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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/7/07

घर से बाहर रोज निकलते हैं, कभी दिल से भी निकलें

अगर हम घर में लगातार बैठे रहते हैं तो एक समय ऐसा आ जाता है कि हमें बोरियत होने लगती है। हमें लगता है कि हम थक गये हैं , तब हमारा मन विचलित हो जाता है, हम सोचने लगते हैं कि कहीं बाहर घूमे आयें, और फिर हम वहां से निकल पड़ते हैं। जब घूम कर घर लौटते हैं तो वही घर हमें स्वर्ग लगाने लगता है जो पहले नरक की तरह लग रहा था। यह जो हमारे शरीर में मन है वह बहुत चचल है हम उसके हर इशारे पर नाचते हैं पर हमें पता ही नहीं लगता कि हमें कोइ नचा रहा है । हम अपने मन के दास बने रहते हैं पर लगता है हम स्वतंत्र हैं। मन चला रहा है और हम सोचते हैं कि हम चल रहे हैं। हम पूरी ज़िन्दगी इसी भ्रम में निकालते हैं कि हम कर रहें हैं पर करवाता मन है। सारा जीवन भौतिक वस्तुओं के संग्रह में निकाल देते हैं और खुश नही रह पाते । हमेशा एक खालीपन घेरे रहता है। पहले यह समझ लें कि हम हैं क्या? हम एक आत्मा है जो इस शरीर में स्वतंत्र विचरण करना चाहती है। वह पाने में नहीं त्याग में खुश होती है । वह ऐसे प्रेम की भूखी है जो निस्वार्थ हो। वह इस देह से ऐसा काम कराना चाहती है जो लोक और परलोक में भी हितकर हो और समस्त्जीवों के लिए हितकर हो।
हमें प्रकर्ति ने बुध्दी बहुत दीं है पर हम उसका दस प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं। हम लोगों में भी यह पूरा दस प्रतिशत वह लोग ही इस्तेमाल कर पाते हैं जो दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। वर्ना तो लोग जिस तरह शरीर से शरीएर से आलसी होते हैं उतने ही दिमाग से भी होते हैं। कई बार ऐसा मौका आता है कि हम अपने ही लोगों पर झल्लाने लगते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि हम व्यर्थ ही ज़िन्दगी बरबाद कर रहें हैं। हम ऐसे लोगों से भी चिढ जाते हैं जिन्हे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। दरअसल हम झूठे प्रेम और ममता मोह से अपने दिमाग में इतने विकार एकत्रित कर चुके होता हैं कि उसकी नसों में रक्त प्रवाह अव्रुध्द होने लगता है और फिर वह तनाव में आ जाता है । कहते हैं कि स्वस्थ आदमी के शरीर मैं ही स्वस्थ दिमाग रहता है। स्वस्थ शरीर का मतलब है जिसमें रक्त प्रवाह सब जगह पहुंचे। जैसे ही रक्त प्रवाह अव्रुध्द होने लगता है शरीर बीमार पड़ने लगता है। और हम मानसिक अवसाद का शिकार होने लगते हैं।
हम जिसे अपना ह्रदय या आत्मा समझते हैं वह हमारा मन है और झल्ला रहा है वह हमारी आत्मा, ह्रदय या कहें दिल है जो इन सांसारिक पदार्थों को इस्तेमाल करने से सन्तुष्ट नही हो सकता । वय एक तो परमात्मा की भक्ती से प्र्स्न्न्न होता है या निष्काम पेम, स्वर्थाराहित दया से हे उसे सन्तोष मिलता है। जिस तरह हमारा दिमाग एक जगह बैठकर घबडा जाता है वैसे ही हमारी आत्मा भी केवल इस देह का बोझ उठाते घबडा जाता है। हम समझ नहीं पाते उसकी व्याकुलता को।
आख़िर इसका उपाय क्या है ? क्योंकि अगर उपाय नहीं बताएँगे तो फिर इस चर्चा का कोइ मतलब नहीं रहेगा । इतनी चर्चा करने का मतलब यह था कि पहले उस हालत पर विचार कर लें जो हमारे साथ होती है पर हम उसे बयां करने के लिए शब्द नहीं ढूँढ पाते और तकलीफ भोगेते रहते है। इसका उपाय है चयन। कहीं एकांत, शांत और खुले स्थान पर हम सुखासन में बैठाकर ध्यान लगाएं । ध्यान यानी क्या? इसमें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। बस बैठाकर अपने आँखें बंद कर लें और सारा ध्यान नाक के ऊपर रखें आपके अन्दर जो विचारों का क्रम आयेगा उससे परेशान न होन- दरअसल वह विचार नहीं है , उसे तो अच्छा ही समझें। जैसे चाहे हम मिठाई खायें या करेला वह पेट में जाकर गंदगी में बदल जाता हैवैसे जो हम अच्छा या बुरा देखते हैं और सुनते है वह हमारे ख़ून में जाकर गंदगी में बदल जाता है। इन सबको निकलना जरूरी है। हम मित्र देखें या शत्रू ख़ून में जाकर दोनों का प्रभाव एक जैसा ही होता जैसा ही होता है। ध्यान में विचार आने का मतलब है कि जो हमारे दिमाग में आ रहा है वह गंदगी है और उस समल वहभस्म हो रहा है। शेष अगले अंकों में ।

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