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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/23/07

पुस्तकों का संग्रह, ज्ञान का प्रमाण नहीं

NARAD:Hindi Blog Aggregator

जब सामान्य आदमी के मन में हलचल होती है वह उसे शांत करने के लिए किसी ज्ञानी की तलाश करता है ताकि वह अपनी जिज्ञासा को शांत कर सहज हो सके। वह उन ज्ञानियों के पास जाता है जिनके पास ज्ञान के पुस्तकों का भण्डार हैं और उन्हें अलौकिक शक्तियों द्वारा रचित होने का प्रचार किया जाता है। सामान्य आदमी चुंकि अपने सांसरिक कार्यों में व्यस्त रहता है तो उसके बुध्दी भी वही तक रहती है और सोच का दायरा भी अपने परिवार और समाज इर्द-गिर्द रहता है उसे लगता है जिनके पास ऎसी ज्ञान की पुस्तकें है उनके पास ज्ञान भी जरूर होगा। पर जिनके पास तथाकथित रुप से अलौकिक पुस्तकों का भण्डार है उनके पास कोई बहुद बड़ा ज्ञान है यह जरूरी नहीं है, हमारे आध्यात्म-दर्शन के मतानुसार पुस्तकों को खरीदा जा सकता है पर ज्ञान को नहीं।

कई लोगों ने ऎसी पुस्तकों का संचय इसीलिये भी किया है कि वह समाज में उसे पढ़कर अपने ज्ञानी होने का प्रमाण पेश कर सकें , और कहीं कहीं उन्हें समाज की ठेकेदारी भी मिल जाती है और वह सौम्य और गंभीर चेहरा बनाकर लोगों के सामने आते है और अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर चलते जाते हैं। बदले में पाते हैं नाम, नामा और समान। उनके हाव-भाव देखकर ऐसा लगता है कि उनके पास ज्ञान का कोई खजाना है , पर यह उनका अभिनय होता है लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और और धर्म और भक्ती का वही आशय स्वीकार कर लेते हैं जो वह बताते हैं। अपनी बुध्दी एक तरह से उनके पास गिरवी रख देते हैं और ऐसे लोग जब कभी उनका इस्तेमाल करते हैं। कहीं तो कहीं ऐसे लोग अशांति फैलाने वाले तत्वों को प्रोत्साहन देते हैं ताकि समाज उनके पास शांति की याचना लेकर आये और फिर वह दिखा सकें कि वह वाकई ज्ञानी हैं।

ज्ञान कोई ऎसी वस्तु नहीं है जो किसी दुकान से खरीदा जा सके , न ही ज्ञान कोई ऎसी प्रवृति है जो किसी में न हो , हाँ बस यह कि अपने अन्दर उसके लिए चेतना लाना जरूरी है। जिनके पास सभी अलौकिक पुस्तकें हैं उनके पास ज्ञान भी है यह सोचना बेकार है क्योंकि ज्ञान का मतलब केवल उसे पढ़ना,सुनना, सुनाना और समझना-समझाना ही नहीं उसे धारण करना भी जरूरी है। ज्ञान का मतलब है कि हम उसे अपनाएँ भी वरना वह तो एक अक्षर ज्ञान से अधिक महत्व नहीं रखता। जिस तरह वाणिज्य,कला,और विज्ञान की उपाधि के बाद कुछ लोग अपने व्यवसाय् में लग जाते हैं और उनको मिली उपाधि उस शिक्षा के उपयोग न होने के कारण श्रीहीन हो जाती है पर जो उसके उस ज्ञान से संबंधित व्यवसाय से जुड़ जाते हैं उसका व्यवाहरिक अनुभव उन्हें उस क्षेत्र का विद्वान् या ज्ञानी बना देता है। वैसे ही जो ज्ञान की पुस्तकों का संग्रह करते हैं और अपना ज्ञान लोगों में बांटने का कम करते है उनका पहले आचरण भी देखना चाहिऐ कि वह उस पर अमल करते हैं या नहीं। अगर वह उन पुस्तकों से मिली शिक्षा पर अमल करते हैं तो वह वाकई ज्ञानी है और नहीं करते तो इसका मतलब यह कि उन्हें अक्षर ज्ञान है और उसका प्रभाव भी केवल सतही होता है। इसीलिये जब हम किसी को गुरू बनायें या किसी से किसी खास विषय पर ज्ञान प्राप्त कराने जाये तो यह देखना चाहिऐ कि वह वाकई ज्ञानी है या नहीं, कहीं केवल अभिनय तो नहीं कर रहा है इस देश में ज्ञान के नाम पर भ्रम बेचने वालों ली कमी नहीं है।शेष अगले अंक में

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक भारतदीप जी, आप के विचार बहुत सुलझे हुए हैं।आप की बात सही है जो अपने आचरण में अपनी कही बातें ना उतार सके वह मात्र अभिनय ही करता है।किताबों का संग्रह कर लेने से भी कोई ग्यानी नही हो जाता।लेकिन आज कल यही देखने मे आता है कि लोग गुरू का(जिसे वह अपना गुरू बनाना चाहते है)उन का नाम हो लोगो मे, बस यही देखते हैं। वह मात्र उन के अभिनय से ही प्रभावित हो कर उस के पीछे हो लेते हैं। इसी दोष के कारण आज देश पतन की ओर जा रहा है।भले ही आर्थिक रूप से आगे बढ रहा है।

Anonymous said...

लार्ड चैस्टरफिल्ड ने अपने पुत्र के नाम कई पत्र लिखे थे उनका एक पत्र आपकी बात को दोहराता है। जल्दी ही उसको प्रस्तुत करूंगी। अच्छे लेख पर बधाई।

हरिराम said...

सच कहा है -- "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय..." लोग गीता रामायण आदि रोज पढ़ते हैं, कहते हैं हमने पढ़ ली। किन्तु यदि पढ़कर परीक्षा नहीं दी, पास नहीं किया, प्रमाणपत्र नहीं मिला... तो क्या पढ़ा हुआ कहा जाएगा?

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