हिंदी में दो तरह का लिखा जाता है एक जो पुरस्कार के लिये लिखा जाता है दूसरा स्वांत सुखाय। इस स्वांत सुखाय लेखन को अधिकतर बुद्धिजीवी मूर्खतापूर्ण और हेय मानते हैं जबकि यही लेखन है जो हिंदी को वह ऊंचाईयां दे सकता है। स्वांत सुखाय यानि लेखक स्वयं संतुष्ट हो। व्यक्ति समाज की ही इकाई होता है। याद रखिये व्यक्तियों की इकाई से परिवार और परिवार से ही समाज बनता है। व्यक्ति जब स्वयं लिखकर संतुष्ट होता है तो उसका आशय यह है कि अन्य व्यक्ति यानि समाज संतुष्ट होगा। इससे अलग कुछ महान लेखक समाज के लिये लिखते रहे और इनाम पाते रहे। सच कहें तो आम पाठक को इन महान लेखकों के नाम तक याद नहीं है। आनंद बक्षी फिल्मी गीत लिखते थे और उनका नाम सभी की जुबान पर चढ़ा था। उनके कई गीत तो आज भी लोग गुनगनाते हैं। उनको कभी कोई हिंदी के लिये पुरस्कार नहीं मिला। इससे उनको कोई अंतर नहीं पड़ा पर इससे यह तो प्रमाण मिलता है कि हिंदी के पुरस्कार रूढ़वादिता का हिस्सा रहे हैं जिसके लिये जरूरी है कि आप अपनी किताब छपवायें और बंटवायें। क्या आज तक किसी ऐसे लेखक को पुरस्कार मिला है जिसकी किताब न छपी हो। दरअसल किताब के बहाने प्रकाशकों का ही धंधा होता है लेखकों को क्या मिलता है? बल्कि गांठ से ही जाता है। अगर रहीम या कबीर आज के युग में पैदा होते तो भी उनको जीवित रहते तो शायद ही कोई मानता क्योंकि वह किताब छपवाने के लिये इस तरह अपनी जेब से पैसा देने वाले नहीं थे।
हिंदी की अपनी मौलिक धारा है जिसको कोई समझ नहीं सका। गंगा के पानी की धारा को बांध बनाकर उसका मार्ग बदला जा सकता है पर हिंदी की धारा पर प्रकाशन, क्षेत्र, व्यक्ति, जाति और धर्म के शीर्षक लगाकर उसे बांधना संभव नहीं था पर जो प्रयास हुए उसने हिंदी में बेहतर लेखन का मार्ग अवरुद्ध किया जिसके कारण फिर दूसरा कोई प्रेमचंद पैदा नहीं हुआ।
बड़े लेखक कहलाने से कुछ नहीं होता बल्कि आपकी रचनायें दूसरों को कितना प्रभावित करती हैं यह महत्वपूर्ण है। फिर भी अनेक संस्थागत मठाधीश खुशफहमी में रहे हैं। इधर अंतर्जाल पर भी हिंदी की धारा पर वैसे ही प्रकाशन, व्यक्ति, जाति क्षेत्र और धर्म के बांध बनाने की कोशिश हो रही है। हिंदी की मौलिक धारा-जो अब वैश्विक काल में प्रवेश कर चुकी है-उसके समांनांतर धारायें बनाने की वैसी ही कोशिश हो रही है। हिंदी की मौलिक धारा वह है जिसके साथ आम आदमी एक पाठक से जुड़ा हो। हमारे महान हिन्दी विद्वान कहते हैं कि हास्य कवि साहित्यकार नहीं है। फिल्मी गीतकार साहित्यकार नहीं है। जिसकी किताब नहीं छपी वह तो साहित्यकार क्या लेखक तक नहीं है। दरअसल यह सभी लेखक व्यवसायिक, सामाजिक तथा राजनीतिक संगठनों के ऐजेंडे के साथ हिंदी को चलाते आये है। ऐसे कई लेखक हुए जो गुमनामी के अंधेरे में इसलिये खो गये क्योंकि उनका आर्थिक, सामाजिक, क्षेत्रीय,जातीय और धार्मिक आधार मजबूत नहीं था। अगर आप वाकई पाठक हैं तो समाचार पत्रों में छपने वाले संपादक के नाम पत्रों को पढ़िये-उनमें आपको कई ऐसे लेख दिखेंगे जो उनके आलेखों से बेहतर रहते हैं मगर तयशुदा प्रारूप में काम करने वाले हमारे संस्थानों से जुड़े लोग उनकी परवाह नहीं करते। उनको तो बस नाम वाले लोगों की रचनायें छापनी हैं ताकि उनकी किताबें बिक सकें। यही कारण है कि अब तो ऐसे लोग अपनी किताबें छपवाने लगे हैं जो आर्थिक, सामाजिक तथा व्यवसायिक शिखर पर रहे पर एक कविता तक नहीं लिखी। व्यवसायिक प्रकाशनों के ऐजेंडे पर चले लेखकों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि आम आदमी के लिये रुचिकर लेखन के साथ ही उसे संदेशात्मक बनाया जाये। जहां संदेशात्मक लेखन की बात आई तो उन्होंने ऐसे स्त्रोतों से विचार लिये जिनको समाज स्वीकार नहीं करता।
