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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/20/09

श्रीगीता की किसी अन्य ग्रंथ से तुलना ठीक नहीं-आलेख (shri gita and other holly books)

यह एक टिप्पणी जो उस ब्लाग पर नहीं रखी जा सकी जिसमें श्रीगीता के युद्ध की चर्चा करते हुए उस ब्लाग लेखक ने अपनी ही पवित्र पुस्तक में वर्णित युद्ध विषय से तुलना की थी। वह ब्लाग लेखक गैर हिन्दू धर्म-याद रहे यहां उसके लिये गैर हिन्दू शब्द उपयोग नहीं हो रहा-विचारधारा मानने वाला है। वह एक दिलचस्प आलेख था। लोग पूछेंगे कि आखिर यह टिप्पणी उस पर क्यों नहीं रखी गयी?
इसका जवाब यह है कि यहां टिप्पणी लिखने पर लोग कुछ का कुछ अर्थ समझ लेते हैं। ऐसे में दूसरे के ब्लाग पर चर्चा के लिये बड़ी टिप्पणी लिखने का अपना खतरा होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे के घर जाकर अपनी बात कहने से अच्छा है कि अपने घर में ही बात की जाये। फिर श्री गीता जैसे गंभीर विषय पर किसी से वाद विवाद करना भी एक तरह से मजाक लगता है। यह दुनियां का इकलौता ग्रंथ है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है और इसकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से करना ठीक नहीं प्रतीत होता।
यह रूढ़ता या अहंकार नहीं बल्कि श्रीकृष्ण जी का आदेश है कि उनके संदेश का प्रचार केवल अपने भक्तों में ही किया जाये। दूसरी बात यह है कि श्रीगीता के संदेश को पढ़ने, सुनने और समझने के लिये जिस धीरज की आवश्यकता है वह हरेक में नहीं होता। फिर जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के समक्ष जब अन्य विचारधारा को स्थापित करने के प्रयत्न कर रहे हों उनके सामने तो श्रीगीता के संदेश का प्रचार करना परेशानी का कारण भी बन जाता है।
मुख्य बात यह है कि मनुष्य का मन और स्वभाव! जिन लोगों ने तय कर लिया है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में अप्रासंगिक संदेशों का नकारात्मक प्रचार करेंगे उनको समझाने से अच्छा है अपनी बात उनसे कही जाये जो ऐसे प्रचार से विचलित हो जाते हैं।
श्रीगीता में मांसाहार तथा दूसरे की आजीविका छीनने का प्रयास तामसी माना गया है। इतना ही नहीं भगवान भक्ति के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करने के मत का खंडन भी किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता में समग्र जीवन सहजता पूर्वक व्यतीत करने के लिये ज्ञान दिया गया है। अब लोगों को केवल युद्ध ही युद्ध दिख रहा है तो उनको समझाना मुश्किल है। श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो मुझे जैसा भजता है वैसा ही फल उसे मिलता है। जिनको युद्ध ही युद्ध दिख रहा है उनके लिये फल भी युद्ध ही है। ऐसे में शांतिप्रिय मनुष्य के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने सत्संगियों से ही ज्ञान चर्चा करे।
आपका लेख बहुत अच्छा लगा। आपके इस पाठ पर मैं आपके श्रीगीता संबंधी विषय का उत्तर दूंगा।
पहली बात तो यह है कि श्रीगीता में युद्ध से संबंधित सैंकड़ों श्लोक नहीं है। दूसरी बात यह है कि श्रीगीता विश्व की इकलौता ऐसा ग्रंथ है जिसमें तत्व ज्ञान के साथ ऐसा विज्ञान भी है जिससे संसार को समझा जा सकता है। इसका एक सिद्धांत हैं-‘गुण ही गुण को बरतते हैं।
श्रीकृष्ण जी जानते थे कि श्रीअर्जुन एक क्षत्रिय है और कभी न कभी अपने युद्ध कौशल के कारण यह युद्ध अवश्य करेंगे। श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि यह युद्ध कौरवो के संपूर्ण सफाये के बिना समाप्त हो। अगर उस समय अर्जुन युद्ध नहीं करते तो वह बाद में भी इसके लिये आगे आते। वह क्षत्रिय थे और इससे दूर रहना संभव नहीं था पर श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में वह कुछ कौरवों को छोड़ सकते थे। इससे पूर्व विराट नगर में हुए युद्ध में अकेले अर्जुन से कौरव पराजित होकर भाग निकले और श्रीकृष्ण अब ऐसा अवसर उनको महाभारत के युद्ध में नहीं देना चाहते थे-याद रहे उनकी अनन्य भक्त द्रोपदी ने उनसे कौरवों के सर्वनाश का वरदान मांगा था। यहां यह बता दें क्षत्रिय से आशय राज्य से मान्यता प्राप्त सैनिक से है न कि हर किसी हथियार पकड़ने वाले से। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दें कि आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर चले बिना रह नहीं सकता जैसे कि कुछ लोग भारतीय अध्यात्म में केवल जातिपाति और युद्ध ही ढूंढते हैं।
महाभारत युद्ध में निहत्थों और युद्ध न कर रहे व्यक्ति पर प्रहार न करने के नियम का पालन किया गया था। अभिमन्यु के शहीद होने के बाद इस नियम में ढील आ गयी। युद्ध में छिपकर वार करना भी वर्जित था।
बात नंबर दो। भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध का संदेश केवल अर्जुन को दिया था न कि आगे आने वाले हर भक्त को इसकी इजाजत दी या आव्हान किया। उन्होंने अर्जुन से कहा‘यह युद्ध तू मेरे लिये कर!’
वह जानते थे कि युद्ध और हिंसा अपराध है और इसका प्रायश्चित भी उन्होंने किया। युद्ध के बाद उन्होंने गांधारी का शाप ग्रहण किया जिससे उनके स्वयं के पूरे वंश का नाश हो गया। उनके पुत्र तथा परिवार में अन्य सदस्य भी न बचे। धर्म के लिऐ ऐसा निर्मोही इतिहास में हुआ हो इसका ज्ञान हमें नहीं है। फिर महाभारत के युद्ध का पाप अपने ऊपर लेेते हुए बहेलिये का बाण अपने पांव पर लेकर परमधाम गमन किया। ऐसा भी विश्व इतिहास में ऐसा कोई नहीं हुआ जिससे हिंसा और युद्ध का परिणाम स्वयं ग्रहण किया हो। वह इस युद्ध के द्वारा अपना संदेश देना चाहते थे वह भी अपने भक्तों में प्रचार के लिये न कि जबरन दूसरे को सुनाने के लिये।
उनके बाद का समाज उनके अहिंसा के संदेश के कारण ही हिंसा से दूर रहता है क्योंकि वह जानता है कि अब हिंसा के अपराध का दंड अपने ऊपर लेने के लिये कोई दूसरा नहीं है। इसके अलावा उन्होंने जो संदेश दिये उनके बारे में आपसे कहना क्या? तीन प्रकृत्ति के मनुष्य-सात्विक, राजस और तामस-इस धरती पर विचरेंगे। चार प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी,जिज्ञासु और ज्ञानी-भी होंगे। श्रीगीता हमारे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का आधार है और उसके अनुसार यह संभव नहीं है कि सभी लोग सात्विक और ज्ञानी बन जायें। ऐसी सुखद कल्पना सच्चे ज्ञानी नहीं करते। मनुष्य को ज्ञान ग्रहण कर स्वयं ही अपनी राह चलना चाहिये और दूसरे जिस प्रकार के हों उसके अनुरूप ही उनसे व्यवहार करना चाहिये न कि उनको अपने जैसा बनाने में अपनी जिंदगी बर्बाद करना चाहिये। अपनी भक्ति का अहंकार दिखाकर दूसरे को भी अपने जैसा दिखने के लिये प्रेरित या बाध्य करने वाले नष्ट हो जाते हैं।
स्पष्टतः श्रीगीता में युद्ध शब्द क्षत्रियों-राज्य से मान्यता प्राप्त सैनिकों के लिये-के लिये स्वाभाविक कर्म तो अन्य के लिये सामान्य कर्म से है। श्रीकृष्ण जी योगेश्वर थे और इसलिये उन्होंने इस बात का ध्यान रखा था कि श्री अर्जुन को युद्ध का संदेश इस तरह दिया जाये कि आगे आने वाले भक्त कर्म के रूप में ही समझें क्योंकि अहिंसा के संदेश के साथ ही उन्होंने आगे ऐसे किसी युद्ध की संभानायें समाप्त कर दीं।

