आत्म प्रवंचना मनुष्य का स्वाभाविक दोष है जो उसकी मानसिक कुंठाओं, असफलताओं और निराशाओं से प्रकट होता है। यह मनुष्य की प्रवृति है कि वह चाहता है कि लोग उसकी और उसके कर्मों की प्रशंसा करे। इसलिये वह कुछ काम ऐसे चालाकी से करता है कि उसमें स्वार्थ तो उसका सिद्ध हो पर वह दूसरों के लिए हितकर लगे। उसके मन में परमार्थ का भाव बिल्कुल नहीं होता पर वह चाहता है कि उसकी छबि लोगों में एक परमार्थी की बने। यह संभव नहीं हो पाता। क्योंकि सभी लोग तो ऎसी ही चालाकी कर रहे हैं और इस कारण सब एक दुसरे की पोल जानते हैं और कोई एक दुसरे की प्रशंसा तब तक नहीं करता जब तक उससे स्वार्थ सिद्ध न हो और करते हैं भी हैं तो वह झूठी प्रशंसा। समाज में वास्तविक प्रशंसा उसी को मिलती है जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का वाकई कोई ऐसा काम करता है जिससे उसको लाभ होता है या प्रतिष्ठा बढती है तो उसे सच्ची प्रशंसा मिलती है। सबके लिए यह संभव नही है और सब करते भी कुछ नहीं पर लोगों कि मुख से प्रश्नासा सभी चाहते हैं और नहीं मिल पाती तो वह अपने मुहँ से अपनी प्रशंसा कर लोगों को बोर करते हैं।
जब लोग अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बनते हैं तो कोई सामने कहता कुछ भले ही न हो पर मन में या पीठ पीछे उससे अपने बोरियत का अहसास अवश्य व्यक्त करते हैं। अपने सामान्य दायित्व पूरा कर भी लोग समाज से प्रशंसा चाहते हैं। दुसरे के लिए करने का भाव विरलों में ही होता है पर दुसरे के श्रीमुख से प्रशंसा सुनने का लोभ पूरा न होते देख आत्मप्रवंचना में जूट रहते हैं, भला क्या यह संभव है। आप अपने घर के लिए शक्कर लाए और पडौसी उसकी मिठास को अनुभव करे। आप गाडी खरीद कर चलाये और उसका आनन्द दूसरा अनुभव करे। आप अपने कार्यालय में अपना नियमित दायित्व पूरा करें और आपके अधिकारी और सहकर्मी उसकी प्रशंसा करें।
ऎसी बातें संभव नहीं है। इसके लिए आवश्यक है कि आप अनचाहे ही सही थोडा बहुत ही सही परहित का कार्य अवश्य करें और खाली-पीली आत्म-प्रवंचना करेंगे तो मजाक का पात्र बनेंगे ही। प्रशंसा तभी मिल सकती है जब आप अपने कार्य से दुसरे का हित सिद्ध करें ।
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
-
*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
1 comment:
दीपक जी, इस लेख मे बहुत खरी-खरी बाते की है।एक भजन मे भी कहा है-"वैश्नव जन तो ते ने कहिए जो पीर पराई जाने रे"आप के ये विचार प्रशंसनीय है-"समाज में वास्तविक प्रशंसा उसी को मिलती है जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का वाकई कोई ऐसा काम करता है जिससे उसको लाभ होता है या प्रतिष्ठा बढती है तो उसे सच्ची प्रशंसा मिलती है। "
Post a Comment