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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/1/09

मजदूर दिवस: श्री गीता के अनुसार अकुशल श्रम को हेय न समझें-आलेख

आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे दर्शन में मजदूरों के लिए कोई सन्देश नहीं है पर उसमें मनुष्य में वर्गवाद के वह मन्त्र नहीं है जो समाज में संघर्ष को प्रेरित करते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो उसमें पूंजीपति मजदूर और गरीब अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का सन्देश है। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
न द्वेष्टयकुशर्ल कर्म कुशले नातुषज्जजते।
त्यागी सत्तसमाष्टिी मेघावी छिन्नसंशयः।।
"जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।"

श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
स्वै स्वै कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।
सव्कर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
अपने अपने स्वाभाविक कार्ये में तत्परता से लगा मनुष्य भक्ति प्राप्त करते हुए उसमें सिद्धि प्राप्त लेता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि प्राप्त करता है उस विधि को सुन।

यतः प्रवृत्तिभूंतानां वेन सर्वमिद्र ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्तपति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है ।
श्री गीता में ही हेतु रहित दया का सन्देश तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्री माने जाते है जिन के विचारों पर गरीबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था "दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ"।
शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं तो कहीं न कहीं समाज में विघटन के बीज बोते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीगीता में अपने स्वाभाविक कर्मों में अरुचि न दिखाने का संदेश दिया गया है। सीधा आशय यह है कि कोई भी काम छोटा नहीं है और न तो अपने काम को छोटा और न किसी भी छोटा काम करने वाले व्यक्ति को हेय समझना चाहिये। ऐसा करना बुद्धिमान व्यक्ति का काम नहीं करना चाहियैं। कई बार एसा होता है कि अनेक धनी लोग किसी गरीब व्यक्ति को हेय समझ कर उसकी उपेक्षा करते हैं-यह तामस प्रवृत्ति है। उसी तरह किसी की मजदूरी कम देना या उसका अपमान केवल इसलिये करना कि वह गरीब है, अपराध और पाप है। हमेशा दूसरे के गुणों और व्यवहार के आधार पर उसकी कोटि तय करना चाहिये।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है उसके व्यवसाय और आर्थिक शक्ति पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था पर वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।
कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।
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