समलैंगिकता एक अप्राकृतिक संबंध है जो केवल मनोरोग का परिणाम ही हो सकता है। अगर हम अपने मनुष्य देह के अहंकार को छोड़ दें तो हम इस प्रकृत्ति में अन्य जीवों से अलग नहीं है। हां, शरीर की बनावट और बुद्धि की व्यापकता के कारण हम अन्य जीवों से अधिक सक्रिय और शक्तिशाली बन जाते हैं। हाथी और सिंह न हथियार बनाते हैं न चलाते हैं पर हम अपने द्वारा अविष्कार किये गये अस्त्र शस्त्रों से उन्हें मार डालते हैं पर निहत्थे होने पर हम में से किसी को साहस नहीं हो सकता कि जाकर इनसे लड़े। कहने का तात्पर्य यह है कि हम इस प्रकृत्ति में एक जीव भर हैं और केवल सामान्य कर्म को छोड़कर हमारी आवश्यकतायें अन्य जीवों से अलग नहीं है।
कुत्ता, बिल्ली, शेर, हाथी, चिड़िया या अन्य पशु पक्षी-जिनमें नर मादा का विभाजन किया जाता है-विपरीत लिंगों में ही अपने दैहिक और भावनात्मक संपर्क बनाते हैं। शायद ही कोई ऐसा जीव हो जो समलैंगिक संपर्क बनाता हो पर बौद्धिक रूप से सर्वाधिक शक्तिशाली मनुष्य को पता नहीं कहां से इस तरह का ख्याल भी आता है।
सच है इस सृष्टि को रचने वाले ने आदमी को शरीर की बनावट लोचदार और बुद्धि तीक्ष्ण दी है तो उसके खतरे भी बहुत दिये हैं। कभी कोई पशु पक्षी आत्महत्या नहीं करता और न ही समलैंगिक संबंधों में लिप्त रहता है। कहते है न कि जिस चीज में जितनी अच्छाईयां होती है तो उतनी ही बुराईयां भी होती हैं। धन न होना बुरा तो अधिक होना उससे भी बुरा! यही हाल बुद्धि का है। नहीं है तो भी बुरी और अधिक है तो वह भी बुरी।
आवारा कुत्ते आठ या दस होते हैं पर कुत्तिया एक, पर वह सभी उसी के पीछे लग जाते हैं। आपस में टकराते हैं पर कभी समलैंगिक संबंध बनाते उनको नहीं देखा। एक आश्चर्य की बात है कि जब कुत्तों की यौनक्रीड़ा का जो मौसम होता है उस समय कुत्ते अधिक दिखते हैं कुतिया कम-तब लगता है कि क्या उन्होंने भी इंसानों से मादा भ्रुण को गर्भ में ही निपटाने का कार्यक्रम तो कहीं नहीं चला रखा। खैर यह मजाकिया प्रसंग है जो यह बताने के लिये लिखा कि इस प्रकृत्ति के जीवों के दैहिक और भावनात्मक संबंध हमेशा ही विपरीत लिंग में बनते हैं। इसलिये समलैंगिक संबंध बनाने के लिये आतुर लोगों को चाहिये कि जब उनके दिमाग में ऐसे ख्याल हैं तो वह मनोचिकित्सकों के पास जरूर जायें। एक परिणामहीन दैहिक संबंध किसी भी दृष्टि से उनका हित नहीं कर सकता।
इसके बावजूद ऐसे मनोरोगियों के विरुद्ध कोई सार्वजनिक अभियान छेड़ने पर भी असहमति है। सुनने में आया है कि कुछ सामाजिक और धार्मिक ठेकेदार इसके लिये कमर कस रहे हैं? इससे उन लोगों को अवश्य असहमति होगी जो आदमी को स्वतंत्र रूप से रहने से रोकने के लिये बाध्य करने के विरोधी है। याद रहे, यह भी पश्चिम से आयातित मनोविकार है और यह उन्हीं सुख सुविधाओं की वजह से यहां आया जो अपने देश के आदमी द्वारा उनके उपभोग से शारीरिक परिश्रम कम होने के कारण मानसिक संतुलन बिगाड़ने वाली होती है। यह जरूरी नहीं है कि सभी का बिगड़े पर जिनका बिगड़ गया उन पर आक्रामक कार्यवाही की जाये इस पर अनेक लोग असहमत हैं। इन्हीं सुख सुविधाओं का यही सामाजिक ठेकेदार भी उपयोग करते हैं।
