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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/30/09

जो कह न सके-आलेख (yogsadhna and shri gita-hindi article

उस पिकनिक हम सब आम लोग ही थे पर दूसरों से कुछ अलग! हम सभी नियमित योग साधना करने वाले लोग थे। योगी कहना कठिन है क्योंकि हम में से कोई गेहुंआ वस्त्रधारी नहीं था। इतना जरूर है कि सामान्य लोगों से अलग होने का अहसास इस तरह की पिकनिक में लगता है क्योंकि वहां केवल योग से संबंधित विषय पर ही आपस चर्चा होती है।

यह पिकनिक योग सीखने और सिखाने वाले शिक्षकों और साधकों को आपसी मेल मिलाप के लिये आयोजित की जाती है। कुछ अंतर इस पिकनिक अन्य के मुकाबले नजर आया। पैंतालीस पैंतालीस मिनट के तीन सत्रों की चर्चा के दौरान कवितायें, विचार, चुटकुले और योग संबंधी चर्चायें हुईं। दूसरा खाना लेट होने या उससे परेशान होने की बात लोगों में नहीं दिखाई दी। खाने खाते समय ऐसा नहीं लगा कि लोग उस पर टूट पड़े हों। यह सिद्ध लोगों की बैठक नहीं थी-क्योंकि इसमें नौकरी और व्यापार के साथ अन्य व्यवसाय करने वाले लोग शामिल थे। सबसे बड़ी बात यह है कि वहां कोई अपनी बीमारी की चर्चा कोई नहीं कर रहा था जो कि इसका प्रमाण था कि वहां योग साधक लोग ही आये थे।
इसके आयोजक वह लोग थे जो निष्काम भाव से न केवल योग शिविरों में जाकर सिखाते हैं बल्कि उसके प्रचार के लिये भी कार्य करते हैं। उनकी साधना का तेज उनकी बातों में देखा जा सकता है।
एक महिला ने ध्यान करवाया और उसने शरीर के सात चक्रों पर अपना प्रकाश डाला। उसकी बातें सुनकर तो ऐसा लगा कि लोग पता नहीं क्यों अपनी बीमारियों के लिये चिकित्सकों के यहां चक्कर लगाते हैं जबकि उसको सही करने के साधन ही अपने अंदर मौजूद हैं। एक महिला ने सूर्य नमस्कार पर प्रकाश डाला।

