ऊंचे पद चाहें किताबें कभी नहीं पढ़े, चाटुकारिता से तख्त की सीढ़ी चढ़े।
‘दीपकबापू’ देखें नहीं काबलियत का सबूत, तारीफ उनकी जो धोखे से बढ़े।।
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चंदन तिलक लगाने से भक्ति न मिले, बड़े बोले से कभी शक्ति न मिले।
‘दीपकबापू’ धर्म की पोथी सिर पर रखे, भटका मन कभी आसक्ति न हिले।।
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तन का विकार दिखे मन समझे न कोई, बोला शब्द सुने सोच जाने न कोई।
‘दीपकबापू’ दोहरेपन जीने की आदत हो गयी, अपना ही सच माने न कोई।।
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दिल का मजा क्या जो पांव थका देता है, वह जोश क्या जो अक्ल पका देता है।
‘दीपकबापू’ बेचैनी लिये भागते इधर उधर, वह चैन क्या मिले जो दर्द बका देता है।।
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नदियों का जल समेटता समंदर गहरा है, सुंदर वन समेटे पहाड़ घाटियों का पहरा है।
‘दीपकबापू’ आकाश समेटे सूरज चंद्रमा तारे, तारीफ से उसे कैसे खुश करें वह तो बहरा है।।
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