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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/12/07

ज़िन्दगी के बदलते रंग

उनके इन्तजार में गुजारे कयी बरस
जिन्हें कभी हमारी याद न आयी
जब वह आये हमारे घर
उनका बदल रुप देखकर लगा कि
इससे तो इन्तजार ही अच्छ था
उनका चेहरा देखकर यूँ लगा
इससे तो उनका ख़्याल में ही
रहना अच्छा था
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वह कहते हैं हमसे हमसे बात करो
उनके मुख से निकले शब्द
तो ही हम कोई जवाब दें
वह श्रृंगार रस में अपने शब्द
नहलाने का दावा करें
पर हमें लगते हैं वीभत्स
उनके अलंकारों में होती है
तलवार जैसी धार
भारी-भरकम , लंबे वाक्य और
उबा देने वाले व्याख्या
सब तर्कहीन और अर्थहीन
कुछ समझें तो बोलें हम
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सपना टूटने का इतना गम नहीं होता
जितना सच के कठोर होने का
इसलिये कहते हैं कि सच के साथ
जीवन गुजारना सीखो
सपने तो चाहे जैसे जब देखो
पर जीवन से परे ही समझो
सबके सपने साकार होते तो
इन्सान देवता बन गया होता
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