इस पिकनिक में एक ऐसी महिला भी दिखाई दी जिसे हम बहुत पहले जानते थे। वह बहुत मोटी थी। एक विवाह समारोह में वह मिली थी तो वह अन्य भद्र महिला से अपनी मधुमेह की बीमारी का जिक्र कर रही थी। अब उसे शायद पांच वर्ष बाद देखा होगा। वह हमें पहचान नहीं पायी पर हमें उसका चेहरा याद था। अब वह उतनी मोटी नहीं दिख रही थी न उसके चेहरे पर निराशा का भाव दिख रहा था जो शादी में देखा था। उम्रदराज हैं पर पहले के मुकाबले अधिक ढंग से मजबूत दिख रही थी। कहने का तात्पर्य यह है कि नियमित योगसाधना का लाभ उनके चेहरे पर दिखाई दे रहा था।
एक मित्र से चर्चा हुई। वह इस बात से निराशा थे कि वहां एक भी नवयुवक या नवयुवती नहीं दिखाई दे रही। उनका कहना था कि
1.आजकल के लड़के लड़कियां योग का महत्व नहीं समझते। अगर कहो तो कहेंगे कि जिम जायें या हैल्थ क्ल्ब में शामिल हों। मतलब वह पैसे खर्च करने की बात करेंगे।
2.उनको सुबह योग साधना के लिये बुलाना भी कठिन है क्योंकि वह शिक्षा के बोझ तले हैं। दिन में विद्यालय महाविद्यालय जाने के साथ उन पर चार चार जगह ट्यूशन जाने का भी बोझ है। बिचारे थक जाते हैं।’
जब वह अपनी बात कह चुके तब हमने उनसे कहा कि
1. ठीक है! यह जरूरी है क्या कि सभी योग शिविरों में सुबह आयें। लड़के लड़कियां तो वैसे भी हाथ पांव बहुत मारते हैं। इसलिये अगर वह योगसन और प्राणायम के लिये सुबह नहीं आते तो कोई बात नहीं। जब बाहर से घर वापस आते हैं तो उनसे भृकुटि पर नजर रखते हुए ध्यान रखने के लिये कहो। उस समय वह शरीर को ढीला छोड़ दे तो विद्यालय महाविद्यालय और ट्यूशन के दौरान जो शारीरिक मानसिक थकवाट दूर हो जायेगी। वह उठते बैठते और चलते फिरते तनाव में जीने के इस कदर आदी है कि उनको पता ही नहीं कि विश्राम क्या होता है? जब ध्यान से विश्राम अनुभव होगा तब उनको पता लगेगा कि योग साधना क्या चीज है और फिर वह योग शिविर में भी आयेंगे। योग साधना का चरम ध्यान ही है और जो इस विद्या में पारंगत हो जायेगा उसका तो कहना ही क्या?
2. उन्हें समझाओ कि जिम या हैल्थ क्लब दैहिक के लिये अस्थाई रूप से लाभ दायक हैं जबकि योगासन, प्राणायम और ध्यान से देह, मन और शरीर के विकार तो निकलते ही है बल्कि प्रभावपूर्ण वाणी और पवित्र व्यवहार से दूसरे पर भी प्रभाव पड़ता है और साथ ही चेहरे पर सुंदरता आती है जिसे आज की युवा पीढ़ी सबसे अधिक जरूरी मानती है।
एक महिला ने कविता गायी। वह न केवल योग शिक्षिका है बल्कि बरसों से निष्काम भाव से कार्य करते रहने के कारण सभी उसका सम्मान भी करते हैं। उसने देश भक्ति और नारी स्वाभिमान से पूर्ण अपनी कविता में एक जगह नारी के लिये सकारात्मक रूप से ‘रणचंडी’ शब्द का प्रयोग किया।
सब कुछ ठीक था पर उसकी कविता समाप्त होते ही एक पुरुष सज्जन ने कहा कि ‘रणचंडी बने पर ऐसी नहीं कि जैसे वह...............थी। कार्यक्रम का संचालन करने वाले ने कहा कि इस पर बहस होना चाहिये। उसने पुरुष सदस्य से कहा कि आप थोड़ा विस्तार से बात करें। उस पुरुष सदस्य से अपनी बात दोहराई और फिर दूसरी बात भी करने लगा।
तब संचालक ने उस महिला से कहा कि ‘आप भी कुछ कहिये। हम इस विषय पर चर्चा बढ़ाना चाहेंगे।’
उस महिला ने कहा कि‘यह जिस तरह बात कर रहे हैं। मेरी बात समझेंगे नहीं।’
यह पता नहीं कि वह महिला और पुरुष एक दूसरे को पहले से जानते थे पर ऐसा लगा कि हम ब्लाग और कमेंट के खेल में फंस रहे हैं। एक बार हमने सोचा कि उठकर उस महिला से अपनी बात कहें पर लगा कि कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाये। उस समय ब्लाग जगत की याद आ रही थी कि कमेंट दें कि नहीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह महिला योग साधना विषयक ज्ञान में हमसे अधिक प्रवीण थी इस बात ने हमें चुप रहने को विवश किया। तमाम तरह की बातें हमने वहां सुनी और लगा कि संभव है कि कभी हमारे शिक्षक रहे सभी गुणीजन योग साधना में बहुत प्रवीण है पर वह ऐसे मार्ग पर खड़े हैं जहां से श्रीगीता का द्वार खुलता है। जब हम बोलने का मन बना रहे थे तब यह तय था कि हम श्रीगीता के संदेश के साथ ही अपनी बात कहते पर फिर खामोश रहे।
खाने के समय वह भद्र महिला हमारे से कुछ ही दूर बैठी थी। सोचा अब कहें पर फिर चुप रहे। हम कहना यही चाहते थे कि ‘आप कुशल योग शिक्षिका हैं और आपकी वाणी के साथ विचारों के तेज की अनुभूति तो कविता से हो गयी थी। मगर अब कोई स्वतंत्रता संग्राम नहीं चल रहा जिसमें रणचंडी या रणबांकुरे चाहिये बल्कि योग और योगिनियों की जरूरत है क्योंकि युद्ध कौशल और जीवन का तत्व ज्ञान यह दोनों ही गुण उसमें हो सकते हैं। इस समय देश मेें युद्ध नहीं बल्कि विवेक जगाने के लिये एक अभियान की आवश्यकता है जो काम उन जैसे लोग इतनी सहजता से कर सकते हैं कि हम जैसे आदमी को तो पसीना ही आ जाये। आप 1983 से योग साधना से जुड़ी हैं और इसका मतलब यह है कि आप में वह शक्ति है जो आम आदमी या स्त्री में नहीं हो सकती। मुख्य बात यह है कि हमें अपने विषय और लक्ष्य के स्वरूप को समझना होगा।’
इस बार नहीं कहा पर जल्दी उनसे कहीं न कहीं मुलाकात होने की संभावना है तब यह बात कहेंगे। बहरहाल हमें वहां एक बात लगी कि योग साधना, प्राणायम और ध्यान के बाद आदमी के लिये श्रीगीता का अध्ययन ही शेष रह जाता है जो किसी को पूर्ण योगी बनाता है और इसका मतलब सन्यासी होना कतई नहीं है।
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