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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/23/08

अमेरिका विरोध का तार्किक आधार क्या है?

भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग हमेशा अमेरिका का विरोध करता है और उसके तर्क हमेशा ही खोखले होते हैं। अमेरिका ने अमुक देश पर हमला किया और अमुक देश में वह दखल दे रहा है। वह एक पूंजीवादी देश है अपनी दादागीरी दिखाता है आदि-आदि तमाम तरह के तर्क देकर लोग उसका विरोध करते हैं। आजकल मध्य एशिया में उसकी उपस्थिति को मुद्दा बनाकर उसका विरोध हो रहा है।

मैं कोई अमेरिका का समर्थक नहीं हूँ और न ही उसका साथ भारत के राजनीतिक संबंधों का विश्लेषण कर रहा हूँ। मेरा इरादा तो अमेरिका के साथ सामाजिक, साँस्कृतिक और आर्थिक संबधों पर दृष्टिपात करना है जिसके कारण आज भी अनेक बुद्धिजीवियों के दुष्प्रचार के बावजूद इस देश के आम नागरिकों में अमेरिका की खराब छवि नहीं बन पायी है। अधिकतर उच्च शिक्षा प्राप्त लोग वहाँ जाकर रोजगार प्राप्त करने का सपना संजोये हुए रहते हैं।
अमेरिकी समाज खुलेपन का समर्थक है। वहाँ धर्म, जाति और भाषा के नाम पर कोई बन्धन नागरिकों पर जबरन थोपा नहीं जाता। वहाँ की व्यवस्था उदारीकरण की पोषक है। वह अपने यहाँ किसी संस्कृति और धर्म की आगमन पर विचलित नहीं होते। सबसे बड़ी बात भारत से गए लोगों को वहाँ आर्थिक, वैज्ञानिक, सामाजिक और साँस्कृतिक क्षेत्र में अपना मुकाम बनाने में जो सफलता मिली वह कहीं और नहीं मिली। अमेरिका का विरोध करने वाले किसी और देश का नाम बताएं तो जाने-हाँ ब्रिटेन और पश्चिमी रास्त्रों में कुछ लोगों को सफलता मिली है पर वह भी एक पश्चिमी राष्ट्र है और अमेरिका से उसका गठबंधन है। इसका अलावा अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्र कभी किसी पर अपनी संस्कृति थोपते नहीं है जबकि मध्य एशिया के राष्ट्र अपने राज्य की ताकत का उपयोग इसके लिए करते हैं। किसी दूसरे की संस्कृति न पनप सके इसलिए लिए कानून बना रखे हैं। आज हम अपने देश में जो पाश्चात्य सभ्यता फैलती देख रहे हैं वह लोगों की स्वेच्छा से फ़ैल रही है न कि कोई उन पर दबाव डाल रहा है।

कहने को मध्य एशिया में भारतीय भी बहुत हैं पर क्या वह अमेरिका की तरह खुली हवा में साँस ले पा रहे हैं? उस दिन मैं एक अख़बार में एक लेख पढ़ रहा था जिसमें इजरायल के साथ मध्य एशिया के अन्य राष्ट्रों पर धर्म के आधार पर आतंकवाद बढाने का आरोप लगाया गया था। अमेरिका अपने यहाँ हमले के बाद आतंकवाद से लड़ रहा है। उसमें शक्ति है और वह अपने दुश्मनों को निपटा रहा है-अपने दुश्मन को निपटाने के लिए किसी को कहीं भी हमला करने का अधिकार है।
हमारे दर्शन के अनुसार राजनीति में अपने देश के प्रजा की रक्षा के लिए सजग रहते हुए साम,दाम, दंड और भेद चारों नीतियों को अपनाना चाहिए।हमारे दर्शन में व्यक्ति को अहिंसा की मार्ग पर चलने के लिए कहा जाता है पर राज्य को अपने शत्रु पर हमला कर उससे प्रजा और उसके धर्म की रक्षा का सन्देश भी उसमें है। कहने से सब अहिंसक और मानवतावादी नहीं हो जाते इसलिए राज्य और राजा को अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हिंसा करनी ही पड़ती है। जिन विद्वानों ने लोगों को अहिंसक रहने का उपदेश दिया है उन्होने ही अपने देश की गुप्तचर व्यवस्था और सेना को मजबूत रखने का विचार दिया है। अपने गुप्तचरों के द्वारा शत्रु राष्ट्र की निगरानी करने का भी विचार दिया है।

अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है और उसे अहंकार है-यह मान लिया पर कहीं मानवाधिकारों का उल्लंघन का जिस ताकत से वह मामला उठाता है कोई अन्य नहीं उठता। वह जिन राष्ट्रों के खिलाफ लड़ रहा है मानवाधिकारों के मामले में उनका रिकार्ड बहुत खराब है।कहने को अमेरिका हमारे से दूर है पर हमारे आसपास पडोसी देश अपने यहाँ मानवाधिकारों का जिस तरह उल्लंघन कर रहे हैं उस पर भी वह उन देशों को धमकाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आप किसी व्यक्ति को अहिंसा के मार्ग पर चलने और साधू की तरह रहने के लिया प्रेरित किया जा सकता है पर किसी देश के राज्य प्रमुख को ऐसा सन्देश नहीं दिया जा सकता है। अमेरिका भारत का मित्र देश इसलिए है क्योंकि भारत उसके हितों को हानि नहीं पहुंचता जो उसका हानि पहुँचाते हैं उनको वह छोड़ता नहीं है। वह किसी का मित्र नहीं है उसके मित्र है अपने हित और जब उनको हानि नहीं पहुंचा सकते और ऐसा करने से हमारे देश को कोई लाभ नहीं है तो उसके साथ संबंधों में दूरी क्यों बनायी जाये? इसके साथ वह जिन देशों से लड़ रहा है क्या वह हमारे वास्तव में मित्र हैं या दिखावा करते हैं-यह देखकर ही अमेरिका का विरोध किया जा सकता है। अमेरिका के विरोध का कोई ठोस तार्किक आधार यहाँ के लोगों को समझ में नहीं आता। वैसे भी कौटिल्य के अर्थशास्त्र कि अनुसार अपने से संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र से संधि कर लेना चाहिऐ - क्या यह अमेरिका से मित्रता करने में लागू नहीं होता? अगर नहीं तो उसके ठोस विरोध का आधार क्या है? उसमें यह भी बताना चाहिए कि वह भारत को आगे किस तरह से हानि पहुंचा सकता है?

3 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

आपकी अनेक बातों से असहमत होना मुश्किल है. इसलिए भी कि मैंने खुद लगभग एक साल अमरीका में रहकर वहां के जन-जीवन को जितना देखा समझा, उसके अनुसार तो काफी कुछ अच्छा ही लगा. मैंने अपने अनुभवों को एक पुस्तक 'आंखन देखी' के रूप में संजोया है. हो सकता है, आपके इस ब्लॉग के पाठक उन अनुभवों को भी पढना चाहें. मेरी किताब इस लिंक से डाउनलोड की जा सकती है : http://www.esnips.com/doc/9d3b3377-0f3a-47e3-b698-2c0f0e6f6c98/Aankhan-Dekhi-by---Durgaprasad-Agrwal1

रवीन्द्र प्रभात said...

भाई , अमेरिका की कथनी और करनी में क्या फर्क है ,यह पूरा विश्व जानता है ! आपने अच्छा विषय अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है !

Anonymous said...

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