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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/12/09

प्रतिक्रियात्मक लेखन-व्यंग्य आलेख (Reflective writing in hindi - satire article)

आजकल एक नारा बहुत कम सुनाई देता है‘प्रतिक्रियावादी ताकतों से बचें।’ आजकल यह नारा कम ही सुनाई देता है इसका कारण यह है कि यहां तो अब प्रतिक्रियात्मक लेखन ही साहित्य हो गया है। यह नारा पहले विकासवादियों ने लगाया था जिनको यह यकीन था कि वह अपने कार्य अपनी मौलिक सोच से कर रहे हैं और जो उनके विरोधी है वह केवल विरोध करते हैं जबकि उनका अपना कोई मूल सोच नहंी है। अब हालत यह है कि प्रतिक्रियात्मक लेखक ही सभी जगह छाये हुए हैं ऐसे में मौलिक विचारधाराओं को अब स्थान मिलना ही नहीं है। इसका कारण यह है कि अखबारों और टीवी चैनलों पर नाम केवल प्रतिक्रियात्मक लेखन से ही मिलता है और साहित्य लिखने वालों के लिये वहां कोई अधिक स्थान नहीं है दूसरा साहित्यकारों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वह अपने पैसे से किताबें छपवा सकें।
जी हां, यह देश आजादी के समय से ही नारों और वाद पर चलता रहा है। हालत यह है कि आजादी तो मिल गयी पर गुलामी की मानसिकता यथावत है। इस देश का इतिहास सदियों पुराना है पर आजादी की जंग के इर्दगिर्द ही सारे विचारक घूम रहे हैं। कहते हैं कि यह देश दो हजार वर्ष तक गुलाम रहा पर जिस तरह देश की हालत है अब भी आजादी दूर की कौड़ी लगती है। अगर हम देश के बुद्धिजीवियों के विचार देखें तो तो उनके लिये आजादी का मतलब यही है कि दूसरे देश की बजाय अपने ही देश के लोग अपना शोषण करें।
ऐसा नहीं है कि इस देश में चिंतक नहीं है और उनको पता नहीं कि प्रतिक्रियावादी क्या होते हैं पर चूंकि वह स्वयं ही भी उसी राह पर चल रहे हैं तो यह संभव नहीं है कि सोते हुए समाज को जगाकर बतायें कि प्रतिक्रियावाद किस बला का नाम है। आजादी का संघर्ष इस देश का इतिहास है पर सभी कुछ वह नहीं है। आप भारतवर्ष की भौतिक आजादी की बात कर रहे हैं वह अभी बहुत छोटा है। एक समय इस देश के राजाओं की सीमा तिब्बत तक फैली हुई थी और आज हम जिस चीनी ड्रैगन से डर रहे हैं इसी इतिहास से खौफ खाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह आजादी एक सीमित उद्देश्य की पूर्ति करती है न किस इससे कोई बृहद लक्ष्य हासिल हुआ है। इसी आजादी के संघर्ष में कई योद्धा हुए जिनका आजादी के बाद इस देश को बनाने की अपनी एक योजना और विचार थे। इनमें कई शहीद हो गये तो कई आजादी के बाद विस्मृत हो गये। हम उनको नमन करते हैं पर अब जिस तरह उन शहीदों और योद्धाओं के नाम पर लोग अपने लिये उपयोग कर रहे हैं चिंतन और मनन का विषय है। मुख्य बात यह है कि जब किसी भी महापुरुष का जीवन सुनाया जाता है तो उसका महत्व और उसके विचारों का महत्व समान नहीं रहता। महापुरुषों के चरित्र पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए पर विचारों में इसकी गुंजायश होती है। हो सकता है कि हम किसी महापुरुष के जीवन से प्रभावित हों पर यह जरूरी नहीं है कि हम उसके विचारों का भी समर्थन करें खासतौर से जब आजादी के बाद का अनुभव उनके पास नहीं रहा हो। फिर यह सवाल यह है कि आजादी के योद्धाओें के मन में जो संघर्ष का भाव था मातृभूमि से प्रेम के कारण उपजा था पर उनके विचारों का स्त्रोत क्या था, यह भी देखने वाली बात होती है।
अब हो यह रहा है कि अनेक लोग आजादी या आजादी के तत्काल बाद के महान विचारकों के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शन करते हुए उनके विचारों का भी बोझ उठा रहे हैं और यहीं से प्रारंभ हो जाता है प्रतिक्रियात्मक लेखन जो कि किसी भी दशा में साहित्य और भाषा की वृद्धि में सहायक नहीं होता। प्रतिक्रियात्मक लेखन से आशय यह है कि समाज में घटित होने वाली घटनायें और समाचारों पर ही अपनी टिप्पणी, कहानी, व्यंग्य या कविता लिखना। ऐसा लेखन समय के साथ अप्रासंगिक हो जाता है। इनके प्रासंगिक होने की केवल एक ही शर्त है कि पात्रों, वस्तुओं या स्थितियों में ऐसे तत्व अपनी सामग्री में शामिल करें जो कभी भी पुरानी न पड़ें। मान लीजिये भाई ने भाई को धोखा दिया तो आप केवल उस घटना पर ही लिख रहे हैं जबकि उसमें ऐसी हालातों, दोनों के मानसिक उतार चढ़ाव और चरित्र को भी विस्तार दें क्योंकि उनमें दोहराव संभव है जबकि पात्रों का नहीं। मतलब यह है कि एक भाई दूसरे को धोखा फिर कहीं देगा उस समय आपका लिखा तभी याद किया जायेगा जब उसमें कुछ दोहराने लायक संदेश होगा। प्रतिक्रियात्मक लेखन के मुकाबले संदेशात्मक लेखन बहुत उपयोगी होता है हालांकि उसके परिणाम दीर्घकाल में मिलते हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों से बचाव का कोई उपाय नजर नहीं आ रहा क्योंकि उसे अब कोई ललकारता ही नहीं बल्कि टीवी और अखबार उनका उपयोग करते हुए उनको प्रचार दे रहे हैं।
किसी घटना या समाचार पर लिखने वाले इतने हैं कि उनके बीच बैठकर मौलिक और स्वतंत्र लिखने वालों को असहजता अनुभव होती है। एक बाद दूसरी भी है कि भारत में हर कोई अपने लिखे से समाज बदलना चाहता है। समाज बदलना है इसलिये लिखते हैं। ऐसे प्रतितक्रियात्मक लेखन से कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वह एक बार पढ़ते ही पुराना हो जाता है। दूसरी बात यह है कि हमारे देश के अधिकतर लेखक विचाराधाराओं के जाल में फंसे हैं जो कि केवल नारों पर आधारित हैं। यह सभी विचाराधारायें पश्चिम से आई हैं। कहने को भले ही लोग कहें कि हमें अंग्रेजियत से परहेज है पर उनकी लिखने और काम करने की शैली वही हैं जो अंग्रेजों की दी हुई हैं।

