अक्सर हिन्दू धर्म के अन्य धार्मिक आलोचक (इसका आशय विदेशी विचारकों और प्रचारकों से है)
इन्हीं वेदों और मनुस्मृति से श्लोक लेकर हमला करते हैं पर यह उनकी सोच नहीं है। अन्य धार्मिक विचाराधारओं के मानने वालों (विदेशी विचारकों और प्रचारकों) के पास इतनी चिंतन क्षमता हो ही नहीं सकती कि वह भारतीय वेदों, पुराणों और मनुस्मृति को पढ़कर आलोचना कर सकें बल्कि यह भारतीय समाज के अंदरूनी तत्वों द्वारा ही जानकारी प्रदान की जाती है। इससे भी आगे हम यह कहें कि हमें गैर भारतीय विचारधर्मियों से कम अपने ही समाज के और बौद्धिक तत्वों से अधिक चुनौती है जो विदेशी विचाराधाराओं के सहारे यहां वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। इसमें हम जनवादी प्रगतिवादी विचाराधारा के सभी नहीं तो कुछ तत्वों को शामिल पाते हैं जिनको इस देश के समाज को गरीब, मजदूर, स्त्री, बालक,बीमार और बदहाल जैसे वर्गों में बांटकर कल्याण करने का शौक है।
यहां हमारा आशय हिन्दू धर्म और उसके ग्रंथों के आलोचकों को उत्तर देना नहीं वरन् समान विचारधार्मियों को यह समझाना है कि वह अपने तर्क ठोस ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाते और परिणाम स्वरूप उत्तेजना या गुस्से में ऐसी अभिव्यक्ति करते हैं जो उनके लिये उचित नहीं है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति सदैव नवनिर्माण, सौम्य विकास और वैचारिक प्रवाह की निरंतरता की पोषक है। इस धरा की ऊर्जा मनुष्य में ज्ञान और विज्ञान की धारा को प्रवाहित रखती है जिससे यहां अध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का सदैव भंडार रहता है।
वेदों की रचना प्रारंम्भिक काल में हुई। इसकी रचना का काल खंड कोई प्रमाणिक रूप से नहीं जानता क्योंकि इनमें ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों तथा महापुरुषों ने अपने अथक प्रयासों से इसमें अपना ज्ञान प्रस्तुत किया और वह इतने निष्कामी और निष्प्रयोजक दयालु थे कि आत्मप्रचार से बचने के लिये नाम भी नहीं लिखते थे। हमारे देश में अध्यात्मिक ज्ञान के लिये निरंतर अन्वेषण होता रहा है इसलिये यह कहना कठिन है कि किसी एक महापुरुष ने इसकी रचना की होगी। कहने वाले तो यह कहते हैं कि दुनियां में कहीं भी कही या लिखी गयी अच्छी और समाज हित की बात वेद का ही हिस्सा है या इसे यूं कहें कि वह वेदों में कही जा चुकी है। हम यहां वेदों का महत्व साबित नहीं करने जा रहे बल्कि हिन्दू धर्म समाज की उस सतत प्रवाहित वैचारिक धारा की चर्चा कर रहे जिससे अन्य धार्मिक समाज दूर रहते हैं। वेद या मनुस्मृति की आलोचना या चर्चा कर हमारे समाज को रास्ते से हटाने का प्रयास सदियों से चल रहा है और इसे समझना होगा क्योंकि आज का समाज केवल इनके सहारे आगे नहीं बढ़ रहा। हम यहां बाल्मीकी रामायण, श्रीमद्भागवत, महाभारत और श्री मद्भागवत गीता जैसे वह ग्रंथ क्यों भूल जाते हैं जिनसे आज के समाज का सर्वाधिक प्रयोजन है। वेदों या मनुस्मृति में अवर्ण जातियों तथा स्त्रियों के लिये जो बातें तत्कालीन संदर्भों में कही गयीं उनका संदर्भ हमें पता नहीं है पर उनको वर्तमान में कौन मानता है? जो मानते हैं उनको समाज के ज्ञानी लोग ही मूर्ख कहते हैं। फिर समाज जैसे जैसे आगे बढ़ता गया अन्य रचनायें होती गयीं और वेदों से उचित ज्ञान उनमें समावेश किया गया। आज केवल धर्म में विशिष्टता प्राप्त करने के जिज्ञासु ही इन धर्म ग्रंथों को पढ़ते हैं पर अन्य सामान्य व्यक्ति इनके बारे में अधिक नहीं समझता।