अंत में यह कहना भी जरूरी है कि उनका यह पाठ पढ़कर बिल्कुल गुस्सा नहीं आया। श्रीगीता के ज्ञान की थोड़ी समझ रखने वाला व्यक्ति भी न तो दूसरे द्वारा निंदा करने पर दुःखी होता है न प्रशंसा पर फूल कर कुप्पा होता है। हां, हम इतना जरूर कहते हैं कि भई सारी दुनियां के धर्म ग्रंथ पवित्र हैं। उनका खूब आदर करो। आप चाहे किसी भी धर्म के हों अपने पवित्र किताब का खूब प्रचार करो। हमारी श्रीगीता की आलोचना करो तो भी दुःख नहीं है। प्रशंसा करो तो आपकी मर्जी! मगर तुलना करने से पहले इसका पूरा अध्ययन करना जरूरी है। दरअसल श्रीगीता का असली संदेश तो श्री अर्जुन को युद्ध करने का इसलिये दिया गया था क्योंकि उनका यह स्वाभाविक कर्म था। इसका आशय यह है कि श्रीकृष्ण हर भक्त को अपना स्वाभाविक कर्म करते भगवान भक्ति के साथ जीवन व्यतीत करने संदेश दे रहे थे। वैसे मनुष्य का स्वभाव आसानी से नहीं बदलता। जिसका जैसा स्वभाव है वैसा ही वह इस दुनियां को देखेगा भी। हां, उसमें परिवर्तन के लिये एक ही प्रयास हो सकता है वह योगासन और प्राणायम! जो लोग भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे हैं उनसे ऐसी अपेक्षा करना नहीं चाहिये कि वह हमारे धर्म ग्रंथों का सम्मान करें और जितना उनमें ज्ञान है उसके रहते हुए वह किसी के मोहताज भी नहीं है। श्रीगीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसके लिये प्रशंसात्मक शब्द कहने की बजाय उसका अध्ययन किया जाना चाहिये। इसका थोड़ा अंश भी समझ पायें तो समझिये भगवान की बहुत कृपा है। हम उस ब्लाग लेखक के भी आभारी हैं जिनकी वजह से यह पाठ लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि उससे हमारा कोई विरोध है। श्रीगीता पर लिखने की प्रेरणा देने वाले व्यक्ति का आभार व्यक्त न करना कृतघ्नता होगी। शेष फिर कभी!
नोट-इस पाठ पर किसी का नाम लेकर टिप्पणी करना स्वीकार्य नहीं होगा। अपना विचार व्यक्त करना ठीक है पर उसके लिये किसी व्यक्ति का नाम लेना उचित नहीं है।...........................................
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