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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/1/09

योगशिक्षक होने का आशय अध्यात्मिक गुरु होना नहीं-आलेख

भारतीय योग एक प्राचीन ज्ञान है। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर भी कहा जाता है। योगासन,प्राणयाम, और मंत्रजाप की प्रक्रियायें योग साधना का भाग मानी जाती है। योगसाधना के द्वारा अपने शरीर,मन और विचार के विकार निकालने के बाद मनुष्य श्रीगीता का अध्ययन करे तो उसमें पूर्णता आती है। महर्षि पतंजलि द्वारा योग के सूत्रों का प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान श्री कृष्ण द्वार प्रदत्त सहज योग ज्ञान उसमें पूर्णता प्रदान करता है। इसलिये ही उनको योगेश्वर भी कहा जाता हैं।

वैसे तो पूरा भारतीय अध्यात्म ज्ञान ही स्वर्ण की खदान की तरह है पर योग और श्रीगीता का ज्ञान उसमें हीरे की तरह चमकते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के अनेक कथित संत और गुरु उसकी चमक दिखाकर अपने हित साधते हैं। यहां हम योग साधना और उसके शिक्षकों की बात करें। पहले यहां यह स्पष्ट कर दें कि योग गुरू केवल वही कहला सकता है जो योगसाधना के अलावा श्रीगीता का भी ज्ञान रखता हो क्योंकि शरीर,मन और विचारों के विकार तो योगसाधना से निकल जाते हैं पर फिर लौटने लगते हैं। दिन भर में यह विकार एकतित्र होकर आदमी को फिर मोह माया में फंसा देते हैं। अगर गीता के सहजयोग का ज्ञान हो तो फिर विकार अपना स्थान कभी नहीं बना पाते हैं। हमारे देश में अनेक योग शिक्षक हैं जो योगासन सिखाते हुए अध्यात्मिक गुरु कहलाने लगते हैं। यह सामान्य लोगों का भ्रम है। यही कारण है कि योग साधना सिखाने वाले अनेक गुरु चंदा और दान का संग्रह कर अपने आश्रम बना लेते है। यह आश्रम और दवाईयां बेचने का व्यवसाय करना बुरी बात नहीं है पर यह कार्य साधु का चोला ओढ़कर नहीं करना चाहिये।
हमारे देश में एक प्रसिद्ध योग शिक्षक हैं। सच बात तो यह है कि उनके योग सिखाने के कार्य की जो प्रशंसा न करे उसे अज्ञानी ही माना जाना चाहिये। इन पंक्तियों के लेखक ने कई बार अपने पाठों में उनकी प्रशंसा की है। योग साधना जीवन में व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली बनाती है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि योग शिक्षक अपने आपको अध्यात्मिक गुरु कहने लगें। वह भी ठीक है पर देश के भौतिक विकास की बात करने का आशय यही है कि उनको अपने शिष्यों पर ही भरोसा नहीं है। अगर हम सीधी बात कहें कि अगर आप अगर देश के एक बहुत बड़े वर्ग के लोगों का योग शिक्षा से सुसज्जित करे दें तो फिर कुछ और सिखाने की आवश्यकता नहीं है। फिर तो योग साधना व्यक्ति का स्वचालित बना देती है और वह विकास के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान के पथ पर चलता ही जाता है। हमारे देश में कोई भी विचार व्यक्ति,समाज और देश के क्रम में चलता है जबकि पश्चिमी विचारा धारा ठीक इसके विपरीत है। यानि जब आप सीधे देश के विकास या उद्धार की बात करते हैं तो इसका आशय यह है कि आप उस पाश्चात्य विचाराधारा के क्रम में जा रहे हैं जिसका विरोध स्वयं ही करते हैं। अगर आप यह कहते हैं कि योग के द्वारा आप इस देश में आर्थिक,सामाजिक, और अध्यात्मिक विकास चाहते हैं तो फिर आपका कर्तव्य इतना ही है कि आप अधिक से अधिक लोगों को योग साधना से जोड़ें तो यह काम स्वचालित ढंग से हो जायेगा। अगर आप ऐसा नहीं करते तो इसका आशय यह है कि आपको अपने और अपने शिष्यों पर भरोसा नहीं है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि आपने श्रीगीता के ज्ञान का अध्ययन नहीं किया और किया तो समझा नहीं।

