न यहां कोई धरती पर उगा, न ही घर में आसमान से टपका है।
‘दीपकबापू’ इंसान से बने भेड़, कोई भेड़िये की भांति टपका है।।
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आस्था के नाम पर पाखंड पाले, अंधविश्वास का नाम भक्ति डाले।
‘दीपकबापू’ मखमली बिछौने पर सोयें, धर्म रक्षा करें दिल के काले।।
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लोहे के ढांचे चढ़ जाये चमकदार रंग, सवार झूमे जुड़े जब मशहूर नाम संग।
‘दीपकबापू’ बिना रंग देखें सामान, सच से खुशी की धारा हो जायेगी भंग।।
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अपना नाम लिखकर पत्थर सजाते, किराये पर अपनी प्रशस्ति गीत बजाते।
‘दीपकबापू’ नकली नायक बन गये, चालाकी से पराई जीत अपनी बताते।।
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किताबी नारों से जिंदगी नहीं चलती, धन बिना धर्म की ज्योति नहीं जलती।
‘दीपकबापू’ तलवार में ढूंढते सिद्धि, अर्थ बिना ज्ञान की उम्र शीघ्र ढलती।।
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जब भिखारी करोड़पति बन जायें, तब सौदागर क्यों शान बतायें।
‘दीपकबापू’ देखें दौलत का खेल, खिलाड़ी होने का भ्रम न लायें।।
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ढूंढ रहे लोहे लकड़ी में खुशी, मस्तिष्क पर चिंता के पहरे हैं।
‘दीपकबापू’ ओम का दिल से जाप, करे वही जाने भाव गहरे हैं।
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पहले विकास के मोती आयेंगे, ठेका होगा माला में पिरोये जायेंगे।
‘दीपकबापू’ ढूंढ रहे अपना हिस्सा, मिले तो गले में पहन पायेंगे।।
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वैभव में हो जाती जल्दी आसक्ति, करना आसान दिखावे की भक्ति।
‘दीपकबापू मन में पाले चालाकी, तन पर लगाई त्यागी की तख्ती।।
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कातिल देश में फरिश्ते नहीं होते, इंसानी वेश में कई शैतान भी होते।
‘दीपकबापू’ बेकार अमन की बात, शब्दों के जादूगर हैवान भी होते।।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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