
जो मेरा इष्ट है वही तुम्हारा भी इष्ट है यह हम सब मानते हैं, फिर आख़िर यह झगडा क्यों होता है? केवल इसीलिये हे न कि उसके स्वरूप हम अलग देखते हैं। हम दावा करते हैं कि हम अपने इष्ट को मानते है पर हम उस इष्ट को अपने हृदय में धारण कितना करते हैं यह कभी सोचा ही नहीं । नाम लेकर नामा बटोरने चल पड़ते है और सोचते हैं कि हो गया हमारा जीवन धन्य ! हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए हैं कुछ को अवतार कहा जाता है तो कुछ को संत । यहां बता दें के हमारे समाज में संत और अवतार का दर्जा समान माना जाता है। क्योंकि संतों को गुरुओं के रुप में मान्यता मिलती है और कहा जता है कि गुरू ही गोविन्द के दर्शन कराते हैं इसीलिये वह बडे हैं। अवतारी पुरुष भी गुरू का सम्मान करना ही धर्म और भक्ती का एक हिस्सा मानते हैं-और यह बातें वही समझ पा ता है जो अपने इष्ट और गुरू को धारण करे। हमारे देश में कई गुरूओं के कई चेले मिल जाएंगे और अपने गुरुओं और इष्ट का बखान करेंगे जैसे आध्यात्म की बात न करके वाक्युध्दु कर रहे हौं । अपनी भक्ती अपने मन में रखने की बात होती है लोग चिल्लाकर उसका बखान करते है और होता यह कि कई जगह तो इस बात पर बात-बात में सामुहिक झगडा हो जाता है किसका इष्ट बड़ा है।
मैं अपने इष्ट और गुरू के बारे में मानता हूँ कि कोई उनके अपमान करने की ताकत ही नहीं रखता ! वजह साफ है कि मैं जानता हूँ कि मेरे इष्ट और गुरू मेरे मन में है कोई उन्हें देख ही नहीं सकता तो अपमान क्या खाक करेगा। अगर कोई व्यक्ति मुझसे आकर कहे कि अमुक व्यक्ति ने तुम्हारे गुरू और इष्ट का अपमान किया है तो मेरे अन्दर कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी -क्योंकि मैं समझता हूँ कि उस व्यक्ति के मन में कुछ ऐसा है जो वह अपना स्वार्थ सिध्द करना चाहता है-अगर सच्चा भक्त होता तो वहाँ से उठकर चल देता जहाँ निंदा रह रही थी। वह मुझसे अगर यह कहेगा कि तुम्हारा और मेरा इष्ट और गुरू है एक है और चलकर उस निंदक से लड़ते हैं तो भी मैं उसकी बात पर ध्यान नही दूंगा क्योंकि जिस इष्ट को मैंने धारण किया है उसके चरित्र से सीखा है कि आदमी को सहज भाव का त्याग नहीं करना चाहिए और युध्द अस्त्र-शस्त्र से नहीं बल्कि कुशलता से जीते जाते है और कभी कभी तो एसी कुशलता दिखानी चाहिए कि बिना हिंसा के ही युध्द जीत लिया जाये। मेरे गुरू ने मुझे सिखाया है कि दुष्ट लोग ही संतों और दुसरे के इष्ट पर आक्षेप करते हैं और वह लोग अपने पापों का बोझ इतना बड़ा लेते हैं कि एक दिन खुद उसके तले दबकर भारी तकलीफ में आ जाते हैं।
कुल मिलाकर भक्ती बाहर दिखने की चीज नहीं है वह तो अपने मन में धारण करने के लिए है क्योंकि उससे हमारे विचार और भाव शुध्द रहते है। हमारे इष्ट और गुरू का कोई अपमान भी कर सकता है यह मानने का मतलब ही यही है कि हमारे भक्ति-भाव में कहीं कोई कमी है जो हम उत्तेजित हो जाते हैं। अपमान एक खराब शब्द है तो उससे हम सुने ही क्यों ? जितने भी गुरू हुए हैं वह यही कहते हैं कि बुरा मत कहों, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो -क्या हमें अपने इष्ट और गुरुओं की बात नहीं माननी चाहिए । मैं अपने जैसे भक्तों से मुखातिब हूँ जो बडे भावुक होते हैं और उम्मीद हैं वह मेरी बात समझ ही गये होंगें - भले ही उनके गुरू और इष्ट का स्वरूप अलग हो पर हैं तो भक्त ही न ! जो भक्ती के अलावा और किसी बात पर ध्यान नहीं देते और कुछ लोग उनकी इस तल्लीनता में भंग डालने के लिए ऐसे मसले लाते है जिससे उनकी भक्ती और समाज की शांति में खलल पडे। ऐसे भक्तो को मेरा प्रणाम इस सलाह के साथ कि वह अपने भक्ती में तल्लीन रहें किसी की बातों में न आयें ।
3 comments:
दीपक जी,आप का लेख पढा। मन को छूँ गया। इस लेख को पढ़्ने के बाद जो मेरे मन मे आया वह कहता हूँ किसी ने कहा है-
"संतन के मन रहत है सब के हित की बात।
घट-घट देखे अलख को पूछे जात ना पात ॥"
बढि़या लिखा है...
अच्छा लिखा है. बधाई
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