वाणी पर सजे दरबार के बहुत नाम, जैसी जगह देखी वैसा लिया मुख से नाम।
‘दीपकबापू’ भक्त रूप धरा थैला फैलाते, चले सवारी राजमार्ग फकीर बस नाम।।
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जिन सामानों में चैन ढूंढा पुराने हो गये, जमीन पर उतरे बिना सपने पुराने हो गये।
‘दीपकबापू’ भक्ति में ही शक्ति पाई, ताजा रहा नाम साथ जो थे सभी पुरान हो गये।।
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कहीं रौशनी कहीं अंधेरा पल रहा है, कोई संयोग से खुश कोई वियोग जल रहा है।
‘दीपकबापू’ एक जगह कई नजारे देखें, किसी का सूरज उदय तो किसी का ढल रहा है।।
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मौसम के खेल में इंसान चला है, प्रतिकूल में लगे सब बुरा अनुकूल में सब भला है।
‘दीपकबापू’ अपने लिये सब सामान जुटाये, चिराग तो वह जो सबके लिये जला है।।
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अपनी आस्था भी सरेआम दिखाते, भक्ति में नाम पर शोर मचाना सिखाते।
‘दीपकबापू’ गवैये बन गये रुहानी उस्ताद, शार्गिदो को बस नचाना सिखाते।।
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