वनिर्मित रचनाधर्मियों की कमी हो गयी है। यह सब भी ठीक होता पर निराशाजनक स्थिति यह है कि लोगों का मन निराश है। न चिंत्तन के लिये ढंग की सामग्री मिलती है न मनोरंजन के लिये कोई कार्यक्रम दिखता है।  लोगों को जबरन हंसाने, रुलाने और चिंत्तन के लिये मजबूर किया जा रहा है।
                        स्वतंत्ररूप से बौद्धिक चिंत्तन करने वालों के लिये तो कुछ बचा ही नहीं है पर जो समाचार आदि देखकर अपनी बात चर्चा में कहते हैं उन्हें भी लगता है कि अनेक विषय स्तरहीन हैं। जब से हमने ब्लॉग लिखन प्रारंभ किया है तब से बाहर लोगों से अपने मन की बात कहना कम ही कर दिया है। लिखने के लिये हमें भी विषय चाहिये इसलिये चाय की दुकानों, मंदिरों और उद्यानों में हम लोगों की चर्चा सुनते हैं। यह चर्चायें टीवी वाली बहसों पर आधारित होती हैं। टीवी के समाचारों पर लोगों की प्रतिक्रिया होती है।  उन्हें सुनकर मन ही मन मुस्कराते हैं।  इस मामले में प्रचार प्रबंधकों की तारीफ करना चाहिये कि वह समाज  को चिंत्तनशील रखने के लिये सतत सक्रिय रहते हुए  उसे संचालित रखने में सफल हो रहे हैं।  एक स्वतंत्र चिंत्तक होने के नाते हम मानते हैं कि लोकतंत्र में नेता के चयन की भूमिका में प्रजा सर्वोपरि है पर यह भी देख रहे हैं कि उसके मत को प्रभावित करने का काम भी बखूबी हो रहा है। प्रचार प्रबंधक दावा भले ही जनहित का करें पर उनकी चिंता इस बात की भी है कि राजकीय संस्थाओं में उनका प्रभाव अवश्य रहना चाहिये। यही कारण है कि राजस भाव वाले लोग अब टीवी पर अपना प्रचार देखने के लिये आतुर रहते हैं। उनको भी यह लगता है कि जनता मानस  लोकप्रिय होने का सबसे आसान तरीका पर्दे पर अपना चेहरा आते रहने से आसान होगा।
                        एक कथित संत को एक मामले में कई दिनों के प्रयास शुक्रवार को ही पकड़ा गया। उसी दिन तय हो गया कि शनिवार और रविवार उनकी वजह से सुपर रहने वाला है। उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी पर ही इतनी चर्चा हो गयी कि लगने लगा कि बस सजा दी जाना बाकी है।  यही काम प्रचार माध्यमों के हाथ में नहीं है वरना तो वह इस देश के पांच दस अपराधियों को सरेआम फंासी दे चुके होते। अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को जिस तरह इन प्रचार माध्यमों ने सहारा दिया उससे लोगों को लगा होगा कि प्रचार प्रबंधक वाकई जनहितैषी हैं पर सच बात यह है कि सुपर संडे की परंपरा वही से ही शुरु हुई।  उस समय ऐसा लग रहा था कि किसी चौराहे पर बनी फिल्म को सीधा प्रसारण हो रहा है। फिर अचानक थम गया। अन्ना का यह आंदोलन चला। बाकी पांच दिन तो मामला ठंडा रहता था पर शुक्रवार शाम से उत्तेजना वाली खबरें आती होती और शनिवार और बहस सामग्री से सुपर संडे बन जाता था।
                        समाचार चैनलों की समस्या यह है कि उनको मनोरंजन चैनलों से भारी चुनौती मिलती है। जब कोई खास समाचार न हो तो लोग समाचारों से मुंह फेर लेते हैं।   अगर वह इस तरह सुपर संडे न मनायें तो शायद उनकी प्रतिष्ठा समाप्त ही हो जाये।  भगवान जाने सच क्या है, पर इतना तय बात है कि इनके उठाये विषयों में दिखायी गयी  गंभीरता व्यवसायिक होती है यह तय बात है। बहसों का स्तर तो यह है कि तर्क वितर्क  कम  शोरशराबा अधिक होता है। बहस करने वाले करें तो ठीक इनके संचालक ही शोर मचाते हैं।  अपने उत्तर सुनने का अधिक सामर्थ्य इनमे नहीं दिखता। अधिक रुचिकर विषय पर होने वाली  बहस में एक ही तर्क के बाद विज्ञापन का अवरोध आ जाता है। तब यह साफ लगता है कि अपने चैनल की लोकप्रियता की अंधी दौड़ में सभी प्रचार प्रबंधक शामिल  हैं और उनके बहस संचालकों पर यह दबाव साफ दिखाई देता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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