हिंदी के महान रचनाकार प्रेमचंद का मुकाबला आज तक कोई भी नहीं कर सका क्योंकि उनका लेखन कभी प्रतिक्रियात्मकवाद नहीं रहा। गुलाम देश में सरकारी मुलाजिम होने के बावजूद उन्होंने सामाजिक संदर्भों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। उनकी रचनाओं में देश की आजादी या गुलामी की चर्चा अधिक पढ़ने में नहीं आती। इसका सीधा आशय यह है कि वह हिंदी साहित्य में सामाजिक संदर्भ देखना चाहते थे। हालांकि इस लेखक ने प्रेमचंद की ढेर सारी रचनायें पढ़ी हैं पर यह नहीं जान पाया कि आजादी और उसके संघर्ष पर उनकी क्या राय थी? जहां तक हमारी जानकारी है प्रेमचंद जी ने आजादी के संबंध में कोई बड़ी रचना नहीं लिखी। संभवतः वह जानते थे कि आजादी के बाद वह पुरानी पड़ जायेंगी। यह संभव नहीं है कि इतने बड़े साहित्यकार ने आखिर इस आजादी और उसके संघर्ष के कुछ न सोचा हो पर उसकी चर्चा न होना इस बात का प्रमाण है कि एक साहित्यकार की दृष्टि से आजादी के विषय में उनके मायने इतने संक्षिप्त नहीं रहे होंगे जितने अन्य विद्वानों के दिखते हैं।
सच बात तो यह है कि प्रतिक्रियात्मक लेखन के बिना चलना भी कठिन है। साहित्य लिखने वाले दूसरों का लिखा साहित्य कम बल्कि प्रतिक्रियात्मक लेखन अधिक पढ़ते हैं क्योंकि उनमें ही उनके लिये नये विषय होते हैं। प्रतिक्रियात्मक लेखकों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह समाज को तत्काल अपने शब्दों से जागरुक करने को भ्रम पाल लेते हैं। ऐसा न होने पर झल्लाते हैं। इसके विपरीत साहित्य लिखने वाले इस बात से बेपरवाह होते हैं। वैसे देश के प्रतिक्रियात्मक लेखन करने वालों को यह समझ लेना चाहिये कि वह नारों और वाद की धारा में लिख रहे हैं और समाज को जागृत करने के लिये जिस अध्ययन और चिंतन-आज के दौर में गहन और गंभीर नहीं है बल्कि सूक्ष्म और संक्षिप्त भी चलेगा- की आवश्यकता है उसके बिना कोई भी शब्द सामग्री प्रभावी नहीं होती। एक मुश्किल दूसरी भी है कि लोग सोच तो देशी लेते हैं पर कार्यशैली की वकालत विदेशी की करते हैं और यहीं से उनका तारतम्य बिगड़ जाता है। हमें वही करना चाहिये जैसा कि वह-अंग्रेज और अन्य पश्चिमी जगत-कर रहें है यह सोच उनकी राह में भटकाव लाती है।
आखिरी बात यह है कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मोह रखने वाले यहां हर विषय पर कानून बनाने की मांग करते हैं पर उनको पता नहीं है कि अंग्रेज कभी भी लिखित कानून पर नहीं चलते। यह उनका आत्मविश्वास है। भारत के कुछ विचारक-जो वाकई धन्य है जो ऐसी बात कह गये-कहते हैं कि अंग्रेज तो क्रिश्नियिटी पर चलते हैं जो हमारी ही कृष्ण नीति है। शायद वह सच कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने सहज योग का संदेश दिया पर लगता है कि वह ंअंग्रेजों के पास पहुंच गया। इसलिये वह स्वयं हमेशा अलिखित संविधान के सहजता से चलते जा रहे हैं पर अपनी हरकतों से पूरे विश्व में असहजता फैला रखी है। लोग उनको देखकर असहज हुए जाते हैं कि हम भी उनकी तरह हो जायें पर इस चक्कर में सभी असहज हुए जा रहे हैं। इसी असहजता का परिणाम यह है कि किसी घटना या समाचार में हर कोई अपने विचार तो रख लेता है ताकि उस पर जल्दी प्रतिक्रिया मिल जाये पर दीर्घकालीन स्थिति तक प्रभाव रहे ऐसा बहुत कम ही लोग लिख पाते हैं। अंग्रेज स्वयं कई खेल खेलते हैं जबकि भारत को क्रिकेट ही सौंप गये ताकि वह उसी पर उलझा रहे। शेष फिर कभी
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