हिन्दी के प्राचीन और मध्यकाल के बाद आधुनिक काल-जिसे हम अब प्रगतिशीलकाल
कहकर समाप्त मानते हैं। आधुनिक शब्द
अंतहीन है पर जब किसी विषय विशेष का समापन करना हो तो उसे आधुनिक शब्द देकर अंतहीन
संज्ञा नहीं दी जा सकती। आज से दस वर्ष
पहले तक चल रहे प्रगतिशील काल की रचनायें अंतर्जाल या आधुनिक काल पर भोथरी साबित
हो रही हैं जबकि प्राचीन और मध्यकाल की-जिसे हिन्दी का स्वर्णिमकाल भी कहा जाता
है-आज भी अंतर्जाल पर लोकप्रिय हो रही हैं।
इस विषय में ट्विटर का उल्लेख करना जरूरी है। मध्यकाल के महान विभूतियों
तुलसीदास, कबीरदास, रहीम, सूरदास तथा अन्य कवियों की रचनायें अगर लिखी जायें तो ट्विटर की 140 की सीमा मेें आ जाती
हैं। इसके विपरीत प्रगतिशील दौर की कवितायें वहां न जगह नहीं बना सकतीं तो फेसबुक, ब्लॉग तथा बेवसाईटों पर
उनके उल्लेख से अधिक पाठक भी नहीं मिल पाते।
इस लेखक का अनुभव कहता है कि प्राचीन संस्कृत रचनायें भी अनुवादित होने के
बावजूद अंतर्जाल पर लोकप्रिय हो रही हैं।
कथित आधुनिक काल में -जिसे हम प्रगतिशील काल कह रहे हैं-प्रगतिशील और
जनवादी रचनाकारों की रचनायें अंतर्जाल पर उस तरह सम्मान नहीं हो रहा है जैसा कि
अभी तक राजकीय, सामाजिक तथा प्रकाशन संस्थाओं के समर्थन से पा रहीं थीं। उससे भी ज्यादा
आश्चर्य इस बात का कि प्रगतिशील शैली में लिखने वाले नये रचनाकार भी अधिक पाठक
नहीं जुटा पाये। दरअसल भारतीय जनमानस की इच्छा जाने बिना उस पर ऐसी रचनायें थोपीं
गयीं जो उसमें चेतना और प्रेरणा नहीं ला पातीं।
भारतीय जनमानस का यह स्वभाव है कि वह अध्यात्मिक निष्कर्ष के साथ रचना पसंद
करता है। प्रगतिशील और जनवादियों की रचनायें समाज की कलुषित घटनाओं और दोषों को
सामने तो लाती हैं पर उसके निराकरण का मानवीय उपाय नहीं सुझाती। प्रगतिशील रचनाकार अपनी कहानी, कवितायें या निबंध के
माध्यम से दृष्टांत तो प्रस्तुत करते हैं पर पाठक में चेतना या प्रेरणा पैदा नहीं कर पाते। जनवादी
हमेशा ही राजकीय दंड से समाज पर नियंत्रण करने के उपाय बताते हैं। इसके विपरीत भारत की मूल साहित्यक धाारा
अध्यात्मिक सुधार का अमृत लेकर भी साथ बहती है।
यही कारण है कि आधुनिक अंतर्जाल
युग में हिन्दी अपनी प्राचीन रचनाओं के सहारे लोकप्रिय हो रही है। इस लेखक का
निष्कर्ष तो यही है कि अंतर्जाल पर भारतीय अध्यात्मिक धारा ही हिन्दी की सारथी
होगी। यह अलग बात है कि हिन्दी की
नियंत्रक और संचालक संस्थाओं पर प्रगतिशील विचारों वाले लोग काबिज है जिसके चलते
फिलहाल अंतर्जालीय हिन्दी लेखकों को समाज से सहयोगी की अपेक्षा नहीं करना चाहिये।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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