कहा जाता है कि वेदों में असंख्य श्लोक थे पर अब हजारों में उपलब्ध हैं? इसका मतलब यह नहीं है कि श्लोक कहीं खो गये बल्कि उनको कहीं न कहीं संजो कर रखा जाता रहा इसलिये वेदों के प्रति यह समाज उदासीन होता चला गया। सच बात तो यह है कि वेदों में जो तत्व ज्ञान है उसे तो अनेक लोगों ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया। वेदों में भी दो तरह की ज्ञान ही हो सकता था-एक तो दैहिक-भौतिक तथा दूसरा अभौतिक-अध्यात्मिक। इनमें दैहिक तथा भौतिक ज्ञान तो समय के साथ परिवर्तित होता है पर अभौतिक तथा अध्यात्मिक ज्ञान में परिवर्तन नहीं आता और यही मनुष्य मन के लिये लाभदायी होता है। इसी अव्यक्त और अध्यात्मिक ज्ञान को संजोए रखने के लिये प्रयास हुए जिसके कारण समाज वेदों से उदासीन है।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का मूल तत्व निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया जैसे अनेक संदेश हैं। वेदों से उदासीन होने का कारण भगवान श्री कृष्ण जी की गीता भी रही। चारों वेदों का सार उसमें आ गया-सच कहें तो श्रीकृष्ण ने अपनी अलौकिक बुद्धि से चारों वेदों का सार जिस तरह प्रस्तुत किया उससे तो उन्हें इस विश्व का प्रथम संपादक कहकर मन गद्गद् कर उठता है। उन्होंने न केवल वेदों के तत्व ज्ञान का इसमें समावेश किया बल्कि दैहिक एवं भौतिक संसार को समझने का विज्ञान भी दिया।
उस दिन एक सज्जन ने कहा कि ‘भला बताईये, आयुर्वेद की कौनसी शिक्षा इसमें शामिल है।’
इसका जवाब है कि ‘आयुर्वेद में बीमारियों की दवा से बचने के अलावा उनके इलाज की चर्चा है मगर भगवान श्रीकृष्ण जी ने उनसे बचने का उपाय भी बताया और इलाज भी। उन्होंने बीमारियों से बचने के लिये उचित खानपान का ज्ञान दिया तो इलाज के लिये प्राणायम का उपाय भी बताया।’
यह दुनियां का अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान और विज्ञान दोनों ही शामिल है। इसमें शामिल हिन्दूओं का समग्र ज्ञान है और वह भी संक्षिप्त रूप से। ऐसा कुशल संपादन कौन संपादक कर सकता था?
आधुनिक काल के हिन्दी भाषी लेखकों ने अपनी कलम विचाराधाराओं के द्वंद्व पर अधिक चलाई पर वैश्विक काल-जीं हां, अंतर्जाल पर लिखने के साथ ही इसकी शुरुआत हुई क्योंकि वह रूढ़ हो चुके संस्थानों की पकड़ से बाहर निकली है-के हिन्दी लेखकों को वेदों के महत्व बताने की बजाय अपने संपूर्ण अध्यात्मिक ग्रंथ का प्रतीक श्रीगीता में ही आलोचकों के उत्तर ढूंढने चाहिये। उससे अगर संतुष्ट न हों तो बाल्मीकी रामायण और श्रीमद्भागवत का अध्ययन करें। वेदों और मनुस्मृति पर विवाद या (कु)चर्चा करने में समय बरबाद करना व्यर्थ है। हमारा समाज निरंतर चलता रहता है और कहीं एक जगह अटक कर रह जाना उसकी फितरत नहीं है। यह अलग बात है कि श्रीगीता में जो ज्ञान दिया है वह हर युग की दृष्टि से स्थिर रहने वाला है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है।