इस देश में जितना योग पुराना है उतना ही उसको सिखाने के लिये गुरु परंपरा भी है। योग साधना का चरम रूप वह है जिसमें व्यक्ति अपना घ्यान जाग्रतावस्था में उस निरंकार से जोड़ लेता है जिसके स्वरूप की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। गुरु की शिक्षा की चरम सीमा वह है जिसमें उसका शिष्य उससे दूर होकर अपने प्रगति पथ पर चलता जाता है और उसके पास दोबारा लौटकर ज्ञान प्राप्त करने नहीं आता। लौटने का आशय यह है कि गुरु ने पूरा ज्ञान नहीं दिया। हम जिन योगाचार्य की बात कर रहे हैं उनको इस बात के लिये श्रेय दिया जाना चाहिये कि जब सभी चीजों का बाजारीकरण हो गया तब उन्होंने भी योग को वहां स्थापित किया। यह एक कठिन काम था पर उन्होंने किया। ऐसा नहीं है कि बाजार के बाहर कोई योग साधना सिखा नहीं रहा। भारतीय योग संस्थान एक ऐसी संस्था है जो देश ही नहीं विदेशों में भी योग साधना का काम बिना किसी लाभ के कर रही है। इन पंक्तियों के लेखक ने छह वर्ष पूर्व उसके शिविर में योगसाधना सीखी तो फिर पलट कर नहीं देखा-श्रीगीता का ज्ञान कितना विषद और सूक्ष्म है तब ही समझ में आया।

वह येागाचार्य जब श्रीगीता के संदेशों पर बोलते हैं तो हंसी आती है। श्रीगीता में कहीं भी देशभक्ति या विकास की बात नहीं कही गयी है। उसमें विज्ञान में रुचि लेने को कहा गया है पर धरती की कोई सीमा नहीं तय की। आप देखें कि इस समय पूरे विश्व का बाजार देश की सीमाओं को लांघकर इधर उधर फैल रहा है उस पर कोई टिप्पणी नहीं करता पर देश प्रेम की आड़ में लोगों के जज्बातों से खेलने का काम अब भी चल रहा है। योगाचार्य स्वयं ही विदेशों में योगसाधना सिखा रहे हैं तब वह अगर देश प्रेम की बात करते हैं तो फिर सवाल उठता है कि क्या वह केवल इस देश के ही गुरु हैं? भारतीय योग संस्थान निंरंतर अपने यहां योग साधकों में ही शिक्षकों का भी निर्माण करता जाता है ताकि यह क्रम निरंतर बना रहे। उन योगाचार्य ने केाई ऐसा प्रयास नहीं किया कि उनके बाद भी यह क्रम चले। दवाईयों और भक्तों के दान से उनको इतनी राशि मिली कि अपना आश्रम बना डाला। आप पूछिये कि जब यह आश्रम नहीं था तब क्या उनका काम नहीं चल रहा था। अब तो हमेशा ही कहते हैं कि ‘यहां आश्रम बनाऊंगा ओर वहां बनाऊंगा।’ इस पर हैरानी होती है।

