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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/22/07

जिनपर माया का वरदहस्त, उनको मिलना ही चाहिए दर्शन का पहला हक:व्यंग्य व चिंतन

अगर कोइ दौलत,शौहरत और सुपर हिट बेटे और बहू वाला कोई शख्स किसी मंदिर के दर्शन करने जाता है और आम श्रध्दालू के लिए दर्शन बंद कर वहां के प्रबंधक उस महान शख्सियत को पहले दर्शन का अवसर देते है तो हमारे देश का मिडिया बहुत शोर मचाता है । किसी एक घटना का यहां उल्लेख करना बेकार -क्योंकि पिछले छह महीनों में ऐसा एक अभिनेता और दो दो मुख्यमंत्रियों की घटना तो चर्चा का विषय ज्यादा बनीं पर कुछ को थोडा ही कवरेज़ मिला। जब मैं अपना व्यंग्य या चिन्तन लिखता हूँ तो एक घटना से प्रभावित नहीं होता कयी घटनाएं घट चुकीं होतीं हैं तो कुछ वैसी ही घटने वाली होती हैं-और मैं सब पर ध्यान रखते हुए अपना चिंतन करता हीं । एक वाक़या जो मेरे साथ भी हो चुका है। मामला यह है जब कोई वी.आयी.पी.जब किसी मंदिर में दर्शन करने जाता है तो वहां आम आदमी का प्रवेश निशिध्द हो जाता। इस पर मीडिया तो नाराज होता है कुछ बुध्दिजीवी लोगों को भी भारी आपत्ति होती है मैं उनसे सहमत नहीं होता। वजह ! हमारे आध्यात्म में साकार और निराकार दोनों रुप में इश्वर की उपासना की जाती है। तुलसीदास, कबीरदास, रहीम, सूरदास, और मीरा जैसे संत-कवियों ने पद्य रचनाओं का न केवल हिंदी साहित्य में वरन हमारे अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सगुण और निर्गुण दोनों तरह की भक्ती का संदेश उनमें अंतर्निहित है। हमारे देश में गीता के संदेश के रुप में एक ऐसा ज्ञान है जिसको कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। जो हमारा इश्वर है वह हमारे मन में है, उससे बाहर ढूँढने के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। फिर भी मैं मंदिर जाता हूँ अपने इष्ट की बाह्य अनुभूति करना भी अच्छा लगता है। मतलब मंदिर जाने से अपने मन में एक स्फूर्ति पैदा होती है। जिस दिन मंदिर नहीं जाता उस दिन अटपटा लगता है। मतलब अपनी भक्ती का लोजिक मैं समझा नहीं सकता। एक बार मैं एक मंदिर गया, उस समय मंदिर में ज्यादा भीड़ नहीं थी , मैं मंदिर के अन्दर दाखिल हुआ तो एक वी.आयी.पी.भी वहां दाखिल हुए उनके साथ सुरक्षा गार्ड और अन्य लोग भी थे । मेरे देखते देखते सब लोग भगवान् की प्रतिमा के पास पहुंच गये। रोका तो किसी को नहीं गया पर उनकी भीड़ इतनी थी कि वहां अन्दर कोई खङा न रह सके । मैं एक तरफ खड़ा हो गया । अपने आप पर स्वयं पर ही रोक लगादी। जब वह चले गये तब मैंने वहां ध्यान लगाया । एक अन्य सज्जन भी मेरे साथ वहां मौजूद थे, जब मैं ध्यान लगाकर बाहर निकल रहा था तो वह मुझसे बोले ,"अच्छा ही हुआ जो आप और मैंने बाद में दर्शन और ध्यान किया। पहला दर्शन का हक इन्हीं बडे लोगों को ही है आख़िर इन पर भगवान् ने ख़ूब माया बरसाई है।" मैं हंस पडा तो फिर बोले -"बताईये लोग मंदिर में आकर भगवन से क्या माँगते हैं। मकान, दुकान, औलाद और तमाम के तरह के सुख ही न! जब इन लोगों को इतने सारे सुख मिल ही गये हैं तो इसका मतलब है कि भगवान् इन पर पर मेहरबान हैं। तो बताईये इनका पहला हक हुआ कि नहीं। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मैं निर्लिप्त भाव से वहां खङा था, मेरे मन में एक बार भी खिसियाहत का भाव नही आया था। जब उस अनजान व्यक्ति ने अपनी टिप्पणी दी तब भी मैं उसे अनसुना कर गया पर कुछ दिनों से जब ऎसी घटनाओं के बारे में पढ़ और सुन रहा हूँ तो मुझे यह घटना याद आती है। एक बात बात दूं कि न यह मेरे लिए गंभीर चिन्तन का विषय है न व्यंग्य का। हाँ, इतना जरूर कहता हूँ कि अगर तुम भगवान से कुछ माँगते हो तो यह भी मान लो कि जिनके पास दौलत, शोहरत पद और तमाम तरह के रुप में माया मौजूद है तो उसे भगवान् का प्रिय जीव मानने में संकोच क्यों ? और अगर निष्काम भाव से मत्था टेकना या ध्यान लगाने जाते हो तो फिर उनकी परवाह वैसे ही नहीं करोगे -किसी के कहने की जरूरत ही नहीं है, योगी और ध्यानी जानते है कि इश्वर की दरबार में सब समान है। यह तो माया का खेल है जो आदमी को वी।आयी.पी.का दर्जा दिलाती और छीनती है। खेलती है माया और आदमी सोचता है में मैं खेल रहा हूँ वह रहती है तो आदमी के मन में उसे बनाए रखने का भय भगवन के दरबार में ले जाता है और चली जाती है तो उसे मांगने अधिक जानता है। सच्च भक्त कभी इन चीजों कि परवाह नहीं करते। । जहाँ तक वी.आयी.पी.लोगों को अनेक मंदिरों में प्रबंधकों द्वारा विशेष अवसर देने का सवाल है तो यह माया है खेलती सबके साथ है और मंदिर में मूर्ती के निकट बैठने वाले पुजारी भी इसके खेल से बच नहीं सकते ।

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