दरअसल भारत में एक बौद्धिक वर्ग है जिसे यह अध्यात्मिक ज्ञान नहीं सुहाता। वह खुशहाल समाज नहीं देखना चाहता बल्कि समाज में व्याप्त आर्थिक गरीब, जातीय विवाद तथा सामाजिक रूढ़ियों के प्रतिवाद में अपनी जगह तलाशता है। ऐसा नहीं है कि यह साठ या सत्तर साल पुरानी बात है बल्कि यह कबीर जी के समय से ही चल रहा है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के चरित्रों की कहानियां सुनाकर कुछ लोगों ने अपने अध्यात्मिक ज्ञानी होने का ढोंग रचाया जिसको दिखाकर हिन्दू धर्म के आलोचक अधिक बौखला जाते हैं। भले ही ऐसे लोग ढोंगी हैं पर धर्म प्रवाह में उनकी एक भूमिका है जो वह अनजाने में ही निभा जाते हैं। हिन्दू धर्म के आलोचक उन जैसे नहीं बन सकते क्योंकि उन्होंने धर्म ग्रंथ पढ़े नहीं है पर उन जैसा पुजना चाहते हैं। इसलिये आप सुनते होंगे कि कुछ लोगों के नाम लगी उपाधियों-‘गरीबों के मसीहा, शोषितों के मसीहा, नारी कल्याण के प्रतीक।
कहने कहा तात्पर्य यह है कि समय के साथ ही हमारे महापुरुष, तपस्वी, ऋषि और मुनि वेदों से प्रदत्त ज्ञान को इस तरह लेकर आगे चले कि उनमें परिवर्तित होने वाला दैहिक तथा भौतिक ज्ञान जो अप्रासंगिक हो गया है उसे छोड़ दिया जाये। हां, जो तत्व ज्ञान है उसे किसी ने नहीं छोड़ा। हमारी इस पावन धरा पर समय समय महापुरुष आते हैं यह उसका गुण है और उसी तरह समाज का भी यह गुण है कि वह उनके संदेशों के साथ अपना रास्ता बनाता जाता है। किसी एक पुस्तक या महापुरुष से चिपक कर केवल उसे ही मान लेना मानसिक दृढ़ता का नहीं बल्कि वैचारिक संकीर्णता का प्रतीक है। फिर वैश्विक काल के हिन्दी लेखकों को यह नहीं भूलना चाहिये कि उनका असली संघर्ष गैर भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा मानने वालों से नहीं वरन् कथित रूप से अपनी विचाराधारा वाले लोगों से ही है।
वह वेद की बात करें तो तुम उनको बाल्मीकी रामायण, श्रीमद्भागवत और श्रीगीता दिखाओ-उन्हें बताओ कि यह है हमारी ताकत। वह तो वेद और मनुस्मृति पर चर्चा करेंगे क्योंकि उनको इन तीनों महांग्रथों से खौफ लगता है। श्रीगीता के बारे में तो कहना ही क्या? वह इसका नाम भी नहीं लेंगे क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने इसमें संदेश ही इस तरह दिया है कि पढ़ लिख चाहे जो भी ले पर जब तक वह हृदय से उनके प्रति श्रद्धा नहीं दिखायेगा वह समझेगा नहीं और जो उनको मानेगा ही नहीं तो उसकी जुबां से श्रीगीता का नाम निकलेगा ही नहीं और कान से सुनते ही उसकी नसों में भय दौड़ने लगेगा। याद रखो कि वेद और मनुस्मृति पर (कु) केवल विचलित करने के लिये की जाती है और बाल्मीकी रामायण, श्रीमद्भागवत तथा श्रीगीता की बात करने का उन लोगों में नहीं है। सच बात तो यह है कि वेदों और मनुस्मृति पर उनसे (कु)चर्चा कर उनके जाल में ही फंसना है। आखिर हम उनके ऐजेंडे पर ही बहस क्यों करें वह हमारे ऐजेंडे पर बहस क्यों नहीं करते? वह वेदों और मनुस्मृति को उठाते हैं पर श्रीगीता से उनकी परहेज क्या उनकी दुर्भावना का प्रतीक नहीं है?शेष फिर कभी
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3 comments:
आपका सारगर्भित विवेचन सहेज कर रखने लायक है | आपने बिलकुल सही कहा है की "हमें गैर भारतीय विचारधर्मियों से कम अपने ही समाज के और बौद्धिक तत्वों से अधिक चुनौती है जो विदेशी विचाराधाराओं के सहारे यहां वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं।" - १००% सहमत |