सच बात तो यह है कि ईंट,पत्थरों और लोहे से बने यह आश्रम कभी न कभी ढहने हैं पर जो भारतीय योग तथा अध्यात्मिक ज्ञान है वह हमेशा ही शाश्वत रूप से बना रहेगा। महर्षि पतंजलि का कहीं कोई आश्रम नहीं दिखाई देता। कहते हैं कि वह अपने शिष्यों को पर्दे के पीछे से बैठकर बात करते थे क्योंकि उनके तेज को सहन करने की क्षमता किसी में नहीं थी। भगवान श्रीकृष्ण का कहीं कोई महल नहीं है पर उनका नाम पूरे विश्व में फैला है। हमारे देश के भक्तों के हृदयों में उनके महल इस तरह बने रहते हैं कि उनका कभी पतन नहीं होता। जब योग का नाम आता है तो महर्षि पतंजलि का नाम अवश्य लिया जाता है। श्रीगीता के ज्ञान पर वह प्रसिद्ध योग शिक्षक बोलते बहुत हैं पर समझते कितना है? यह अलग से चर्चा का विषय है।
निष्कर्ष यह है कि अगर आप योग साधना किसी से सीखते हैं तो मजे से सीखिये पर फिर पलटकर उसके पास मत जाईये। उसके बाद अगला लक्ष्य श्रीगीता को पढ़कर उसका ज्ञान प्राप्त करने में लगायें। याद रखिये। भगवान श्रीराम ने विश्वमित्र को अपना गुरु बनाया और उनसे शिक्षा प्राप्त की और फिर निकल पड़े अपने जीवन पथ पर। भगवान श्रीकृष्ण ने महर्षि संदीपनि से शिक्षा प्राप्त की और महाभारत युद्ध में श्रीगीता का ज्ञान स्थापित किया। गुरु कभी समाज का स्वये नायक न बनकर अपने शिष्यों को बनाते हैं। पुज्यनीय बने रहते हैं पर आजकल के अनेक अध्यात्मिक गुरु तो नायकों की तरह दिखना चाहते हैं और अपने आसपास फिल्मी तारिकाओं का इसलिये जमावड़ा लगाते हैं ताकि भक्तों पर प्रभाव बढ़े।
वह योगाचार्य पहले आसन सिखाने के लिये कोई व्यक्ति रखते थे पर अब स्वयं ही करते हैं। कहीं सुनने को मिला कि जो व्यक्ति करके दिखाता था वह उन योग शिक्षक की बराबरी का ही था पर योगाचार्य अब समाज में प्रसिद्ध हो गये था इसलिये उसे वह भाव नहीं दे रहे थे। शायद धन को लेकर मतभेद हो गये और वह उनका साथ छोड़ गये। अब उन योगाचार्य द्वारा आसन करने के बाद माईक पर बोलते हुए हांफने की आवाज टीवी पर सुनने को मिलती है। यह आवाज किसी भी व्यक्ति में नकारात्मक भाव पैदा करती है जो कि योग साधना के विपरीत है। सच बात तो यह है कि कहते हैं कि माया बड़े बड़े ज्ञनियों को अपने फंदे में फंसा लेती है। वह योगाचार्य जब आश्रम बनाने और देश और समाज के विकास की बात करते हैं तो ऐसे लगता है कि माया ने उन पर अपना प्रभाव दिखा दिया है। भले ही वह श्रीगीता के ज्ञान की बात करते हैं पर अगर उसके आधार वह आत्ममंथन करें तो उनको यह अनुभव होगा कि जिस माया को सामान्य आदमी अपनी जेब में और संत पांव तले रखते हैं वह उन पर सवारी कर रही है। मगर आत्म मंथन करना भी इतना आसान नहीं है जब यह भ्रम हो जाये कि हम ही परमज्ञानी हैं।
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1 comment:

arun prakash said...

सही कहा है आपने , पूरी तरह से सहमत योग का बाजारीकरण करते करते योग गुरु दंभ व अहंकार में चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर बैठे हैं उन्हें लगता है की लाचार व रोगी व्यक्ति जो निदान की तलाश में आ रहे हैं वो सब उन्हें जीता कर लोक सभा में भेज देंगे व वे देश को आधाय्तमका गुरु बना देंगे
मीडिया के मोह जल में फंस कर योग गुरु अपने मूल कार्य से भटक गए हैं तथा उन्हें छपास का रोग लग गया है

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