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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/24/17

क्या जनवाद और प्रगतिवाद अब राष्ट्रवाद से हार रहा है-हिन्दी संपादकीय (what Commnusim And Progressive Movement will Loss Agaisnst natinalism-Hindi Editorial)

        
                              हमारे देश में महाशिवरात्रि, जन्माष्टमी या रामनवमी के अवसर पर ही मंदिरों पर दर्शनार्थियों भीड़ नहीं लगती वरन    वारों के अनुसार भी वहां जमावड़ा होता है। सोमवार को शिवजी, मंगलवार को हनुमान जी, बुधवार को गणेश जी गुरुवार को सरस्वती, शुक्रवार को माता तथा शनिवार को नवग्रह को मंदिरों में भीड़ रहती है तो रविवार को सिखों के गुरुद्वारों में मौज रहती है। वैसे गुरु रूप में प्रतिष्ठित भारतीय धर्मो कं  संत अपने पंथ समुदाय के समागम रविवार को ही करते हैं। यह संत अपना पंथ निजी संस्थान की तरह चलाते हैं और उन्होंने सरकारी अवकाश का दिन रविवार समागम के लिये चुना है ताकि भक्त समुदाय अधिक संख्या में सके। उस फिर श्रीमद्भागवत, रामायाण कथाओं के सप्ताहों के साथ भजन संध्यायें होती हैं। सबकी खबरें स्थानीय अखबार में छपती हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर अधिक महत्व नहीं मिलता।
                                              जिनकी भारतीय अध्यात्मिक दर्शन या धार्मिक संस्कारों में दिलचस्पी नहीं है वह फिल्म आदि से अपना मन बहलाते हैं। अब जिनकी दिलचस्पी उसमें भी नहीं है वह अन्य विषयों की तलाश करते हैं। इनमें नये बुद्धिजीवियों के लिये कार्लमार्क्स का दर्शन चिंत्तन विलास का एक बहुत बड़ा स्तोत्र बन गया है। जिसमें गरीबों, पिछड़ों, महिलाओं और मजदूरों के कल्याण की सोचना और उस पर बोलना एक खास पहचान मानी जाती है। जनवादी और प्रगतिशील बौद्धिक अपना चिंत्तन विलास ऐसे ही करते हैं। जब तक 2014 में देश ने धुर दक्षिणपंथियों (राष्ट्रवादियों) को पूरी तरह सत्ता नहीं सौंपी थी तब तक इन जनवादियों और प्रगतिशीलों ने सरकारी मदद से खूब बौद्धिक विलास किया पर अब राष्ट्रवाद के ध्वजारोहण ने उनका सारा तानाबाना छिन्न भिन्न कर दिया है।
                                         हाल ही में महाराष्ट्र के निकाय चुनाव  परिणामों  ने जनवादियों और प्रगतिशीलों के लिये भारी चिंता पैदा की होगी-यह अलग बात है कि कोई कह नहीं रहा।  अब जरा महाराष्ट्र राज्य को देखें। दोनों दक्षिणपंथी दोहरा खेल दिखा रहे हैं। दोनों साथ मिलकर सरकार बनाये बैठे हैं पर उनमें एक विपक्ष की भूमिका भी निभा रहा है।  अब मुंबई महानगर पालिका में यही होने की तैयारी है।  ढाई ढाई साल में लिये दोनों दल मेयर बनाने जा रहे हैं। कायदा यह है कि एक मेयर बनाये तो दूसरा विपक्ष में बैठे पर दोनों धुर दक्षिणपंथी इस तरह की गोटिया बिछा रहे हैं कि प्रगतिशील और जनवादियों के लिये इधर न उधर जगह बचे।
                    समस्या यह है कि राष्ट्रवादियों के पास कोई वैचारिक, साहित्यक तथा सांस्कारिक प्रारूप नहीं है जिसके  आधार पर प्रचार में अपने लिये  अंक जुटा सकें। प्रगतिशील और जनवादी तो वैचारिक सम्मेलन कर लेते हैं पर राष्ट्रवादियों कोई ऐसी नीति नहीं बना सके जिससे वह उनके समानांतर चल सकें। इसकी बजाय वह भारत में धार्मिक सम्मेलनों का उपयोग करते हैं जहां भीड़ स्वतः आती है। इस तरह स्वतःस्फूर्त भीड़ के सामने  जनवादियों और प्रगतिशीलों के सेमीनार हाथी के सामने चींटी की तरह होते हैं।  हम जैसे अध्यात्मिक साधकों के लिये प्रतिदिन होने वाले यही समागम बौद्धिक शांति प्रदान करने वाले होते हैं। राष्ट्रवादी हमेशा ही जनवादियों और प्रगतिशीलों के सेमीनारों पर छींटाकशी करते हैं तब वह अनजाने में अपने ही प्रतिद्वंद्वियों को प्रचार भी कर जाते हैं पर देश में सामाजिक, धार्मिक तथा अध्यात्मिक समागमों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद राष्ट्रवादी कभी विद्वता की छवि नहीं बना पाते। इससे वह चिढ़ भी जाते हैं।
            एक स्वतंत्र लेखक होने के बावजूद तीनों विचाराधाराओं के लेखकों से हमारा दोस्ताना है-इसलिये इनके बीच अंतर्जाल पर होने वाले शाब्दिक द्वंद्वों से बच निकलते हैं। एक बात हम निसंकोच बता देना चाहते हैं कि राष्ट्रवादियों या दक्षिणपंथियों की अपेक्षा प्रगतिशीलों और जनवादियों की शाब्दिक शक्ति कहीं अधिक है तो अभिव्यक्ति की शैली भी अत्यंत तीक्ष्ण है।  इनका सामना करने वाले अध्यात्मिक तथा स्वतंत्र लेखक भी कम नहीं है पर राष्ट्रवादी उन्हें प्रोत्साहित नहीं करते।   कम से कम हमें एक बात की तसल्ली तो रहती है कि हम यहां अकेले ऐसे नहीं है जो डंड पेलते हैं वरन् स्वतंत्र तथा मौलिक लेखकों का एक बहुत बड़ा समूह यहां है जो अपनी शक्ति दिखाता है।    हम चाहते हैं कि जनवादी और प्रगतिशील विचारधारा भी बहती रहे पर अगर इसी तरह इनका राजकीय संबल टूटता रहा तो वह बाधित होगी तब हम जैसे चिंत्तकों के लिये लिखने के लिये भी कम बचेगा-यही चिंता का विषय है।
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