पर कुछ बिन्दुएँ है जिसपर मैं आपका ध्यान आक्रिस्ट करना चाहता हूँ : वेद का रचना काल श्रिष्टी के आरम्भ मैं ही है | २-३ विचारधाराएं हैं (जो मैं जनता हूँ) इस सम्बन्ध मैं १. चारो वेद ब्रह्मा जी के चार मुख से निकले २. भगवान् विष्णु ने चारो वेदों को सौंपा ३. ४ देवताओं से चार वेद प्रकट हुआ (और भी कोई विचारधारा हो सकती है जिसका हमें ज्ञान नहीं ) | ... पर तीनो विचारधारा वेद का रचना काल श्रृष्टि के आरम्भ मैं ही बताते हैं | हाँ ये बात अलग है की आज के इतिहासकार ऐसा मानते नहीं | मनंगे कैसे उन्हें भारतीय अध्यात्म का कोई इल्म ही नहीं |
और एक बात आपने कही की वेद - मनुस्मृती को छोड़ कर गीता, रामायण ... पे बात करो | मैं इससे सहमत हूँ पर मैं ऐसा मानता हूँ की वेद मैं लिखा हुआ कुछ गलत नहीं है | ये हमारे समझ का fer है की इसे बिना समझे गलत मान बैठे हैं | सच्चे वेद gyaata की शरणागति करेंगे तभी वेद का सही अर्थ मालूम चलेगा | अब मेक्स मुलर की वेड व्याख्या पढेंगे तो वेद को उलटा ज्ञान ही हमारे सर आयेगा | उदाहरण के लिए शुद्र शब्द लीजिये | सभी लोग खूब हो हल्ला मचा रहे हैं की वेद मैं शूद्रों के बारे मैं बहुत गलत कहा गया है | पर कितने लोग ऐसे हैं जो शुद्र का सही अर्थ जानते हैं या जानना चाहते हैं? पहले शुद्र कोई जन्म से नहीं अपितु कर्म निर्धारित होता था | और शुद्र वो होता था जो अध्यात्मिक ज्ञान को नकारता था | ये सर्वविदित है की बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मनुष्य का कल्याण संभव ही नहीं है | ऐसे कई उदाहरण हैं लेकिन समय और टिप्पणी को छोटा रहना है इसलिए यहाँ नहीं लिख सकता |
अंत मैं भी कहूंगा की "आखिर हम उनके ऐजेंडे पर ही बहस क्यों करें वह हमारे ऐजेंडे पर बहस क्यों नहीं करते? " क्षमा भी चाहुगा की आपके सामने ज्ञान बघारने की ध्रिस्तता कर दिया | मेरे दिल और दिमाग को जो सही लगा वही मैंने लिखा है | वैसे मेरा ज्ञान आपके सामने नगण्य है | और आपसे बहुत कुछ सिखने को मिलेगा ऐसी आशा मैं अपने दिल मैं पाल रखा हूँ |
मेरा प्रणाम स्वीकार करें |
ठीक कहते हैं आप चर्चा सब पर करनी चाहिये, मैं आपकी बात से सहमत हूं, आपकी और राकेश सिंह जी की बातों का ख्याल रखा जाना चाहिये, अच्छा किया आप दोनों ने इस पोस्ट से जता दिया कि कमजोरी कहाँ है,
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विचार करो कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा हैं या यह big game against islam है
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इस्लामिक पुस्तकों के अतिरिक्त छ अल्लाह के चैलेंज
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पहला:
"अक्सर हिन्दू धर्म के अन्य धार्मिक आलोचक इन्हीं वेदों और मनुस्मृति से श्लोक लेकर हमला करते हैं...."
अगर ऐसा ही है तो आपभी उन्हें उसका माकूल जवाब दीजिये ताकि वह संतुष्ट हो जाएँ... अगर ऐसा न कर सकें तो निकल जाइये सत्य की खोज में...
दूसरा:
"अन्य धार्मिक विचाराधारओं के मानने वालों के पास इतनी चिंतन क्षमता हो ही नहीं सकती कि वह भारतीय वेदों, पुराणों और मनुस्मृति को पढ़कर आलोचना कर सकें बल्कि यह समाज के अंदरूनी तत्वों द्वारा ही जानकारी प्रदान की जाती है।"
यह कहना बिलकुल बेमानी है, आज भी कई गैर-हिन्दू विद्वान हैं जिन्होंने वेदों और हिन्दू-धर्म की किताबों का बखूबी अध्ययन किया है...
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