इधर अंतर्जाल की वेबसाईटें और ब्लाग लेखन ने कई महान लोगों को विचलित कर रखा है। हमारे मठाधीशी संस्थानों को समझ में नहीं आ रहा कि इस पर कैसे नियंत्रण रखें? धरती पर बहती नदी पर बांध बनाना है पर आसमान में उड़ते हिंदी शब्दों पर ऐसा नियंत्रण संभव नहीं है। अभी तो संस्थान शक्तिशाली हैं इसलिये वह केवल उन्हीं वेबसाईटों और ब्लाग लेखकों को भाव दे रहे हैं जिन पर उनका नियंत्रण है। जो स्वतंत्र हैं उनकी परवाह इसलिये भी नहीं है क्योंकि उनके पास इतने पाठक नहीं है कि वह प्रचार जगत पर प्रभाव डाल सकें। संस्थागत लोगों के लिये अभी चिंता की बात भी नहीं है पर भविष्य की आशांकायें उनको अवश्य घेरे हुई हैं कि कहीं कुछ लेखक स्वतंत्र और मौलिक रूप से छा गये तो उन पर नियंत्रण कैसे होगा? हालांकि ऐसी स्थिति अभी दस वर्ष तक नहीं आनी इसलिये उनके चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। अब कहीं अचानक ही अधिक प्रतिभाशाली लेखकों का आगमन संभावनाओं से पहले ही हो गया तो यह अलग बात है।
अलबत्ता हिंदी की धारा अब संस्थागत दबावों से परे होकर अंतर्जाल पर अपने स्वतंत्र रूप से बह रही है। अभी इसका मुख अधिक बड़ा नहीं है पर उसने संस्थागत नियमों के विरुद्ध बहना शुरु कर दिया है। सच बात तो यह है कि आम पाठक की नजर में अच्छे हिंदी लेखक होने का प्रमाण केवल पुरस्कार नहीं है। अलबत्ता पैसे की बात जरूर आती है कि लोग पूछते हैं कि आपको लिखने पर क्या मिलता है? यह कोई नहीं पूछता कि पुरस्कार मिला कि नहीं। इन पुरस्कारों की हकीकत हर आदमी जानता है। इस लेखक ने तो कई बड़े लेखकों के नाम इसी अंतर्जाल पर आकर जाने हैं। इतना ही नहीं कई ऐसे लेखक हैं भी जिनका नाम खूब सुना है पर उनकी रचना तक नहीं पड़ी।
इधर देश के अनेक प्रदेशों के लेखकों को पढ़ने का अवसर मिला तो यह देखकर हैरानी हुई कि लेखकों की हिंदी प्रति निष्ठा किसी पुरस्कार की वजह से नहीं बल्कि स्वयं की अभिव्यक्ति के कारण है यानि की स्वांत सुखाय। यही कारण है कि अनेक बार ऐसे लेख पढ़ने को मिलते हैं जिनका बाहर पढ़ना कठिन है। यही स्वांत सुखाय की प्रवृत्ति समाज को ऐसी रचनायें देने वाली है जिसकी अपेक्षा हम बरसों से कर रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है अनेक ऐसे प्रदेशों के लेखक भी अच्छा लिख रहे हैं जहां से अभी तक अच्छे हिंदी लेखक बड़ी संख्या में नहीं मिलते थे। पूरे देश के इस हिंदी की मौलिक धारा बहते हुए कोई भी देख सकता है यह अलग बात है कि संस्थागत मठाधीशों को यह दिखाई नहीं देता। अलबत्ता उनके कृत्यों से यह साफ जाहिर हो रहा है कि वह अभी भी पुराने आधारों पर काम कर रहे हैं। वैश्विक काल में प्रवेश कर चुकी हिंदी अपने असली रूप के साथ आगे बढ़ेगी यह बात सभी को सोच लेना चाहिये क्योंकि यह हमारी मातृभाषा है।
...................................
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
3 comments:
आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.
भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.
आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.
भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.
आपने सही कहा .. स्वान्त: सुखाय लेखन में आत्मा का वास होता है .. ब्लाग जगत में आज हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
Post a Comment