लिख कर प्रशंसा और पैसा
पाने की चाहत
शब्दों का व्यापारी बना देती है
न साहित्य से वास्ता
न समाज के लिए बनाना रास्ता
कलम उगलती है नाश्ता
शौहरत की बुलंदी
थोडी सी आलोचना भी
भृकुटी तना देती हैं
लिखते हैं बहुत लोग
उनको पढ़ कर वाह-वाह करने
वाली भीड़ भी जुट जाती
शब्दों पर नहीं
अदाओं पर तालिया बजाती
अनर्थ से भरे
भाव से परे
लिखते हुए लोग
इलाज की बजाय ला रहे रोग
रुग्ण साहित्य न पढों
हर माँ इसलिए बच्चे को बताती
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भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
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*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
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