लिख कर प्रशंसा और पैसा
पाने की चाहत
शब्दों का व्यापारी बना देती है
न साहित्य से वास्ता
न समाज के लिए बनाना रास्ता
कलम उगलती है नाश्ता
शौहरत की बुलंदी
थोडी सी आलोचना भी
भृकुटी तना देती हैं
लिखते हैं बहुत लोग
उनको पढ़ कर वाह-वाह करने
वाली भीड़ भी जुट जाती
शब्दों पर नहीं
अदाओं पर तालिया बजाती
अनर्थ से भरे
भाव से परे
लिखते हुए लोग
इलाज की बजाय ला रहे रोग
रुग्ण साहित्य न पढों
हर माँ इसलिए बच्चे को बताती
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शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
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