फिर एक दूसरी बात यह है कि इस देश में समलैंगिक संबंध कोई समूचा समाज नहीं बनायेगा। अलबत्ता प्रचार माध्यम जरूर कहीं न कहीं से एकाध घटना लाकर उसे प्रसिद्धि देंगे जैसे कि आपरेशन से स्त्री के पुरुष और पुरुष से स्त्री बनने की घटनाओं को देते हैं। यह समस्या इतनी छोटी है जैसे ऊंट के मूंह में जीरा। देश में ढेर सारी समस्यायें हैं जिनसे शहर के शहर प्रभावित होते हैं पर कोई सामाजिक या धार्मिक संगठन उसके लिये आगे नहीं आता। हां, बरसात नहीं हो रही थी और जब उसके आने समय निकट आ गया तो तमाम तरह की पूजा अर्चना और अनुष्ठान सभी कथित धर्मों और समाज के शीर्षस्थ ज्ञानियों ने किये ताकि उनके समाज को लगे कि वह कितने उनके लिये फिक्रमंद हैं। यह वाक्या भी कुछ ऐसे ही लग रहा है कि समस्त सामजिक और धार्मिक संगठनों के शीर्षस्थ लोग एक हल्की समस्या पर सस्ते में बोलकर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
कहीं किसी अस्पताल में जब हड़ताल होती है तो पूरा शहर त्रस्त होता है। उससे भी अधिक देश में जो भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता की हालत है उसके लिये किसी सामाजिक या धार्मिक ज्ञानी पुरुष को बोलते हुए नहीं देखा गया। किसी ने मिलकर देश की बड़ी समस्याओं के हल के लिये आंदोलन नहीं छेड़ा।
तात्पर्य यह है कि समलैगिक संबंध नहीं होना चाहिये पर होते है तो उनको रोकने जबरन प्रयास करने की बजाय समझाइश का प्रयास करना ही अच्छा है। यह काम सामाजिक तथा धार्मिक ज्ञानियों का है पर वह इससे बचने के लिये कानून बनाने की मांग करते हैं तो सवाल यह है कि आखिर उनका काम क्या है? सामाजिक तथा धार्मिक होने की वजह सुख सुविधायें भोग रहे यह शीर्षस्थ विद्वान और समाज सेवक उनका त्याग कर जमीन पर आकर ऐसे लोगों को समझाने के लिये अपनी देह को कष्ट क्यों नहीं देते। वह जाकर ऐसे मनोरोगियों को समझाते नहीं कि यह काम तो पशु पक्षी भी नहीं करते। उनको यह प्रयास करना चाहिये कि आदमी स्वतंत्र ढंग से सोचते हुए अच्छे मार्ग पर चले न कि उसे लट्ठ से जबरन चलाया जाये।
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5 comments:
लानत है ऎसी सोच वालो पर जो इसे उचित मानते है.सच मै हम इस जानवरो से भी गये गुजरे हो गये है क्या ???
बिलकुल सहि कहना है आपका, हम पशुओ से भी गये गुजरे हो गये कम से कम पशु प्रक्रिति द्वारा बनाये नियमो का उलघ्घंन तो नहि करते।
अरे भाइयों, इंटरनेट खँगालो। मानवों ने पशुओं में भी इस प्रवृत्ति को खोज लिया है।
कैसे मान लिया कि हम पशु नहीं हैं और जो हममें है वो पशुओ में नहीं है?
यह विषय शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान से समबन्धित है. इस विषय पर अध्ययन की जरूरत है.
Mai ise nisargdatt "dosh" yaa "vikalangata" maan sakti hun, lekin gunah nahee...gar ye log paidahee aise hue hain, to yaa unpe upchar ho yaa, unhen akela chhod diya jay..isse adhik kya kahun?
Pashu pakshi to ekhee saathee se samabandh nahee rakhte, to kya insan bhee vivah sanstha se bahar ho,ek tarah kee arajktaame shamil ho jay?
Mera in vishayon pe adhik abhyas nahee...lekin sochneke liye aur bohot zarooree vishay hain...jaise ki, nasht hota paryawaran, aatankwaad, jaati-dvesh...
Oh...aur Girijesh ji ki tippanee padhee...ab to pashuon kaa bhee udaharan nahee de sakte!
Sanjay Benganee bhee theek hee keh rahe hain!
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